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मिर्च की खेती किसानों के लिए उत्तम

मिर्च भारत के अनेक राज्यों में पहाड़ी व मैदानी क्षेत्रों में फल के लिए उगायी जाती है. मिचरें में तीखापन या तेज़ी ओलियोरेजिल कैप्सिसिन नामक एक उड़नशील एल्केलॉइड के कारण तथा उग्रता कैप्साइिसन नामक एक रवेदार उग्र पदार्थ के कारण होती है. देश में मिर्च का प्रयोग हरी मिर्च की तरह एवं मसाले के रूप […]

मिर्च भारत के अनेक राज्यों में पहाड़ी व मैदानी क्षेत्रों में फल के लिए उगायी जाती है. मिचरें में तीखापन या तेज़ी ओलियोरेजिल कैप्सिसिन नामक एक उड़नशील एल्केलॉइड के कारण तथा उग्रता कैप्साइिसन नामक एक रवेदार उग्र पदार्थ के कारण होती है. देश में मिर्च का प्रयोग हरी मिर्च की तरह एवं मसाले के रूप में किया जाता है. इसे सब्जियों और चटनियों में डाला जाता है. मिर्च के सुखाए हुए फलों में 0.16 से 0.39 प्रतिशत तक था सूखे बीजों में 26.1 प्रतिशत तेल पाया जाता है. बाजार में आमतौर पर मिलने वाली मिचरे में कैप्सीसिन की केवल 0.1 प्रतिशत मात्र पायी जाती है. मिर्च में अनेक औषधीय गुण भी होते हैं. एक एस्कार्बिक अम्ल, विटामिन-सी की धनी होती है.

जलवायु

मिर्च गर्म और आर्द्र जलवायु में भली-भांति उगती है. लेकिन फलों के पकते समय शुष्क मौसम का होना आवश्यक है। गर्म मौसम की फसल होने के कारण इसे उस समय तक नहीं उगाया जा सकता, जब तक कि मिट्टी का तापमान बढ न गया हो और पाले का प्रकोप टल न गया हो. बीजों का अच्छा अंकुरण 18-30 डि सेंटी ग्रेड तापामन पर होता है. यदि फूलते समय और फल बनते समय भूमि में नमी की कमी हो जाती है, तो फलियां, फल व छोटे फल गिरने लगते हैं. मिर्च के फूल व फल आने के लिए सबसे उपयुक्त तापमान 25-30 डिग्री सेंटी ग्रेड है. तेज़ मिर्च अपेक्षाकृत अधिक गर्मी सह लेती है. फूलते समय ओस गिरना या तेज वर्षा होना फसल के लिए नुकसानदाई होता है. क्योंकि इसके कारण फूल व छोटे फल टूट कर गिर जाते हैं.

किस्में

पूसा ज्वाला : इसके पौधे छोटे आकार के और पत्तियां चौड़ी होती हैं. फल 9-10 सेंटीमीटर लंबे ,पतले, हल्के हरे रंग के होते हैं जो पकने पर हल्के लाल हो जाते हैं. इसकी औसम उपज 75-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर , हरी मिर्च के लिए तथा 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सूखी मिर्च के लिए होती है. पूसा सदाबाहर : इस किस्म के पौधे सीधे व लम्बे ; 60 – 80 सेंटीमीटर होते हैं. फल 6-8 सें मी. लंबे, गुच्छों में , 6-14 फल प्रति गुच्छा में आते हैं तथा सीधे ऊपर की ओर लगते हैं पके हुए फल चमकदार लाल रंग ले लेते है. औसत पैदावार 90-100 क्विंटल, हरी मिर्च के लिए तथा 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, सूखी मिर्च के लिए होती है. यह किस्म मरोडिया, लीफ कर्लद्ध और मौजेक रोगों के लिए प्रतिरोधी है.

मृदा एवं खेती की तैयारी

मिर्च यद्यपि अनेक प्रकार की मिट्टियों में उगाई जा सकती है, तो भी अच्छी जल निकास व्यवस्था वाली कार्बिनक तत्वों से युक्त दुमट मिट्टियां इसके लिए सर्वेतम होती हैं. जहां फसल काल छोटा है, वहां बलुई तथा बलुई दोमट मिट्टयों को प्राथमिकता दी जाती है. बरसाती फसल भारी तथा अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी में बोई जानी चाहिए. जमीन पांच-छ: बार जोत कर व पाटा फेर कर समतल कर ली जाती है. गोबर की सड़ी हुई खाद 300-400 क्विंटल, जुताई के समय मिला देनी चाहिए. खेती की ऊपरी मिट्टी को महीन और समतल कर लिया जाना चाहिए तथा उचित आकार की क्यारियां बना लेते हैं.

नर्सरी प्रबंध

नर्सरी बैंगन व टमाटर की तरह ही तैयारी की जाती है नर्सरी के लिए मिट्टी हल्की , भुरभुरी व पानी को जल्दी सोखने वाली होनी चाहिए. पर्याप्त मात्र में पोषक तत्वों का होना भी जरूरी है. नर्सरी में पर्याप्त मात्र में धूप का आना भी जरूरी है. नर्सरी को पाले से बचाने के लिए , नवम्बर-दिसम्बर बुआई में पानी का अच्छा प्रबन्ध होना चाहिए . नर्सरी की लम्बाई 10-15 फुट तथा चौडाई 2.3-3 फुट से अधिक नहीं होनी चाहिए क्योंकि निराई व अन्य कार्यो में कठिनाई आती है. नर्सरी की उंचाई छह इंच या आधा फीट रखनी चाहिए. बीज की बुआई कतारों में करें. कतारों का फासला पांच-सात सेंटीमीटर रखा जाता है. पौध लगभग छह सप्ताह में तैयार हो जाती है.

पौध संरक्षण

आर्द्रगलन रोग यह रोग ज्यादातर नर्सरी की पौध में आता है. इस रोग में सतह , ज़मीन के पास द्धसे हुआ तना गलने लगता है तथा पौध मर जाती है. इस रोग से बचाने के लिए बुआई से पहले बीज का उपचार फफंदूनाशक दवा कैप्टान दो ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से करना चाहिए. इसके अलावा कैप्टान दो ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर सप्ताह में एक बार नर्सरी में छिड़काव किया जाना चाहिए.

एन्थ्रेक्नोज रोग इस रोग में पित्तयों और फलों में विशेष आकार के गहरे, भूरे और काले रंग के घब्बे पडते है. इसके प्रभाव से पैदावार बहुत घट जाती है इसके बचाव के लिए वीर एम-45 या बाविस्टन नामक दवा दो ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए. मरोडिया लीफ कर्ल रोग यह मिर्च की एक भंयकर बीमारी है. यह रोग बरसात की फसल में ज्यादातर आता है. शुरू में पत्ते मुरझा जाते है. एवं वृद्धि रु क जाती है। अगर इसके समय रहते नहीं नियंत्रण किया गया हो तो ये पैदावार को भारी नकुसान पहुंचाता है. यह एक विषाणु रोग है जिसका कोई दवा द्धारा नित्रंयण नहीं किया जा सकता है. यह रोग विषाणु, सफेद मक्खी से फैलता है. अत: इसका नियंत्रण भी सफेद मक्खी से छुटकारा पा कर ही किया जा सकता है. इसके नियंत्रण के लिए रोगयुक्त पौधों को उखाड कर नष्ट कर दें तथा 15 दिन के अतंराल में कीटनाशक रोगर या मैटासिस्टाक्स दो मिलीलीटर प्रति ली की दर से छिडकाव करें. इस रोग की प्रतिरोधी किस्में जैसे-पूसा ज्वाला, पूसा सदाबाहर और पन्त सी-1 को लगाना चाहिए. मौजेक रोग इस रोग में हल्के पीले रंग के घब्बे पत्तों पर पड जाते है. बाद में पित्तयाँ पूरी तरह से पीली पड जाती है. तथा वृद्धि रु क जाती है. यह भी एक विषाणु रोग है जिसका नियंत्रण मरोडिया रोग की तरह ही है. थ्रिप्स एवं एफिड ये कीट पत्तियों से रस चूसते है और उपज के लिए हानिकारक होते है. रोगर या मैटासिस्टाक्स दो मिली लीटर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करने से इनका नियंत्रण किया जा सकता है.

उपज : सिंचित क्षेत्रों में हरी मिर्च की औसत पैदावार लगभग 80-90 क्विंटल प्रति हेक्टेअर और सूखें फल की उपज 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

बीज-दर

एक से डेढ़ किलोग्राम अच्छी मिर्च का बीज लगभग एक हेक्टेयर में रोपने लायक पर्याप्त पौध बनाने के लिए काफी होता है.

निराई-गुड़ाई

पौधों की वृद्धि की आरिम्भक अवस्था में खरपतवारों पर नियंत्रण पाने के लिए दो तीन बाद निराई करना आवश्य होता है. पौध रोपण के दो या तीन सप्ताह बाद मिट्टी चढाई जा सकती है.

सिंचाई

पहली सिंचाई पौध प्रतिरोपण के तुरंत बाद की जाती है. बाद में गर्म मौसम में हर पांच-सात दिन तथा सर्दी में 10-12 दिनों के अन्तर पर फसल को सींचा जाता है.

बुआई

मैदानी और पहाड़ी ,दोनो ही इलाकों में मिर्च बोने के लिए सर्वोतम समय अप्रैल-जून तक का होता है. बड़े फलों वाली किस्में मैदानी में अगस्त से सितम्बर तक या उससे पूर्व जून-जुलाई में भी बोई जा सकती है. उत्तर भारत में जहां सिंचाई की सुविधाएं उपलब्ध हैं, मिर्च का बीज मानसून आने से लगभग छह सप्ताह पूर्व बोया जता है और मानसून आने के साथ-साथ इसकी पौध खेतों में प्रतिरोपित कर दी जाती है. इसके अलावा दूसरी फसल के लिए बुआई जाता नवम्बर-दिसम्बर में की जाती है और फसल मार्च से मई तक ली जाती है.

खाद एवं उर्वरक

गोबर की सडी हुई खाद लगभग 300-400 क्विंटल जुताई के समय गोबर मृदा में मिला देना चाहिए रोपाई से पहले 150 किलोग्राम यूरिया ,175 किलोग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट तथा 100 किलोग्राम म्यूरिएट ऑफ पोटाश तथा 150 किलोग्राम यूरिया बाद में लगाने की सिफारिश की जाती है. यूरिया उर्वरक फूल आने से पहले अवश्य दे देना चाहिए.

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