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तीन तलाक और चुनावी बिसात

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक भारत में मुसलिमों के बीच तीन तलाक की प्रथा पर भाजपा का मत रखते हुए रविशंकर प्रसाद द्वारा प्रदर्शित नाराजगी की नाटकीयता बिलकुल ही पारदर्शी थी. एक वकील के रूप में उन्हें अवश्य पता होगा कि यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है. वर्तमान एनडीए सरकार ने इस […]

पवन के वर्मा

लेखक एवं पूर्व प्रशासक

भारत में मुसलिमों के बीच तीन तलाक की प्रथा पर भाजपा का मत रखते हुए रविशंकर प्रसाद द्वारा प्रदर्शित नाराजगी की नाटकीयता बिलकुल ही पारदर्शी थी. एक वकील के रूप में उन्हें अवश्य पता होगा कि यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है. वर्तमान एनडीए सरकार ने इस प्रथा का विरोध करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में एक शपथ पत्र दाखिल किया है, जिस पर उसके फैसले की प्रतीक्षा है.

तो क्या रोष का यह विस्फोट सामाजिक सुधार की अचानक जगी इच्छा से कम और उत्तर प्रदेश में जारी विधानसभा चुनावों एवं उसमें भाजपा की घटती संभावनाओं से ज्यादा संबद्ध था?

तीन तलाक पर प्रतिबंध का प्रश्न समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड; यूसीसी) लागू किये जाने के भाजपा के घोषित लक्ष्य का एक हिस्सा है. यूसीसी लागू करने को यों तो धारा 44 के रूप में संविधान की स्वीकृति हासिल है, जो यह कहती है कि ‘राज्य नागरिकों के लिए भारतभर में एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की चेष्टा करेगा,’ पर संविधान निर्माताओं द्वारा इसे जान-बूझ कर नीति निर्देशक सिद्धांतों के अंदर रखा गया, ताकि ऐसी चेष्टाओं हेतु विमर्श एवं सर्वसम्मति के तत्वों पर बल दिया जाये.

समस्या यह है कि भाजपा ने नीति निर्देशक सिद्धांतों में इस एक धारा का चयन कर उसे कार्यान्वित करने की दिशा में जिस तरह आगे बढ़ने का फैसला किया, वह एक नाजुक मामले को अनगढ़ तरीके से निपटाने जैसा है. भारत में सर्वधर्म आधारित पर्सनल कानूनों में सुधार, समानता तथा लैंगिक न्याय की आधुनिक अवधारणाओं के अनुरूप बदलाव की जरूरत से कोई भी इनकार नहीं कर सकता, किंतु इसके टिकाऊ होने के लिए यह देखना जरूरी है कि इन लक्ष्यों की सर्वोत्तम उपलब्धि कैसे संभव हो सकती है.

7 अक्तूबर, 2016 को विधि आयोग ने मुख्यमंत्रियों को यूसीसी की आवश्यकता पर एक वस्तुनिष्ठ प्रश्नावली भेजी. नीतीश कुमार ऐसे प्रथम मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने उसका उत्तर भेजते हुए यह लिखा कि इस प्रश्नावली पर मेरा यह सुविचारित मत है कि इसे ऐसा रूप दिया गया है कि वह उत्तरदाता को एक विशिष्ट तरीके से उत्तर देने को बाध्य करती है. उन्होंने लिखा कि जटिल मुद्दे इस तरह नहीं निपटाये जा सकते. यूसीसी को लोक कल्याण हेतु सुधार के एक कदम के रूप में ही देखा जाना चाहिए, न कि उसे एक राजनीतिक साधन बनाया जाना चाहिए, जिसे लोगों की इच्छाओं के विरुद्ध एवं उनसे मशविरा किये बगैर उन पर हड़बड़ी में थोप दिया जाये.

लोकतंत्र रचनात्मक संवाद के बुनियादी सिद्धांत पर टिका है. जहां तक यूसीसी का सवाल है, नीतीश कुमार के मत में सभी धर्मों के साथ व्यापक विमर्श पर आधारित ऐसे संवाद हमारे समाज के बहुसांस्कृतिक, बहुधार्मिक स्वरूप को देखते हुए खास जरूरी हैं, जिनके अभाव में विवाह, तलाक, गोद लेने, विरासत, संपत्ति का अधिकार तथा उत्तराधिकार से संबद्ध लंबे समय से चली आ रही धार्मिक प्रथाओं से जल्दबाजी की छेड़छाड़ अनुचित होगी.

भाजपा जो कुछ समझना नहीं चाहती, वह यह है कि यूसीसी लागू करने हेतु मुसलिमों, ईसाइयों, पारसियों तथा हिंदुओं (बौद्ध, सिख और जैन समेत) से संबद्ध ऐसे समस्त वर्तमान कानून रद्द करने होंगे. क्या केंद्र सरकार के पास एक ऐसे कानून का मसौदा तैयार है, जिसमें इसका विस्तृत विवरण हो कि किस धर्म के किन प्रावधानों को समाप्त किया जाना और उनके बदले क्या लाया जाना है? न तो ऐसा कोई मसौदा प्रसारित किया गया है और न ही इस विषय पर संसद, विधानसभाओं तथा सिविल सोसायटी के अन्य मंचों पर कोई चरचा ही की गयी है.

मूल बिंदु यह है कि जहां केंद्र को यूसीसी लाने के प्रयास करने ही चाहिए, वहीं ऐसी किसी कोशिश की कामयाबी के लिए यह भी जरूरी है कि वह यथासंभव सभी धर्मों के भीतर इस हेतु व्यापक सर्वसम्मति पर आधारित हो, न कि उसे ऊपर से थोपा जाये. यदि ऐसा तरीका नहीं अपनाया जाता, तो वह अनावश्यक सामाजिक टकराव एवं संविधान द्वारा सुनिश्चित धार्मिक स्वतंत्रता में खासकर अल्पसंख्यकों का यकीन कम करनेवाला हो सकता है.

राजनीतिक परिपक्वता का यह तकाजा है कि तीन तलाक के मुद्दे पर सभी पक्ष सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इंतजार करें. इसी तरह, यूसीसी के मुद्दे पर सरकार मुसलिम समुदाय के विभिन्न तबकों से सुधार की वांछनीयता पर विमर्श का आगाज करे.

दुर्भाग्यवश, भाजपा इनमें से कुछ भी नहीं करते हुए जो कुछ कर रही है, वह केवल एक अवसरवादिता है, जिसका उद्देश्य एक गंभीर मुद्दे को एक चुनावी हथकंडा बना कर चुनावों में तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए उसे मतों के ध्रुवीकरण हेतु इस्तेमाल करना है.

लैंगिक समानता की आधुनिक अवधारणा के अनुरूप मुसलिमों के पर्सनल कानूनों में सुधार की आवाजें खुद मुसलिमों की कई प्रामाणिक हस्तियों ने उठायी हैं, पर जब भाजपा इन सुरों में ऐन चुनावों के वक्त अपने सुर मिलाती है, तो सुधार के प्रयासों का ही अवमूल्यन सा हो जाता है.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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