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लुप्त होने के कगार पर पहुंचे सारस प्रजाति के पक्षियों को प्रजनन के लिए मिली सुरक्षित जगह

ददरा : सारस की लुप्त होती जा रही प्रजाति ग्रेटर एड्जुटेन्ट स्टॉर्क को असम के कामरुप जिले में दो अनजान से गांवों में प्रजनन के लिए सुरक्षित जगह मिल गई है.ददरा और पचरिया नामक इन गांवों में सारस की लुप्त होती जा रही प्रजाति ग्रेटर एड्जुटेन्ट स्टॉर्क के संरक्षण के लिए चार साल पहले अभियान […]

ददरा : सारस की लुप्त होती जा रही प्रजाति ग्रेटर एड्जुटेन्ट स्टॉर्क को असम के कामरुप जिले में दो अनजान से गांवों में प्रजनन के लिए सुरक्षित जगह मिल गई है.ददरा और पचरिया नामक इन गांवों में सारस की लुप्त होती जा रही प्रजाति ग्रेटर एड्जुटेन्ट स्टॉर्क के संरक्षण के लिए चार साल पहले अभियान शुरु किया गया था. अब ये दोनों गांव सारस की वैश्विक आबादी में से 50 फीसदी का घर बन गए हैं.

सारस की इस प्रजाति के संरक्षण के लिए एक वन्यजीव संगठन ‘‘आरण्यक’’ ने अभियान चलाया है.पहले सारस उत्तरी और पूर्वी भारत में तथा दक्षिण और दक्षिण पूर्वी एशिया के कई देशों में बहुतायत में पाए जाते थे. लेकिन अब इनकी लुप्त होती जा रही प्रजाति ग्रेटर एड्जुटेन्ट स्टॉर्क भारत में सिर्फ असम और बिहार में और विदेश में कंबोडिया के कुछ स्थानों पर पाई जाती है.

असम की ब्रह्मपुत्र घाटी को लुप्तप्राय: सारस का आखिरी गढ़ माना जाता है जहां इस प्रजाति की वैश्विक आबादी के 80 फीसदी सारस हैं. स्थानीय भाषा में इस पक्षी को ‘‘हरगिला’’ कहते हैं.सारसों को बचाने के लिए अभियान चला रहे ‘‘आरण्यक’’ की जीवविज्ञानी पूर्णिमा देवी बर्मन ने बताया ‘‘विडंबना यह है कि पिछले कुछ दशकों में ऐसी परंपरागत कालोनियां नदारद हो गईं जहां ये पक्षी घोंसला बनाते थे. अब केवल असम में ऐसी कुछ कालोनियां हैं.’’

सारस पक्षियों के संरक्षण में मुख्य मुद्दा यह है कि यह पक्षी अपनी कालोनियों में पेड़ों पर अपने ही घोंसलों में प्रजनन करते हैं और इनके अंडों का भविष्य पेड़ों के मालिकों पर निर्भर करता है.बर्मन ने बताया ‘‘वर्ष 2009 में जब अभियान शुरु हुआ था तो हमने देखा कि कई लोगों ने अपने घरों में लगे पेड़ों को इसलिए कटवा दिया ताकि वे सारसों से छुटकारा पा सकें. इन पेड़ों पर घोंसलों की कालोनियां थीं. लोगों की शिकायतें थीं कि कीड़े और मरे हुए छोटे प्राणियों को खाने वाले सारस उनके परिसरों को गंदा कर देते हैं.’’

उन्होंने कहा कि अगर गांवों में सारसों ने घोंसला बनाना शुरु किया तो कुछ ग्रामीण उनका पीछा कर उन्हें पत्थर मारते हैं.बर्मन के अनुसार, लगातार जागरुकता अभियान चलाने की वजह से लोगों की सोच बदली और पिछले चार साल से लोगों ने उन पेड़ों को काटना बंद कर दिया जिन पर ये पक्षी घोंसले बनाते हैं.

इन पक्षियों के संरक्षण के लिए दोनों गांवों के लोगों को प्रशिक्षण दिया गया है. इनके प्रजनन के लिए भी समुचित व्यवस्था की जाती है ताकि इनकी संख्या बढ़ सके. सभी प्रयास अब रंग ला रहे हैं.

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