विनय तिवारी
बनारस शुरू से है,शहरों के बनने की शुरुआत से है. बनारस मौज का शहर है मस्ती का शहर है. बाबा भोले के नशे में चूर मस्ती. मैंने नदियों के किनारे बहुत ऐतिहासिक सांस्कृतिक से दिखने वाले दकियानूसी नकली शहरों को भी देखा है. बनारस वैसा नहीं है. बनारस आपसे बहस नहीं करता है वो जैसा है वैसा ही रहता है. आपको पसंद आये या ना आय. बनारस ने अपनी संस्कृति खुद विकसित की है.
नदियों के किनारे बसे शहरों को देखकर अक्सर इंसान के अंदर दर्शन उभर आता है, सोच गहरी हो जाती है. ये दर्शन उन शहरों को आम आदमी की पहुंच से दूर कर देता है. नहीं समझ में आता है लोगों को फिर वो शहर. एक खास तबका एक खास परिभाषा में बांध देता है उन शहरों को.
हरिद्वार सबको समझ नहीं आता है. वहां गंगा ज्यादा दिव्य और ज्यादा दूर सी दिखती है. गंगोत्री, हरिद्वार, उज्जैन अनेकों उदाहरण है जो बहुत दिव्य है पवित्र है ऊर्जावान है पर मस्त नहीं है. बनारस सरल है.
क्यों कि वो अपने कठिन होने का एहसास आपको नहीं कराता है. घमंड नहीं दिखाता है जिसको जितना समझना है उसको उतना ही समझ आयेगा. उसे लगेगा जैसे बनारस इतना ही है जितना उसे समझ आया. सबको अपनी अपनी दृष्टि से बनारस पूरा समझ आता है. आप उसे कितना भी कम समझें बनारस आपको पूरा समझ लेता है.
पूर्व और पश्चिम भारत के मिलने का द्वार है बनारस. आज का गरीब पूर्वी भारत और धन का अमीर पश्चिमी भारत दोनों बनारस में मिलते हैं तो दोनों गायब हो जाते हैं.
दोनों बनारासिया हो जाते हैं. सबसे कम गरीब और अमीर का अंतर बनारस में ही नजर आता हैं. सैकड़ों धाराओं का मिलन स्थल है ये. दक्षिण भारत से आये पुजारी उत्तर भारत (बनारस) के मंदिरों में घंटा बजा कर हिंदी – संस्कृत की आरती उद्घोष पड़ते हैं. मारवाड़ी समाज जहां मस्ती में भी व्यापार पनपा देता है. मृत को जलाने में रोजगार के अवसर जहां हो वो बनारस है.
बेफिक्र तो है बनारस. मुझे यह बेफिक्र सी मस्ती बनारस में दिखी है. शहर जितना पुराना है उतना ही मस्त है. अपनी धुन में सवार बनारस. बनारस सबकी पहुंच में रहता है. अपने आप में इतना संस्कार छुपा के भी बनारस का यह छिछोरापन बहुत रास आता है. घाटों पर जाकर देखिए वहां रुकिए समझिए उनको वो पूरा शहर आपको उन्हीं घाटों पर कुछ ना कुछ करते नजर आयेगा. नदियों के किनारे बसे दूसरे सांस्कृतिक घाटों पर ऋषि मुनि तपस्या करते नजर आते हैं. लगता है कि जैसे मोक्ष यहीं मिलेगा, इसी साधना से मिलेगा.
बनारस में ऐसा नहीं है. बनारस के घाट पर क्या साधु संत क्या आम आदमी क्या करोड़पति सब के सब चिलम, चरस पी रहे होते है. कोई फोटो खींचता है कोई चित्र बनाता है. कोई कल्पना में डूबा होता है तो कोई भविष्य के खाके खींचने में सब अपने अपने नशे में चूर. जिसके पास कुछ नहीं है वो भी कश मार रहा होता है क्योंकि उसके पास तो वैसे भी कुछ है नहीं तो चिंता काहे की. जो करोड़ों अरबों की संपत्ति कूट चुका है वो बहुत चिंता में होता है.
मानसिक विकृति से शिकार उसको भी बनारस का नशा जीवन का होना और ना होना दोनों बराबर समझा देता है.बनारस की यही खास बात है यहां सब बराबर होते है. सब परेशान आते है पर आकर परेशानी सब भूल जाते है. बनारस आपकी परेशानी का इलाज करने वाले हकीम की दुकान नहीं है. यह परेशानी के साथ मस्त रहना सीखने का नाम है. लोग रहना सीखते है रस भरा जीवन जीना सीखते है बनारस से. गालियां बनारस की संस्कृति है, सोचिए जरा कितना मस्त शहर होगा कितने बिंदास लोग होंगे. ऐंठ नाम मात्र भी नहीं होगी उन लोगो में जो एक दूसरे से अभिवादन ही बोल कर करते हो.
बनारसी खाली पीली नकली जिंदगी नहीं जीते है. जीवन के अंतिम और शाश्वत सत्य को बनारसी समझ चुके है करोड़ों साल पहले ही. इसलिए उनमें किसी को किसी से द्वेष अहंकार और क्रूरता नहीं है. सब मस्त होते है नशे में होते है. कोई तपस्या नहीं करता बनारस में. कोई ऋषि मुनि बनारस को हाईजैक नहीं कर पाया बाबा भोले के नशे में डूबने को ही मोक्ष प्राप्त . मुझे बनारस का छिछोला पन पसंद आया है. पंडित पाखंड बनारस में भी है पर उस पर किसी का एकाधिकार नहीं है.
बिना रस के जीवन जी रहे पश्चिम के लोगो को बनारस क्यों भाता है बनारासिया ज्ञान की वजह से तो कतई नहीं. पश्चिम के लोगो को तकलीफ होती है देख कर की ये कौन सी कैसी जगह है. यहां इतना कष्ट है परेशानी है गरीबी है पर सब प्रसन्न क्यों है.बनारस में बहुत कुछ छुपा है उसे निकालने के लिए बार बार बनारस जाना पड़ेगा. जितनी बार जायेंगे उतना नया जानेंगे. जितना ज्यादा जानेंगे बनारस उतना नया लगेगा.
