मो. उमर अशरफ
भारत छोड़ो आंदोलन के समय ये तय हो गया था के देश का नेतृत्व गांधीजी और कांग्रेस ही करती है. 8 अगस्त 1942 को कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी के संबोधन और ‘करो या मरो’ प्रस्ताव के कुछ घंटे बाद पुलिस प्रशासन ने आंदोलन कर रहे लोगों की धर-पकड़ शुरू कर दी थी. पूरे देश में जिला और पंचायत स्तर तक अलग-अलग स्थानों से हजारों की संख्या में कांग्रेस से जुड़े लोगों की गिरफ्तारियां हुई.
एक तरफ कांग्रेस की पुरी लीडरशिप जेल में थी, वहीं दूसरी तरफ भारत में मौजूद सभी प्रमुख दल ने या तो भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया या फिर बिलकुल ही तटस्थ बने रहे. इन संस्थाओं का असल मकसद अंग्रेजों को खुश कर अपना उल्लू सीधा करना था. इन संस्थाओं में मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का नाम प्रमुख है. साथ ही देशी रियासतों का रुख भी इस आंदोलन के खिलाफ था. जहां मुस्लिम लीग का कहना था कि, अगर अभी ब्रिटिश भारत को इसी हाल में छोड़ के चले जाते हैं और भारत आजाद हो जाता है, तो मुसलमानों को हिन्दूओं के अधीन हो जाना पड़ेगा. लेकिन मुस्लिम लीग की इन बातों का आम मुसलमानों पर कोई असर नहीं पड़ा. बड़ी संख्या में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ कांग्रेस का साथ दिया. यहां तक कि पूरे भारत छोड़ो आंदोलन के समय कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद रहे और सब से खास बात यह थी कि महान समाजवादी नेता युसूफ जाफर मेहर अली ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया था.
हिंदू महासभा ने भी भारत छोड़ो आंदोलान का खुल कर विरोध किया. इस संगठन के अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि ने महात्मा गांधी के विचारों का साथ देने से इन्कार कर दिया. लेकिन आम हिंदू अाबादी पर इसका कोई असर नही हुआ, वो पुरे जोश के साथ गांधी के साथ खड़ी रही. ठीक यही हाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी था, जिसने भारत छोड़ो आंदोलन को कोई समर्थन नहीं दिया. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी भारत छोड़ो आंदोलन में अपनी कोई भी भागीदारी दर्ज नहीं करायी. इस समय भारत में ब्रिटिश सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी पर पाबंदी लगा रखी थी. देशी रियासतों द्वारा इस आंदोलन का समर्थन तो दूर उल्टे आंदोलनकारियों पर दमन करने में वे ब्रिटिश सरकार के सहयोगी बने.