सुरेंन्द्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
पटना : पटना सहित बिहार के नगरों की व्यस्त सड़कों पर भी हर तरह के वाहनों को छूट मिली हुई है. सड़क जाम का यह एक बड़ा कारण है. पटना सहित बिहार के नगरों में तीव्र गति वाले छोटे-बड़े आॅटो मोबाइल से लेकर धीमी गति वाले ठेले भी साथ-साथ चलते देखे जा सकते हैं. सड़कों की दोनों तरफ काबिज हठी अतिक्रमणकारियों की समस्या अलग से हैं. उनके सामने शासन-कोर्ट तक लाचार नजर आते हैं. कहीं-कहीं ही शासन राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाता है.
बाकी जगह भगवान भरोसे! मुख्य सड़कों से धीमी गति वाले वाहनों को हटाने की मांग लंबे समय से होती रही है पर सत्तासीनों को लगता है कि इससे उनके वोट कम हो सकते हैं. पर अब सत्ताधारियों के पास वोट की कोई कमी नहीं है. आनेवाले दिनों में तो वे बढ़ने ही वाले हैं, तो फिर रोज-रोज रोड जाम में मददगार बनने वाले थोड़े से वोटरों की परवाह क्यों? वैसे अतिक्रमण से पीड़ित लोग भी तो मतदाता ही हैं. उनकी संख्या अपेक्षाकृत अधिक है.
शासन की इच्छाशक्ति से हटा आर ब्लाॅक-दीघा रोड से अतिक्रमण : पटना की आर ब्लाॅक-दीघा सड़क संभवतः अगले साल बन कर तैयार हो जायेगी. सड़क करीब सवा छह किलोमीटर लंबी होगी और चार लेन वाली होगी. पहले उस जमीन पर रेलवे लाइन थी. वर्षों की माथा पच्ची के बाद रेलवे महकमा वह जमीन बिहार सरकार को देने पर हाल में राजी हुआ.
पर रेलवे के किनारे अतिक्रमणकारियों का स्वर्ग था. खटालों के अलावा कई मंदिर भी थे. प्रभावशाली लोगों ने निजी मकान तक बना रखा था. पटना हाइकोर्ट के दबाव और शासन की राजनीतिक इच्छा शक्ति से अतिक्रमण अंततः हट गया. इस मार्ग के तैयार हो जाने पर जाम पीड़ित पटनावासियों को बहुत राहत मिलेगी. बिहार सरकार को चाहिए कि वह राज्य के अनेक नगरों और पटना के बाकी अतिक्रमणों को भी निमर्मतापूर्व हटाये.
अतिक्रमण हटने से जितने लोग नाराज होंगे, उससे कई गुना लोग सरकार से खुश होंगे. राज्य के प्रत्येक छोटे-बड़े नगर जाम से परेशान रहते हैं. अतिक्रमण हटने और सड़कें चौड़ी होने से गर्भवती महिलाओं और गंभीर रूप से घायल तथा बीमार मरीजों को काफी राहत मिलेगी. अतिक्रमणों को न सिर्फ सड़कों के किनारे से हटाने की जरूरत है बल्कि सरकारी जमीनों से भी अतिक्रमण हटे. वहां ‘आॅक्सीजन जोन’ बनाया जा सकता है.
इस बार विधानसभाओं को भंग करने की मांग नहीं! : आपातकाल के दौर की बात है. जनवरी,1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा हो गयी थी. उसके तत्काल बाद एक अखबार के लिए मैंने जय प्रकाश नारायण से लंबी बातचीत की थी. उन्होंने कहा था कि यदि हम लोकसभा चुनाव में जीत गये, तो विधानसभाओं के चुनाव भी करवा देंगे. जनता पार्टी लोकसभा चुनाव जीत कर केंद्र की सत्ता में आ गयी.
मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. उसके बाद कई विधानसभाओं को समय से पहले भंग कर उनके चुनाव करवा दिये गये. वहां भी जनता पार्टी की सरकारें बन गयीं. 1980 के लोकसभा चुनाव के बाद इंदिरा गांधी एक बार फिर केंद्र की सत्ता में आ गयीं. उन्होंने इस मामले में जनता पार्टी का अनुसरण किया.
कई विधानसभाओं के मध्यावधि चुनाव उन्होंने भी करवा दिये. वहां भी कांग्रेस पुनः सत्ता में आ गयी. सन, 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद राजग केंद्र की सत्ता में आ गया. फिर भी राजग ने यह मांग नहीं की कि उन राज्य विधानसभाओं को भंग कर देना चाहिए, जहां राजग को वहां के सत्ताधारी दल से अधिक मत मिले हैं.
वर्षा जल संचयन को चेक डैम जरूरी : वर्षा जल का अधिक अंश हम लोग हर साल यूं ही समुद्र में चले जाने देते हैं, पर बाकी दिनों में हम पानी के लिए तरसते हैं. क्योंकि, हम जल संचय नहीं करते. अब कुछ लोग एक खास सपने दिखा रहे हैं. वे कह रहे हैं कि समुद्र के खारा जल को साफ करके हम अपना आगे वाले जल संकट के दिनों में काम चला लेंगे.
इस बीच वर्षा जल संचयन के अनेक उपाय हो सकते हैं. पर उसमें एक बड़ा उपाय यह है कि छोटी नदियों पर भी चेक डैम यानी छोटे-छोटे बांध बनवाये जाये. उससे वर्षा जल नदियों में रुकेगा, जो बरसात के बाद भी काम आयेगा. सिंचाई हो सकेगी. साफ करके उसका इस्तेमाल पेयजल के रूप में भी किया जा सकता है. इस बीच उस रुके हुए जल से धरती में पुनर्भरण होता रहेगा. अधिकतर तालाबों पर अवैध कब्जा है. लोग बाग अधिकतर कुंओं को भी भर चुके हैं.
उनकी उड़ाही भी होनी चाहिए, पर उससे पहले छोटी नदियों में चेक डैम यानी छोटे बांध बनने जरूरी हैं. दरअसल अधिकतर इंजीनियर बड़े बांधों के ही पक्ष में रहते हैं, कारण अघोषित है. पर ऐसे ही मौके पर राजनीतिक इच्छा शक्ति की जरूरत पड़ती है. दिक्कत यह है कि जल संकट पर चर्चा सिर्फ गर्मी के दिनों ही होती है. बरसात शुरू होते ही लोग बेफिक्र हो जाते हैं.
भूली बिसरी याद आपातकाल की : अमेरिकी पत्रकार ‘सैटरडे रिव्यू’ से एक भेंट में हाल में आपने कहा था कि भारत में जो कुछ किया गया, यानी इमरजेंसी लगायी गयी, वह लोकतंत्र का त्याग नहीं है, वरन उसे बचाने की कोशिश है, जब आप मुक्त प्रेस, निर्बाध अभिव्यक्ति और असहमति का अधिकार लोकतंत्र की इन बुनियादी बातों को प्रतिबंधित कर देती हैं तो लोकतंत्र की रक्षा कैसे कर सकती हैं?
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी : लोकतंत्र में दो प्रकार के उत्तरदायित्व होते हैं. यह उत्तरदायित्व सरकार का होता है कि वह मुक्त प्रेस, निर्बाध अभिव्यक्ति और निर्बाध संगठन आदि की सुविधा दे. लेकिन, दूसरों की भी जिम्मेदारी होती है कि वह लोकतंत्रीय नियमों का पालन करे. लेकिन, ऐसा नहीं किया जा रहा था.
यही वजह है कि मौजूदा स्थिति पैदा हुई. यह सवाल नहीं था कि सारा देश कुछ चाह रहा हो. ऐसे लोग अल्पमत में थे. चुनाव को कुछ महीने ही बाकी रह गये थे और यदि वे इंतजार करते तो उनको जनता का निर्णय मिल जाता. लेकिन, प्रतिपक्ष के एक नेता ने कहा कि इसका निर्णय सड़कों पर किया जायेगा. एक दूसरे नेता ने कहा कि संपूर्ण क्रांति की अावश्यकता है और उसने न सिर्फ औद्योगिक मजदूरों को बल्कि सेना और पुलिस को भी भड़काने की कोशिश की. यह चीज किसी तरह लोकतंत्र को मजबूत नहीं बना सकती थी.