सुरेंद्र किशोर
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बिहार के विश्वविद्यालयों में अच्छे दिन आने की उम्मीद बंधी
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक कुछ ही साल पहले कांग्रेस विधायक ज्योति ने राज्यपाल सह चांसलर से पूछा था कि ‘वीसी की बहाली में आपके यहां क्या रेट चल रहा है?’ यह सवाल उस समय पूछा गया था जब राज्यपाल देवानंद कुंवर बिहार विधानमंडल के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित कर रहे थे. दूसरी ओर, मौजूदा राज्यपाल […]
राजनीतिक विश्लेषक
कुछ ही साल पहले कांग्रेस विधायक ज्योति ने राज्यपाल सह चांसलर से पूछा था कि ‘वीसी की बहाली में आपके यहां क्या रेट चल रहा है?’ यह सवाल उस समय पूछा गया था जब राज्यपाल देवानंद कुंवर बिहार विधानमंडल के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित कर रहे थे. दूसरी ओर, मौजूदा राज्यपाल सह विश्वविद्यालयों के चांसलर माननीय लालजी टंडन ने कहा है कि विश्वविद्यालयों में भ्रष्टाचार के लिए कोई जगह नहीं है. अब अपात्र वीसी हटाये भी जा रहे हैं. चांसलर ने बिहारवासियों को यह भी भरोसा दिया है कि एक से डेढ़ साल में सब कुछ बदल जायेगा.
विश्वविद्यालयों में वर्षों से जारी भ्रष्टाचार पर बड़ा हमला पूर्ववर्ती राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने किया था. टंडन साहब ने आते ही कहा था कि मलिक जी के अधूरे कामों को हम पूरा करेंगे. लगता है कि टंडन साहब जुबान के पक्के हैं. पर एक-डेढ़ साल में ही बदलाव ला देने का उनका वायदा थोड़ा अव्यावहारिक लग रहा है. क्योंकि, अक्षमता, अयोग्यता, भ्रष्टाचार और काहिली की काई की परत इतनी मोटी हो चुकी है कि इसे इतनी जल्द साफ करना असंभव सा लगता है.
खैर, एक कहावत है कि ‘वेल बिगन, हाॅफ डन.’ शोध की गुणवत्ता पर चर्चा भी जरूरी है. पर, उससे अधिक जरूरी यह देखना है कि कितने शिक्षक योग्य हैं और कितने अयोग्य? कितने शिक्षक समय पर कार्यस्थल पर पहुंचते हैं और कितने नहीं पहुंचते? कितने छात्रों की रुचि क्लास करने में है और कितनों की सिर्फ परीक्षा में कदाचार करके पास करने में रुचि है? शैक्षणिक संस्थान स्तर पर क्यों नहीं पेरेन्ट्स-टीचर मीटिंग आयोजित की जाये?
क्यों नहीं अयोग्य शिक्षकों को किसी दूसरे कामों में लगाया जाये? क्योंकि, नहीं आपराधिक व भ्रष्ट प्रवृत्ति वाले तत्वों के प्रति जीरो सहनशीलता का रुख अपनाया जाये? क्यों इसी राज्य में नालंदा ओपेन यूनिवर्सिटी की सारी परीक्षाएं कदाचारमुक्त होती हैं और अन्य सरकारी संस्थानों में शायद ही कोई स्वच्छ परीक्षा हो पाती है. सर्जिकल स्ट्राइक के बिना विश्वविद्यालय में सुधार का सपना सुंदर तो है, पर क्या संभव भी है?
यूरोप से एक अच्छी खबर : यूरोपीय यूनियन के संसदीय चुनाव में पर्यावरण, लोकतंत्र और मानवाधिकार के पक्षधर ग्रीन पार्टी का पूरे यूरोप में प्रभाव बढ़ा है. बिगड़ते पर्यावरण को लेकर यूरोप से अधिक भारत को चिंतित होने की जरूरत है. पर, यहां न तो जरूरत के अनुसार दल या सरकार चिंतित है और न ही आम लोगों में समस्या के अनुपात में जागरूकता है. पर्यावरण को लेकर एक ग्रीन पार्टी के गठन की जरूरत भारत में भी है.
वह अपने उद्देश्यों में भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान को भी जोड़ सकते हैं. यदि ऐसी पार्टी बनी तो वह कमाल कर सकती है. वैसे भी लोकसभा चुनाव के बाद प्रतिपक्ष में लगभग शून्यता की स्थिति है. उनमें न तो समस्याओं के अनुरूप कोई दृष्टि है और न संघर्ष का माद्दा. अधिकतर नेता एसी और उड़न खटोलों के अभ्यस्त हो चुके हैं. अब वे जेल जाते भी हैं तो भ्रष्टाचार के आरोप में न कि जनांदोलन करके.
जब रक्षक ही बन जाये भक्षक : भारत सहित दुनिया के अनेक देश तरह-तरह के प्रदूषणों की विकराल होती समस्या से जूझ रहे हैं, वही अपने देश का एक महकमा भीषण प्रदूषण उत्पादक बना हुआ है. नेऊरा-दनियावां रेल लाइन के निर्माण के क्रम में फुलवारीशरीफ अंचल के लोग रोज-रोज भीषण वायु प्रदूषण की समस्या से जूझ रहे हैं.
इन दिनों कोरजी-भुसौला गांव में निर्माणाधीन रेल लाइन के लिए मिट्टी का काम चल रहा है. धूल से लोगों को बचाने के लिए जल छिड़काव का प्रबंध होना चाहिए था. पर, उसके अभाव में उस सड़क से किसी वाहन के गुजरने पर धूल की मोटी परतें आसपास फैल जाती हैं. पास में ही दो बड़े-बड़े स्कूल हैं, जहां के कोमल बच्चे उस धूल को रोज ही ग्रहण कर रहे हैं.
लगातार धूल यानी दमे को आमंत्रण है. अभी तो निर्माण वर्षों चलेगा. स्थानीय आबादी के अलावा वहां से आने-जाने वाले लोगों को भी परेशानी हो रही है. पर, रेलवे महकमा लापरवाह है. ठेकेदार से अधिक उन रेलवे अधिकारियों की जिम्मेदारी बनती है, जो निर्माण कार्य की देखरेख कर रहे हैं. पर, लगता है कि उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस प्रदूषण से कितने लोग बीमारियों के शिकार होते हैं. ऐसे ही चल रहा है अपना देश!
भूली-बिसरी याद : बिहार विधानसभा में सीपीआई विधायक दल के नेता रहे राजकुमार पूर्वे ने लिखा है कि हमारी पार्टी ने जय प्रकाश आंदोलन में शामिल न होकर भारी भूल की थी. याद रहे कि आंदोलन 1974-77 में हुआ था. अब जब कम्युनिस्ट दलों की ताकत नगण्य हो रही है तो क्या मौजूदा कम्युनिस्ट नेतागण पूर्वे जी की तरह आत्मावलोकन करेंगे? पता नहीं. पर, यह बात माननी पड़ेगी कि कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी कुछ अन्य गलतियों को मानने की उदारता पूर्वकाल में दिखाई है.
अन्य अधिकतर दलों में ऐसी सच्चाई नहीं देखी जाती. ‘स्मृति शेष’ नामक संस्मरणात्मक जीवनी में पूर्वे जी की राय पढ़िए उन्होंने लिखा है कि ‘महंगाई-बेरोजगारी बढ़ने लगी. उसके विरोध में जन आंदोलन हुआ. सरकार उसे क्रूर दमन से कुचलने लगी. इस दमन के विरोध में जनसंघ ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी एवं अन्य को मिलाकर जय प्रकाश बाबू के नेतृत्व में आंदोलन चलाना शुरू किया. जनता का व्यापक समर्थन इनके साथ था.
यहीं हमारी पार्टी की भयंकर भूल हुई. इंदिरा गांधी सरकार की जन विरोधी नीति और कामों तथा जनता पर दमन के खिलाफ यदि हम लड़ते, इनका नेतृत्व करते तो जन समर्थन हमारे साथ होता. इस भूल को समझने और सुधारने के बजाय हमारी पार्टी ने इंदिरा गांधी के साथ सहयोग किया. हमारी समझ बनी कि जनसंघ के नेतृत्व में फासिस्ट तत्व अमेरिकी साम्राज्यवाद के इशारे पर सरकार पर कब्जा करने के लिए यह आंदोलन इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ चला रहे हैं. हमारी इस समझ के कारण महंगी, बेरोजगारी और सरकारी दमन के कारण कराहती जनता हमसे अलग होती गयी.’
और अंत में : उत्तर प्रदेश में आठ लोकसभा सीटों पर कांग्रेस सचमुच वोट-कटवा साबित हुई. वहां भाजपा की जीत का जो अंतर था, उससे अधिक वोट कांग्रेस को मिले.
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