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परमपुरुष की प्राप्ति से ही मिलता है आनंद, 29 अप्रैल को आनंद पूर्णिमा उत्सव

II श्रीश्री आनंदमूर्ति II आध्यात्मिक गुरु (आनंद मार्ग के प्रवर्तक) मनुष्य की पैदाइश हुई है लगभग कई लाख साल पहले. तब से ही मनुष्य के मन में सुख पाने की अभिलाषा रही, आज भी है और सदैव रहेगी. इस सुख प्राप्ति की चाह से प्रेषित होकर मनुष्य धर्म जीवन में आये. यह चाह है मात्र […]

II श्रीश्री आनंदमूर्ति II
आध्यात्मिक गुरु
(आनंद मार्ग के प्रवर्तक)
मनुष्य की पैदाइश हुई है लगभग कई लाख साल पहले. तब से ही मनुष्य के मन में सुख पाने की अभिलाषा रही, आज भी है और सदैव रहेगी. इस सुख प्राप्ति की चाह से प्रेषित होकर मनुष्य धर्म जीवन में आये. यह चाह है मात्र मनुष्य में, जंतु-जानवरों में नहीं. जो जंतु-जानवर मनुष्य के निकट रहते हैं तथा जिनका मनुष्य के साथ कुछ हद तक समझौता हो गया है, उनमें भी कुछ हद तक है इस तरह की चाह देखी जा सकती है. मनुष्य यानी जिसमें मन की प्रधानता हो. इस सुख को पाने की प्रचेष्टा से ही धर्म की उत्पत्ति है.
मनुष्यों ने देखा कि वह जो कुछ पाते हैं, उसके बाद देखते हैं कि यह तो बहुत थोड़ा है और उसे इससे अधिक चाहिए. फिर जब वह भी मिला, तो फिर देखते हैं कि उन्हें वह भी थोड़ा लगा. फिर प्रयास करते हैं कि और चाहिए. अल्प में थोड़ी-सी कुछ चीज मिल गयी, जिससे उन्होंने सोचा था कि सुख की प्राप्ति होगी, उसके बाद उन्हें फिर चाह नहीं रहेगी. किंतु देखते हैं कि इसमें भी उनकी चाह नहीं मिटी, और चाहिए, और चाहिए, अल्प से संतोष नहीं हुआ. मनुष्य ने अंततः देखा कि उसे अनंत चाहिए और जिसकी सीमायें हैं, उससे वह सुख नहीं मिला. फिर खोज में मनुष्य लग गये. तब उन्हें पता लगा कि सिर्फ एक ही सत्ता है, जो अनंत है और वे हैं परमपुरुष. मनुष्य अगर वास्तव में सुखी होना चाहता है, तृप्ति चाहता है, तो उन्हें परमपुरुष की खोज करनी होगी. सिवाय उनके कोई और वस्तु उन्हें तृप्ति नहीं दे सकती. इसी सुख प्राप्ति की चाह से धर्म-जीवन का प्रारंभ हुआ.
यह जो परमपुरुष को पाने का प्रयास है और यह जो धर्मसाधना है, वह सबको करनी चाहिए, इसे करना ही मनुष्य की पहचान है. इसलिए मनुष्य को यदि सही इनसान बनना है, तो धर्मजीवन में उन्हें आना होगा. मानव मन की यही विशेषता है कि अल्प से उन्हें संतोष नहीं मिलता, अनंत को ही वे चाहते हैं. सुख जहां अनंत तक पहुंच गया, उस सुख को आनंद कहते हैं. अर्थात् मनुष्य वास्तव में सुख नहीं चाहता, वह चाहता आनंद. सुख प्राप्ति की चाह से प्रेरित होकर वह अनंत की राह अपनाता है.
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये, तो सुख और आनंद में अंतर प्रतीत होगा. जब अनुभूति की तरंगें मन के भीतर रह गयीं, तब उसे कहेंगे सुख और जब तरंगें मन के भीतर में ही नहीं, बल्कि बाहर भी आ गयी हैं अर्थात् जब मनुष्य महसूस करता है कि सुख की तरंगें उसके अंदर भी है और दस दिशाओं में भी हैं, तो उसे कहेंगे आनंद. तुमलोग लौकिक जीवन में देखोगे कि लौकिक सुख में भी कभी-कभी सुख की तरंगें इतनी अधिक हो जाती हैं कि अनुभव यह होता है कि बाहर चारों ओर सुख की तरंगें उठ रही हैं. उस दशा में स्वयं को संभालना कठिन हो जाता है. अधिक सुख होने से आदमी चिल्ला पड़ता है, कूदने लगता है.
कभी-कभी वह हंसता है, कभी-कभी वह रोने भी लगता है. उसी प्रकार का सुख जब बराबर रहे, तो उसे कहते हैं आनंद. अर्थात् उनके मन का जो सुख है, वह मन के अंदर सीमित नहीं रह पाता. सुख सीमित रहता है, किंतु कभी-कभी अधिक हो जाने से वह बाहर निकल पड़ता है. परमपुरुष ही हैं आनंद के आधार. इसलिए परमपुरुष की प्राप्ति से मनुष्य को आनंद मिलता है.
तुमलोग धर्म जीवन में हो- यही है मानव जीवन की पराकाष्ठा और यही है मानव जीवन की पहचान. धर्म-जीवन में तुमलोग रहोगे और अन्य लोग धर्म-जीवन में नहीं रहेंगे, यह वांछनीय नहीं है. तुम्हारे इस प्रयास से कि सभी उस आनंद के रास्ते पर रहें, इससे दुनिया में शांति की प्रतिष्ठा होती है और शांति की प्रतिष्ठा होने से मनुष्य भौतिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन, दोनों में आगे बढ़ते रहेंगे. लौकिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन दोनों में संतुलन रहने से ही सही प्रगति होगी. सिवाय इसके किसी अन्य प्रकार से सही प्रगति नहीं हो सकती.
(प्रस्तुति : दिव्यचेतनानंद अवधूत)
29 अप्रैल को आनंद पूर्णिमा उत्सव
आनंद मार्ग के प्रवर्त्तक श्रीश्री आनंदमूर्ति जी उर्फ श्री प्रभात रंजन सरकार का आर्विभाव 1921 में वैशाखी पूर्णिमा के दिन मुंगेर जिला के जमालपुर में हुआ था. 29 अप्रैल को उनकी 98वीं जयंती आनंद पूर्णिमा के रूप में मनाने की तैयारी है. उन्होंने 1955 में आनंद मार्ग प्रचारक संघ नाम से संस्था बनायी, जिसका उद्देश्य आत्ममोक्षार्थम जगत हितायच है यानी आत्मा की मुक्ति के साथ समाज की सेवा करना है.
आध्यात्मिक दर्शन के साथ भाषा विज्ञान, कृषि विज्ञान, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान इत्यादि अनेक विषयों पर सैकड़ों पुस्तकें लिखीं. मात्र आठ वर्षों की अवधि में 5018 गीतों की रचना आठ भाषाओं (हिंदी, बंगला, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, अंगिका, मगही व मैथिली) में की और उनके सुर भी दिये, जो प्रभात संगीत के नाम से प्रचलित है.
धर्म के बारे में व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि धर्म दो प्रकार के हैं- पहला, स्वाभाविक धर्म और दूसरा,भागवत धर्म. दोनों का उद्देश्य एक ही है- सुख प्राप्त करना. किंतु स्वाभाविक धर्म में सुख की गहनता अत्यंत सीमित होती है, जबकि भागवत धर्म में सुख की गहनता, सुख की मात्रा अनंत होती है. 21 अक्तूबर, 1990 को आनंद मार्ग के केंद्रीय कार्यालय तिलजला, कोलकाता में वे अपना भौतिक शरीर छोड़ गये. अब भी वे अपने भक्तों के हृदय में आध्यात्मिक स्पंदन के रूप में विराजमान हैं.

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