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आंबेडकर जयंती : आधुनिक एवं समृद्ध भारत के प्रस्तावक बाबासाहेब, इनको लेकर दोहरा मानदंड नहीं चलेगा

राष्ट्र निर्माण के बुनियादी चरित्र को संवारने के लिए जिस सामाजिक और आर्थिक समरसता का उद्घोष बाबासाहेब आंबेडकर ने किया था, वह आज के दौर में कहीं अधिक प्रासंगिक हो चला है. भेदभाव रहित और समावेशी विकास से पोषित विचारधारा ही एक जीवंत राष्ट्र के सपने को साकार कर सकती है- बाबासाहेब के इन उद्देश्यों […]

राष्ट्र निर्माण के बुनियादी चरित्र को संवारने के लिए जिस सामाजिक और आर्थिक समरसता का उद्घोष बाबासाहेब आंबेडकर ने किया था, वह आज के दौर में कहीं अधिक प्रासंगिक हो चला है. भेदभाव रहित और समावेशी विकास से पोषित विचारधारा ही एक जीवंत राष्ट्र के सपने को साकार कर सकती है- बाबासाहेब के इन उद्देश्यों को भले ही आधुनिक लोकतंत्र के पैरोकार अपना लक्ष्य बताते रहे हों, लेकिन मौजूदा दौर की चुनौतियां कई सवाल खड़ी करती नजर आती हैं. राष्ट्र पथ-प्रदर्शक के तौर पर प्रतिष्ठित बाबासाहेब की 127वीं जयंती के अवसर पर विशेष प्रस्तुति…
आंबेडकर को लेकर दोहरा मानदंड नहीं चलेगा
II प्रो विवेक कुमार II
समाजशास्त्री, जेएनयू
भारत रत्न डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के पूरे व्यक्तित्व और उनके संपूर्ण कार्य को समग्रता में देखना पड़ेगा, न कि काट-छांट करके. पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के गवर्नर ने बाबासाहेब के नाम में ‘राम’ जोड़ने को लेकर जिस तरह से अपने ऊपर दायित्व लिया और कहा कि- ‘मैं खुश हूं कि मैंने राम का नाम जुड़वा दिया’, यह बहुत अफसोसनाक बात है.
अफसोस की बात यह है कि गवर्नर ने यह नहीं बताया कि कौन-से वाले ‘राम जी’ हैं? यहीं समग्रता की बात आती है. भाजपा के लोग आंबेडकर को काट-छांटकर ही देखते हैं. इसलिए आंबेडकर में जोड़ा गया ‘राम’ तुलसीदास के लिखे रामायण में अयोध्या वाले राम हैं. जबकि बाबासाहेब के नाम में जो ‘राम’ है, वह ‘कबीर के राम’ हैं. कबीर के राम निर्गुण भक्ति शाखा के राम हैं, क्योंकि बाबासाहेब के पिता जी कबीरपंथी थे. कबीरपंथी लोग अपने नाम में जिस ‘राम’ शब्द को लगाते थे, वह निर्गुण शाखा के निराकार राम हैं, जिनका कोई मंदिर-वंदिर नहीं होता है.
थोड़ा सा इतिहास के तथ्यों को देखें, तो उस दौर में दलित समाज का कोई व्यक्ति अपने नाम में ‘राम’ शब्द नहीं लगा सकता था. उस समय दलित जब अपने नाम में सिंह या कोई और उपनाम लगाते थे, तो उन्हें ऊंची जाति के लोग मारते थे कि दलित जो है वह ऊंची जाति का अनुसरण कर रहा है और उनके सांस्कृतिक चीजों को अपना रहा है. लेकिन, ‘राम’ लगाने से नहीं मारते थे, क्योंकि तब राम कबीर के थे.
इस एतबार से देखें, तो आज जिस तरह से भाजपा वाले बाबासाहेब आंबेडकर के बारे में अयोध्या के राम को मानने का तथ्य दे रहे हैं कि उनके नाम में ‘रामजी’ लगा है और हम इसको प्रचारित करेंगे, तो मेरे ख्याल में यह एक मिथ्या प्रचार है, नेताओं की बुद्धिहीनता है. एक दूसरी घटना भी है, जिसमें बाबासाहेब की मूर्ति पर भगवा रंग चढ़ा दिया गया. यह सब बाबासाहेब का अनादर है. बाबासाहेबके साथ हो रहे अनादरों को चिह्नित करने की जरूरत है.
बाबासाहेब आंबेडकर को लेकर हो रही राजनीति के मद्देनजर सवाल उठता है कि बाबासाहेब को आत्मसात करने के लिए क्या केवल उनके नाम, उनकी मूर्ति आदि को ही पंचतीर्थ किया जायेगा या उनके दर्शन को भी समझा जायेगा?
आंबेडकर ने अपने दर्शन में जिस राम का विश्लेषण किया है, उसे वाल्मिकी कृत रामायण से उठाया है. वाल्मिकी ने कभी भी राम को पुरुषोत्तम नहीं माना और राम को एक आम इंसान की तरह ही वे मानते थे. इसलिए आंबेडकर ने अपनी किताब ‘रिडल इन हिंदूइज्म’ में भी राम को एक साधारण व्यक्ति की तरह ही देखा है, उनके गुण और दोष के साथ. उन्होंने किताब में इस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया, जिससे संघ के लोग नाराज हो गये और इस किताब को जलाया भी. तो क्या भाजपा और संघ के लोग उस राम को मानते हैं, जिस राम की बात आंबेडकर के दर्शन में है? नहीं. इसलिए पूरी समग्रता के साथ बाबा साहेब के कृतित्व और व्यक्तित्व का आकलन किया जाना चाहिए, न कि एकांगी रूप में, कि जो मुझको सूट करता है वह ले लूंगा और बाकी छोड़ दूंगा.
इस तरह से बाबासाहेब को अंगीकार नहीं किया जा सकता है. अगर आंबेडकर को समग्रता से देखा जाये, तो यह साफ समझ में आ जायेगा कि आंबेडकर अगर नॉर्थ पोल हैं, तो संघ-भाजपा साउथ पोल हैं. इसलिए किसी भी रूप में संघ-भाजपा के लोग उन्हें अंगीकार कर ही नहीं सकते. इसलिए अभी जो उन्हें अपना मानने-बनाने की बात कर रहे हैं, वह सिर्फ और सिर्फ अनादर की राजनीति कर रहे हैं.
दरअसल, जो लोग आंबेडकर के दर्शन के विरुद्ध काम करते हुए उन्हें अपना मानते हैं, उन्हें आंबेडकर की चिंता नहीं है, बल्कि वोट बैंक की चिंता है. सीधी सी बात है, अगर वे आंबेडकर को मानेंगे, तो आंबेडकर के अादर्शों पर चलनेवाले लोग उनकी ओर आकर्षित होंगे और उनका वोट बैंक बनेंगे.
लेकिन, वे भूल रहे हैं कि 21वीं शताब्दी में आंबेडकर के नाम को ले लेने भर से आंबेडकर के सच्चे अनुयायी अपने साथ हुई विभत्स घटनाओं को नहीं भूल सकते. विगत चार वर्षों में दलितों-वंचितों के साथ जो जघन्यता हुई है, वह कभी भूलनेवाली नहीं है. वह न सिर्फ दलितों का अनादर है, बल्कि बाबासाहेब आंबेडकर का भी अनादर है.
आंबेडकर को लेकर वे लोग हमेशा दोहरा मानदंड अपनाते आये हैं. एक तरफ वे कहते हैं कि वे आंबेडकर की इज्जत करते हैं, लेकिन क्या वे दलितों और आंबेडकर के लोगों की भी इज्जत करते हैं? यह दोहरा मानदंड नहीं चलेगा.
इस वक्त देश में जो वातावरण बना हुआ है और पिछले चार वर्षों में बनाया गया है, वह बहुत चिंता का विषय है. आरएसएस कहता है कि वह समरसता चाहता है- एक कुआं, एक मंदिर, एक श्मशान. यह बहुत हास्यास्पद है. क्या दलित सिर्फ कुआं, मंदिर और श्मशान के लिए हैं? क्या वे संसद में न जाएं? क्या वे सचिव न बनें? क्या वे वाइस चांसलर न बनें? क्या वे प्रोफेसर न बनें? संघ का यही दोहरा मानदंड है.
संघ के लोग दलितों को सिर्फ कुआं, मंदिर और श्मशान में फंसाये रखकर उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित रखना चाहते हैं. जिस प्रकार का अनादर और लज्जा फेंकी गयी है दलित समाज पर, उससे संपूर्ण रूप से विरक्ति आयी है. आंबेडकर का सपना और दर्शन तभी चरितार्थ होगा, जब दलित समाज को नीति-निर्णयों में शामिल किया जाये. आर्थिक निर्णय, राजनीतिक निर्णय, सामाजिक निर्णय और अंतरराष्ट्रीय निर्णयों में दलितों की भागीदारी होनी चाहिए, तभी बाबासाहेब आंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि मिलेगी.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
सामाजिक उन्नति की कुंजी है राजनीतिक शक्ति
सभी प्रकार की सामाजिक उन्नति की कुंजी राजनीतिक शक्ति है. यदि अनुसूचित जाति ने संगठित होकर भारत में एक तीसरी राजनीतिक शक्ति बनायी और कांग्रेस व समाजवादियों के सामने और एक तीसरी शक्ति के रूप में खड़ा कर लिया तो अपनी मुक्ति का द्वार वे स्वयं खोल सकते हैं.
हमें एक तीसरी शक्ति के रूप में संगठित होना है, ताकि चुनाव के समय कांग्रेस या सोशलिस्टों के पास पूर्ण बहुमत न हो तो दोनों को ही हमारे पास मतों के लिए भीख मांगने आना पड़े. – शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के पांचवें अधिवेशन (लखनऊ, 25 अप्रैल, 1948) में भाषण का अंश
संसदीय सरकार को विपक्षी दल की आवश्यकता क्यों होती है
शिक्षित जनता की राय के बगैर संसदीय लोकतंत्र चल ही नहीं सकता. सरकार और संसद दोनों के ठीक से कार्य करने के लिए जनता की राय जाननी जरूरी है. इसको स्पष्ट करने के लिए यह बताना जरूरी है कि शिक्षा व प्रचार में क्या फर्क है.
प्रचार की सरकार शिक्षा के प्रतिफल की सरकार से भिन्न चीज है. प्रचार का अर्थ है, मुद्दों को अच्छा प्रस्तुत करना. ‘शिक्षा के प्रतिफल की सरकार’ का अर्थ है, मुद्दों के अच्छे व बुरे, दोनों पक्षों को सुनकर, समझकर बनायी गयी सरकार. यह जरूरी है कि जनता के समक्ष किसी मसले के अच्छे व बुरे दोनों पक्ष रखे जाएं, जिस पर संसद को कोई निर्णय लेना है.
इस तरह जाहिर है कि दो दल होंगे. एक अच्छाइयां पेश करेगा व दूसरा बुराइयां. एक ही दल होने पर तानाशाही के अलावा कुछ नहीं होगा. तानाशाही न आने पाये, इसके लिए दो दलों का होना जरूरी है. यह बहुत गंभीर मसला है. लोगों का अच्छे कानून की तुलना में अच्छे प्रशासन से ज्यादा ताल्लुक होता है. कानून अच्छा हो सकता है, पर इसका अनुपालन बुरा हो सकता है. कानून का अनुपालन अच्छा होगा या बुरा, यह इस बात पर निर्भर है कि अनुपालन के लिए नियुक्त अधिकारी को कितनी आजादी है.
जब केवल एक पार्टी होगी, अधिकारी अपने राजनीतिक विभाग के मंत्री की दया पर निर्भर रहेगा. मंत्री का अस्तित्व, मतदाताओं के खुश रहने पर निर्भर है और यह अक्सर होता है कि मंत्री अपने मतदाताओं को फायदा पहुंचाने के लिए अधिकारी को अनुचित कार्य करने के लिए बाध्य कर सकता है. यदि विपक्षी दल होगा, तो मंत्री का यह कार्यकलाप उजागर हो जायेगा और उसकी शरारतें रुक जायेंगी. अच्छे प्रशासन के लिए संभवत: अगली चीज यह है कि लोग बोलने की आजादी व रोके जाने से मुक्ति चाहते हैं.
जब विपक्षी दल होगा, तो बोलने और कार्य करने की आजादी होगी. यह आजादी खतरे में पड़ जायेगी, यदि विपक्ष नहीं होगा, क्योंकि यह पूछनेवाला कोई नहीं होगा कि किसी व्यक्ति विशेष को बोलने से और लक्ष्य की ओर बढ़ने से क्यों रोका गया? विपक्षी दल की आवश्यकता के ये आधार हैं.
सभी देशों में जहां संसदीय शासन है, विपक्ष को राजनीतिक संस्था का दर्जा प्राप्त है.(ज्यादातर तथ्य 17 वर्षों तक डॉ आंबेडकर के निजी सचिव रहे डॉ नानकचंद रत्तू की पुस्तक ‘लास्ट फ्यू इयर्स ऑफ डॉ आंबेडकर’ से साभार)
बाबासाहेब द्वारा लिखित प्रमुख पुस्तकें
बुद्ध एवं उनका धम्म
पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया
आइडिया ऑफ ए नेशन
द अनटचेबल
साेशल जस्टिस एंड पॉलिटिकल सेफगार्ड ऑफ डिप्रेस्ड क्लासेज
गांधी एंड गांधीइज्म
ह्वाॅट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल
हू वेयर द शुद्राज?
बुद्धिस्ट रेवोल्यूशन एंड काउंटर- रेवोल्यूशन इन इनशिएंट इंडिया.

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