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शारदीय नवरात्र छठा दिन : ऐसे करें कात्यायनी दुर्गा की पूजा

‘जिनका हाथ उज्जवल चंद्रहास(तलवार) से सुशोभित होता है तथा सिंहप्रवर जिनका वाहन है, वे दानव संहारिणी दुर्गा देवी कात्यायनी मंगल प्रदान करें.’ दस महाविद्याओं की महिमा-6 नवरात्र के अवसर पर शत्रुनाश वाक्-शक्ति की प्राप्ति तथा भोग-मोक्ष की प्राप्ति के लिए भगवती तारा की साधना की जाती है. बृहन्नील तंत्रादि ग्रंथों में उल्लेख है- काली और […]

‘जिनका हाथ उज्जवल चंद्रहास(तलवार) से सुशोभित होता है तथा सिंहप्रवर जिनका वाहन है, वे दानव संहारिणी दुर्गा देवी कात्यायनी मंगल प्रदान करें.’
दस महाविद्याओं की महिमा-6
नवरात्र के अवसर पर शत्रुनाश वाक्-शक्ति की प्राप्ति तथा भोग-मोक्ष की प्राप्ति के लिए भगवती तारा की साधना की जाती है. बृहन्नील तंत्रादि ग्रंथों में उल्लेख है- काली और तारा एक ही हैं. हयग्रीव का वध करने के लिए देवी को नील-विग्रह प्राप्त हुआ. शव-रूप शिव पर प्रत्यालीढ़ मुद्रा में मां तारा आरूढ़ हैं और उनकी नीले रंग की आकृति नीलकमलों की तरह तीन नेत्र तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग हैं.
व्याघ्रचर्म से विभूषिता देवी के कंठ में मुंडमाला है. रात्रिदेवी स्वरूपा शक्ति तारा महाविद्याओं में अद्भुत प्रभाव और सिद्धि की अधिष्ठात्री देवी कही गयी हैं. दस महाविद्याओं में भगवती छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यंत गोपनीय और साधकों का प्रिय है.
ऐसा विधान है कि आधी रात अर्थात् चतुर्थ संध्याकाल में छिन्नमस्ता के मंत्र की साधना से साधक को सरस्वती सिद्ध हो जाती हैं. शत्रुविजय, समूह-स्तंभन, राज्य-प्राप्ति और दुर्लभ मोक्ष प्राप्ति के लिए भगवती छिन्नमस्ता की उपासना अमोघ है. छिन्नमस्ता का आध्यात्मिक स्वरूप अत्यंत महत्वपूर्ण है. इनकी प्रादुर्भाव की कथा इस प्रकार है-एक बार भगवती भवानी अपनी सहचरियों-जया और विजया के साथ मंदाकिनी में स्नान करने के लिए गयीं.
वहां स्नान करने पर क्षुधाग्नि से पीड़ित होकर वे कृष्णवर्ण की हो गयीं. उस समय उनकी सहचरियों ने उनसे कुछ भोजन करने के लिए कहा. कुछ समय प्रतीक्षा करने के बाद पुनः याचना करने पर देवी ने पुनः प्रतीक्षा करने के लिए कहा. बाद में उन देवियों ने विनम्र स्वर में कहा कि मां तो शिशुओं को तुरंत भूख लगने पर भोजन प्रदान करती है. इस प्रकार उनके मधुर वचन सुनकर कृपामयी ने अपने कराग्र सेअपना सिर काट दिया.
कटा हुआ सिर देवी के बायें हाथ में गिरा और कबन्ध से तीन धाराएं निकलीं. वे दो धाराओं को अपनी दोनों सहेलियों की ओर प्रवाहित करने लगीं, जिसे पीती हुई वे दोनों प्रसन्न होने लगीं और तीसरी धारा जो ऊपर की ओर प्रवाहित थी, उसे वे स्वयं पान करने लगीं. तभी से ये छिन्नमस्ता कही जाने लगीं. (क्रमशः)
प्रस्तुति : डॉ एन के बेरा

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