।। सतीश सिंह ।।
(लेखक एक प्रमुख बैंक में अधिकारी हैं)
बैंकों के माध्यम से लेन-देन का चलन बढ़ने और कई तरह की योजनाओं की रकम सीधे लाभार्थियों के खाते में जमा होने के कारण बैंकों की जरूरत लगातार बढ़ रही है. इसी के मद्देनजर सरकार देश में कुछ नये बैंकों के लिए लाइसेंस जारी करने की दिशा में कदम बढ़ा चुकी है. देश में नये बैंकों की जरूरत और लाइसेंस जारी होने की प्रक्रिया के साथ-साथ बैंकिंग क्षेत्र के अब तक के सफर पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.
निजी व सरकारी क्षेत्र की कंपनियों का बैंक लाइसेंस मिलने का लंबा इंतजार खत्म होनेवाला है. अगर चुनाव आयोग की सहमति मिल जाती है, तो मार्च के अंत तक नये लाइसेंस जारी किये जा सकते हैं. वैसे नये बैंकों को लाइसेंस देने की प्रक्रिया कई सालों से चल रही है और यह एक नियमित प्रक्रिया है, इसलिए चुनाव आयोग द्वारा हरी झंडी मिलने की प्रबल संभावना है. फिर भी चुनाव को देखते हुए रघुराम राजन इस मामले में कोई जोखिम नहीं लेना चाहते हैं. इसलिए माना जा रहा है कि वे चुनाव आयोग से चरचा करने के बाद ही लाइसेंस देने के बारे में कोई निर्णय लेंगे.
पांच नये दावेदारों को मौका
सूत्रों की मानें तो प्रथम चरण में पांच दावेदारों को रिजर्व बैंक लाइसेंस दे सकता है. इसमें तीन सरकारी कंपनियां और दो निजी कंपनियां शामिल हो सकती हैं. फिलहाल रिजर्व बैंक ने सरकारी कंपनियों में आइडीएफसी, भारतीय डाक, एलआइसी हाउसिंग फाइनेंस और निजी कंपनियों में लार्सन एंड टूब्रो, बंधन माइक्रोफाइनेंस आदि से ड्यू डिलिजेंस के तहत जानकारी मांगी गयी है.
माना जा रहा है कि रिजर्व बैंक सार्वजनिक क्षेत्र की तीन कंपनियों के साथ निजी क्षेत्र की एक बड़ी और एक छोटी कंपनी को लाइसेंस देकर संतुलन बनाना चाहता है. यह भी कहा जा रहा है कि जालान समिति के सदस्यों के बीच ब्रोकरेज कंपनियों को लाइसेंस देने के प्रति सहमत नहीं थी, इसलिए संबंधित कंपनियों की नाराजगी कम करने के लिए बंधन जैसी छोटी कंपनी को लाइसेंस देकर संतुलन कायम करने की कोशिश की जा रही है.
अगले चरण में रिजर्व बैंक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को भी लाइसेंस दे सकता है, जिसके लिए शीर्ष बैंक के एक डिप्टी गवर्नर केसी चक्रवर्ती लगातार वकालत करते रहे हैं. आवेदक एनबीएफसी कंपनियों में से एलएंडटी फाइनेंस होल्डिंग्स, श्रीराम ट्रांसपोर्ट फाइनेंस, बजाज फाइनेंस होल्डिंग्स आदि को लाइसेंस का प्रमुख दावेदार बताया जा रहा है. लाइसेंस मिलने के संकेत के साथ ही इन कंपनियों के शेयर में क्रमश: 1.5 से 3.2 प्रतिशत तक की तेजी दर्ज की गयी.
परिचालन 18 से 24 माह में
मालूम हो कि पहले चरण में लाइसेंस पाने के बाद बैंक का परिचालन शुरू करने में 18 से 24 माह का समय लगेगा. ऐसे में रिजर्व बैंक पहले चरणवाले दावेदारों का परिचालन और काम देखने के बाद ही दूसरे चरण में बैंक लाइसेंस देने की प्रक्रिया शुरू कर सकता है.
बता दें कि कुल 27 आवेदकों ने नये बैंक खोलने के लिए आवेदन दिया था, लेकिन बाद में टाटा संस और वैल्यू इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने अपना आवेदन वापस ले लिया. निजी क्षेत्र के नामचीन कंपनियों में रिलायंस कैपिटल, आदित्य बिड़ला नुवो, मुथूट फाइनांस, इंडियाबुल्स, रेलिगेयर एंटरप्राइजेज आदि हैं. वहीं सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों में भारतीय डाक, टूरिज्म फाइनेंस कॉरपोरेशन, आइडीएफसी तथा एलआइसी हाउसिंग फाइनेंस का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है.
लाइसेंस की चरणबद्ध प्रक्रिया
सरकार द्वारा नये निजी बैंक खोलने के लिए सर्वप्रथम फरवरी, 2010 में घोषणा की गयी थी. बैंक लाइसेंस देने के लिए बिमल जालान की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गयी थी. इस समिति के सदस्यों में रिजर्व बैंक की पूर्व गवर्नर श्रीमती उषा थोराट, सेबी के पूर्व अध्यक्ष सीवी भावे, रिजर्व बैंक केंद्रीय बोर्ड से जुड़े नचिकेत एम मोर आदि शामिल थे.
इस दिशा में एक कदम आगे बढ़ाते हुए अगस्त, 2010 में भारतीय रिजर्व बैंक ने परामर्श पत्र जारी किया. इसके एक साल के बाद अगस्त, 2011 में रिजर्व बैंक ने मसौदा नियमावली प्रस्तुत किया, जिसके मुताबिक कारपोरेट्स, सरकारी क्षेत्र की इकाइयां और इकाइयों के समूह एवं गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) को पूर्ण स्वामित्व वाली गैर-परिचालित वित्तीय होल्डिंग कंपनियों (एनओएफएचसी) के माध्यम से बैंक खोलना होगा. नये बैंकों के प्र्वतकों को एनओएफएचसी के पास 40 प्रतिशत इक्विटी पूंजी रखनी होगी, जिसे 10 साल के अंदर 20 प्रतिशत और 20 साल के अंदर घटा कर 15 प्रतिशत करना होगा. साथ ही, एनओएफएचसी को भारतीय रिजर्व बैंक के पास पंजीकृत भी करवाना होगा.
गौरतलब है कि इसके संचालन के लिए अलग से निदेशकों को नियुक्त करने का प्रावधान रखा गया है. बैंकों के निदेशक मंडल में बहुलता में स्वतंत्र निदेशक होंगे, जिनका जोर व्यावहारिक बैंकिंग योजनाओं एवं वित्तीय समावेशन की संकल्पना को साकार करने की तरफ होगा. इन्हें न्यूनतम पूंजी पर्याप्तता 13 प्रतिशत रखना होगा. पूर्व में इसे 12 प्रतिशत रखने का प्रस्ताव था. नये बैंक शुरू करने के लिए 500 करोड़ की न्यूनतम चुकता पूंजी रखनी होगी. इस मामले में पहले पांच साल में विदेशी निवेशकों की हिस्सेदारी 49 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होगी.
अच्छे रिकार्ड को वरीयता
अगस्त, 2011 में पेश किये गये मसौदे में भी नये बैंक शुरू करने के लिए 500 करोड़ की न्यूनतम चुकता पूंजी रखने का प्रावधान था. उक्त मसौदे में यह भी कहा गया था कि इच्छुक उम्मीदवार का कारोबार कम से कम 10 साल से चल रहा हो. साथ ही, उसका बेदाग होना भी जरूरी था. साफ-सुथरा रिकार्ड है या नहीं, यह पता लगाने के लिए केंद्रीय बैंक बैंकिंग नियामक, अन्य नियामकों, प्रवर्तन एवं जांच एजेंसियों की मदद ले सकता है. रिजर्व बैंक के द्वारा जारी दिशा-निर्देश में सबसे महत्वपूर्ण 25 प्रतिशत शाखाओं को ग्रामीण क्षेत्रों में खोलना है. इसे इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि अब भी शहरी आबादीवाले क्षेत्रों में बैंकों की पहुंच महज 32 प्रतिशत है और गांवों में 18 प्रतिशत.
लाइसेंस मिलने के बाद
लाइसेंस मिलने के संबंधित कंपनी को 18 महीनों में अपना बैंकिंग कारोबार शुरू करना होगा. बैंक का कारोबार शुरू करने के तीन साल के भीतर बैंक के प्र्वतकों को बैंक के शेयर को सूचीबद्ध करवाना होगा. इसके पहले मसौदे में इसके लिए दो साल का समय तय किया गया था. अंतिम नियमावली में रिजर्व बैंक ने किसी भी क्षेत्र में कार्यरत कंपनी को बैंकिंग क्षेत्र में उतरने से मना नहीं किया है. हालांकि, अंतिम मसौदे में यह प्रावधान रखा गया था कि प्रवर्तक समूह का कारोबार मॉडल बैंकिंग मॉडल से मिलता-जुलता होना चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि उक्त कंपनी के कारोबार से बैंकिंग प्रणाली में जोखिम न बढ़े.
बैंक चलाना फायदे का बिजनेस
सामाजिक सरोकारों को नजरअंदाज कर दिया जाये, तो बैंक चलाना मौजूदा समय में एक फायदेमंद कारोबार है. संक्रमण के इस दौर में जब तकरीबन सभी सरकारी बैंक पूंजी की कमी, एनपीए, लाभ पर बढ़ते दबाव से जूझ रहे हैं, तब भी निजी बैंक मुनाफे का कारोबार कर रहे हैं. लेकिन अंतिम नियमावली में आरोपित 25 प्रतिशत शाखाओं को ग्रामीण क्षेत्रों में खोलने की बाध्यता, वित्तीय समावेशन आदि के चलते प्रस्तावित नये बैंकों की राह मुश्किल हो सकती है.
हालांकि सरकार वित्तीय समावेशन की संकल्पना को साकार करने के प्रति गंभीर है. फिलहाल ग्रामीण इलाकों में बैंकों की संख्या कम है. एक अनुमान के अनुसार, भारत की कुल आबादी के अनुपात में 68 प्रतिशत लोगों के पास बैंक खाता नहीं हैं. बीपीएल वर्ग में महज 18 फीसदी लोगों के पास बैंक खाता है.
सामाजिक सहभागिता में वृद्धि
बैंक पर हमारी निर्भरता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. आज ‘मनरेगा’ के तहत लाभार्थियों को बैंक के माध्यम से मजदूरी देना हो या फिर दूसरी योजनाओं के लाभार्थियों के बैंक खातों में सीधे सब्सिडी की राशि जमा करनी हो, कोई भी कार्य बैंक की सहभागिता के बिना संभव नहीं है. दूसरी तरफ, भ्रष्टाचार ने बैंकों के कामकाज को बुरी तरह से प्रभावित किया है. कोबरा वेब पोर्टल ने बैंकों की जो तसवीर दिखायी है, वह भयावह है. सूचना का अधिकार कानून, 2005 के बलबूते सरकारी बैंकों के कामकाज में कुछ हद तक पारदरशिता आयी है, लेकिन निजी बैंकों में अपारदरशी तरीके से काम हो रहा है.
ग्रामीण इलाकों में नये बैंक
मौजूदा निजी बैंकों का प्रदर्शन सरकार एवं जनता की कसौटी पर खरा नहीं उतर सका है. इस परिप्रेक्ष्य में सरकारी बैंकों के विलय करने की बात भी सरकार कह रही है. जाहिर है नये निजी बैंकों को खोलना सरकार की कथनी व करनी में व्याप्त विरोधाभास को दर्शाता है. वर्तमान में बैंकिंग क्षेत्र असंख्य चुनौतियों का सामना कर रहा है. वित्तीय समावेशन की संकल्पना को साकार करना ऐसी ही एक चुनौती है. नये बैंकों के लिए 25 फीसदी शाखाएं ग्रामीण क्षेत्र में खोलना आसान नहीं होगा. फिलहाल निजी बैंक ग्रामीण क्षेत्र में काम करने से बचते रहे हैं. इसलिए उम्मीद की जा रही है कि सभी तरह की बैंकिंग सेवाओं को ग्रामीणों के बीच उपलब्ध करवाना निजी बैंकों के लिए एक गंभीर चुनौती होगी. इस क्रम में नये बैंकों के लिए ‘बासेल-3’ के प्रावधानों को पूरा करना भी आसान नहीं होगा.
राष्ट्रीयकरण का मकसद कल्याणकारी बनाना
बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पीछे सरकार की मंशा थी, आम आदमी को बैंकों से जोड़ना और बैंकिंग के स्वरूप को कल्याणकारी बनाना, सरकारी योजनाओं का लाभ जनता तक पहुंचाना तथा रोजगार सृजन के द्वारा उन्हें आत्मनिर्भर बनाना. स्वयं सहायता समूह एवं अन्य सरकारी योजनाओं के माध्यम से लोगों को उनका हक दिलाने में सरकार बहुत हद तक कामयाब भी रही है.
स्पष्ट है कि सरकारी बैंकों की महती भूमिका के बिना यह संभव नहीं था. दूसरी ओर निजी बैंकों का उद्देश्य कभी भी आमजन का कल्याण नहीं रहा है. सामाजिक योजनाओं से उनका कोई सरोकार नहीं है. इस लिहाज से नये बैंक लाइसेंस देना समझ से परे है.
भारतीय बैंकों की जीवन यात्रा
बैंक ऑफ हिंदुस्तान को भारत का पहला बैंक माना जाता है. इसकी स्थापना 1870 में की गयी थी. भारतीय स्टेट बैंक देश का सबसे पुराना बैंक है. दूसरे पुराने बैंकों में इलाहाबाद बैंक और पंजाब नेशनल बैंक हैं, जिनकी स्थापना क्रमश: 1865 और 1895 में हुई थी. भारत में विदेशी बैंकों का भी एक लंबा इतिहास रहा है. वर्ष 1860 में कलकत्ता में फ्रांस का एक बैंक काम कर रहा था. मौजूदा समय का एक प्रमुख विदेशी बैंक एचएसबीसी वर्ष 1869 में अस्तित्व में आ चुका था, जिसका आगाज कलकत्ता में हुआ था.
भारतीय स्टेट बैंक को पहले प्रेसीडेंसी बैंक कहा जाता था, जो तीन बैंकों का संयुक्त नाम था. प्रेसीडेंसी बैंक के तहत बैंक ऑफ कलकत्ता की स्थापना 1806 में कलकत्ता में हुई थी, जो कुछ ही समय के बाद बैंक ऑफ बंगाल में तब्दील हो गया था. अन्य दो प्रेसीडेंसी बैंक क्रमश: बैंक ऑफ बंबई और बैंक ऑफ मद्रास थे. इन तीनों बैंकों की स्थापना ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी के एक चार्टर के तहत की गयी थी. 1921 में इन तीनों बैंकों का विलय हो गया और नाम बदलकर ‘इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया’ कर दिया गया. वर्ष 1955 में फिर से इसका नाम बदल कर भारतीय स्टेट बैंक किया गया. देश के आजाद होने के बाद भी 1959 तक यह निजी नियंत्रण में रहा, जबकि 1921 से 1934 तक इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया देश के केंद्रीय बैंक के रूप में काम करता रहा था. पूर्व में निभायी गयी प्रभावशाली भूमिका को ध्यान में रखते हुए 1960 में भारतीय स्टेट बैंक का राष्ट्रीयकरण किया गया.
स्वतंत्रता पूर्व देश की अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण रखने के लिए एक शीर्ष बैंक की जरूरत महसूस की गयी और इस परिकल्पना के आधार पर 1935 में भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की गयी, जिसका राष्ट्रीयकरण 1 जनवरी, 1949 को किया गया. कालांतर में सामाजिक समानता की संकल्पना को साकार करने एवं गरीबी पर काबू पाने के मकसद से 1969 में देश के 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. इस आलोक में फिर से 1980 में छह बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया. इसके बाद, 1980 से लेकर वर्ष 2000 के बीच 10 नये निजी बैंकों को केंद्रीय बैंक ने लाइसेंस दिया था. वर्ष 2001 में यस बैंक और कोटक महिंद्रा को लाइसेंस दिया गया. इस समय देश में 27 सरकारी बैंक, 22 निजी क्षेत्र के बैंक और 56 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक काम कर रहे हैं.
बैंकों को लाइसेंस देने की प्रक्रिया को जानिये
भारतीय रिजर्व बैंक को देश में बैंकिंग लाइसेंस देने के लिए अधिकृत किया गया है. मोटे तौर पर देखा जाये, तो नये लाइसेंस जारी करने के पीछे रिजर्व बैंक की मंशा वित्तीय समावेशन की संकल्पना को साकार करना और बैंक से वंचित क्षेत्रों में बैंक खोलना रहा है. हालांकि, शीर्ष बैंक मामले में निर्णय परिस्थितिनुसार लेता रहा है. मसलन 1993-1994 के दौरान भारत में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया उत्कर्ष पर थी, लिहाजा उस वक्त निजी बैंकों की जरूरत महसूस की गयी. कहा गया कि निजी बैंक देश की अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने में मददगार साबित हो सकते हैं, क्योंकि उस समय 91 प्रतिशत बैंकिंग बाजार और 85 प्रतिशत कारोबार पर सरकारी बैंकों का कब्जा था. जाहिर है, ऐसे में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पाती. इस आलोक में 1993-94 के बीच 10 निजी बैंकों को लाइसेंस दिया गया और वर्ष 2003-04 में दो और निजी बैंकों को लाइसेंस दिया गया.
फिलहाल महंगाई और मंदी ने भारतीय अर्थवयवस्था के विकास की रफ्तार को सुस्त कर दिया है. साथ ही, अभी भी वित्तीय समावेशन की संकल्पना साकार नहीं हो सकी है. देश की बड़ी आबादी आज भी बैंक से महरूम है. हालात में सुधार के लिए कुछ और नये निजी बैंकों की जरूरत महसूस की जा रही है. जरूरत के मुताबिक रिजर्व बैंक ने लाइसेंस देने के लिए इस बार भी नियम-कानून बनाये हैं. इस परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि रिजर्व बैंक नये लाइसेंस जारी करने के लिए कोई निश्चित प्रक्रिया का अनुपालन नहीं करता है, बल्कि वह सिर्फ समय और परिस्थिति के मुताबिक कदम उठाता है.