जो सामाजिक कार्यकर्ता और पेशेवर लोग राजनीति में आ रहे हैं, उनकी तीन श्रेणियां हैं. एक वैसे लोग जो सेवानिवृत्ति के बाद अपने पुनर्वास की जुगत में हैं. दूसरा, वैसे लोग जिनकी बुद्धि सेवानिवृत्ति के सुकून में खुलती है. और तीसरी श्रेणी उन लोगों की है जो अपने कैरियर को दांव पर लगा कर कुछ आदर्शो की प्राप्ति के लिए राजनीति में आ रहे हैं.
आतंरिक लोकतंत्र और पारदर्शिता से परहेज करनेवाली मुख्यधारा की पार्टियों के पास कोई दृष्टि नहीं बची है और वे अपने धन-दाताओं द्वारा निर्देशित होती हैं. सामाजिक सक्रियता, साहित्य और अन्य पेशों से लोगों की आमद राजनीतिक प्रक्रिया को भीतर से बदलने की एक कोशिश है. यह राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है कि यदि वे विलुप्त नहीं होना चाहती हैं, तो उन्हें अपने विचारों और अपनी ऊर्जा को खुद में नयापन लाने में प्रयुक्त करना होगा. यह किसी से छिपा नहीं है कि मौजूदा ढांचे में बंधी पार्टियां अपनी उपयोगिता खो चुकी हैं, क्योंकि उनका जन आंदोलनों और भविष्य की किसी दृष्टि से विलगन हो चुका है.
हालांकि ये कार्यकत्र्ता और पेशेवर शुरू में अपने दल और नेता की बात और उसके विचार पर हामी भरेंगे, पर यह उम्मीद की जानी चाहिए कि दल में भरोसे का इम्तिहान पास कर लेने के बाद ये लोग नीति-निर्धारण में दृढ़ता से अपनी बात रखेंगे और नेताओं की बेतुकी बातों पर सवाल उठाएंगे. पारंपरिक पार्टियां जनहित में निष्ठा के बजाये दल के प्रति निष्ठा की आकांक्षा करती हैं. इस माहौल में कार्यकर्ताओं के आने से निश्चित रूप से बदलाव होना है, क्योंकि उनका सरोकार जन-समस्याओं से होता है.
मेधा पाटकर और अरविंद केजरीवाल जैसे लोग ‘पूंजीवाद’ और ‘मुक्त बाजार’ जैसे बड़े और जरूरी मुद्दों पर जिस तरह अपना रुख सामने रख रहे हैं, उस पर ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि इससे यह पता चलता है कि ये लोग वर्तमान स्थिति और राजनीतिक वास्तविकता के दायरे में सीमित हैं या फिर उससे आगे जाने की जद्दोजहद में हैं. ये लोग स्वार्थी गठजोड़ वाले पूंजीवाद और दोषयुक्त मुक्त बाजार को खारिज कर रहे हैं. ये वे संबद्ध नाम भी बता-गिनवा रहे हैं, ताकि मुद्दों को सीधे और सपाट तरीके से समझा जा सके. इस बात से राज्य-पूंजीवाद और बाजार-पूंजीवाद पर उनकी समझदारी का संकेत मिलता है, लेकिन राजनीतिक परिदृश्य को प्रभावित कर निरंकुशता की ओर ले जानेवाली और समाज को नियंत्रित करनेवाली तकनीकों के बारे में उनकी अदूरदर्शिता चिंताजनक है. फिर भी, तमाम मुश्किलों और मसायल के बावजूद इतनी उम्मीद तो है कि वे कुछ जरूरी और बढ़िया कदम उठाएंगे.
गोपाल कृष्ण
नागरिक अधिकार कार्यकत्र्ता