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61 करोड़ महिलाएं और सिर्फ 61 महिला सांसद

अनुज कुमार सिन्हा चाहे राष्ट्रीय राजनीतिक दल हों या क्षेत्रीय दल, महिलाओं को टिकट देने में कंजूसी करते हैं. आगे आने नहीं देते. जिस देश में महिलाओं की आबादी लगभग 61 करोड़ (वर्तमान) से ज्यादा हो, वहां से सिर्फ 61 महिलाएं ही संसद (वर्तमान सदस्य) पहुंच पा रही हैं. यानी हर एक करोड़ महिला पर […]

अनुज कुमार सिन्हा

चाहे राष्ट्रीय राजनीतिक दल हों या क्षेत्रीय दल, महिलाओं को टिकट देने में कंजूसी करते हैं. आगे आने नहीं देते. जिस देश में महिलाओं की आबादी लगभग 61 करोड़ (वर्तमान) से ज्यादा हो, वहां से सिर्फ 61 महिलाएं ही संसद (वर्तमान सदस्य) पहुंच पा रही हैं. यानी हर एक करोड़ महिला पर एक सांसद. यह है राजनीति में महिलाओं की वास्तविक स्थिति. उनकी हिस्सेदारी. आबादी में लगभग बराबर, पर संसद का हाल देखिए.

लोकसभा में 382 पुरुष सांसद और महिला सांसद सिर्फ 61. अगर आबादी पर निर्णय होने लगे तो दावा आधा यानी 272 का बनता है. इस संख्या में तो बहुमत की सरकार बन सकती है. महिलाएं आधा हिस्सा मांग भी नहीं रही हैं. महिला आरक्षण में सिर्फ 33 फीसदी सीटों की बात कही गयी है, पर वह भी आरक्षण नहीं मिल पाया. अगर महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिल जाये तो संसद की तसवीर बदल जायेगी. इस साल ऐसी उम्मीद बनी थी कि शायद महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा से पारित हो जाये लेकिन इसके लिए दलों के पास कलेजा होना चाहिए. प्रयास ही नहीं हुआ. कुछ साल पहले जब लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक को लाने का प्रयास किया जा रहा था, कुछ दलों के सांसदों ने अभ्रद आचरण पेश करते हुए विधेयक की प्रति छीन ली थी, फाड़ दिया था.

कहां गया 33 फीसदी आरक्षण

शायद ही कोई दल हो जो महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का ईमानदारी से प्रयास करता हो. कांग्रेस और भाजपा अगर चाहती तो क्या यह विधेयक पारित नहीं हो सकता था. कैसे तेलंगाना का विधेयक पारित हुआ? कमरा बंद कर सुरक्षाकर्मियों को चौकस करते हुए इस विधेयक को पारित किया जा सकता था. अगर बड़े दलों के सांसद अड़ जाते तो किसकी ़हिम्मत थी कि उसे रोक लेता. पर दलों की मंशा सही नहीं थी. इसे कहते हैं दोहरा चरित्र. महिलाओं के आरक्षण के नाम पर राजनीति करनेवाले महिलाओं को संसद में आने से रोकने में लगे हैं. राजद या समाजवादी पार्टी या बसपा, हो सकता है कि इन दलों के सवाल में भी दम हो. कमजोर वर्ग की महिलाओं को संसद में पहुंचना कठिन है. इतिहास भी यही कहता है. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो गरीब, सामान्य महिलाओं का पहुंचना कठिन रहा है. पर पहले महिलाओं को आरक्षण तो लेने दो. किस जातिधर्म या वर्ग को टिकट देना है, यह पार्टी तय करे. अगर पार्टी कमजोर वर्ग को टिकट देना चाहती हो तो रोकता कौन है? ये महिलाएं चाहे किसी जाति या धर्म या वर्ग की होंगी, जब संसद में पहुंचेंगी तो पहले महिला ही होंगी. जब नीतियां बनाने में इन महिलाओं की भागेदारी बढ़ेगी तो इसका असर भी दिखेगा.

राजनीति में महिलाओं ने साबित कर दिखा दिया है कि जब भी उन्हें मौका मिला है, उन्होंने नेतृत्व संभाला है. उनकी क्षमता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता. देशदुनिया में महिलाओं ने राजनीति में नाम कमाया है. भारतीय उपमहाद्वीप में तो कई महिला नेताओं ने अपने देश का नेतृत्व किया है. चाहे वे श्रीलंका की भंडारनायके हों, भारत की श्रीमती इंदिरा गांधी हों, पाकिस्तान की बेनजीर भुट्टो हो या फिर बांग्लादेश में शेख हसीना या खालिदा जिया. ब्रिटेन में एक से एक ताकतवर प्रधानमंत्री हुए लेकिन आज भी दुनिया मारग्रेट थैचर को ही याद करती है.

1952 की पहली कैबिनेट में राजकुमारी अमृत कौर

जहां तक भारत की बात है, महिलाओं ने आजादी की लड़ाई में और उसके बाद राजनीति में बड़ी भूमिका निभायी है. जब भी उन्हें अवसर मिला है, खुद को बेहतर साबित किया है. 1952 के पहले चुनाव के बाद जब जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में पहली कैबिनेट का गठन किया गया तो उसमें राजकुमारी अमृत कौर को रखा. स्वास्थ्य मंत्री बनी. देश की पहली कैबिनेट मंत्री. राज्यों में भी जब मौका मिला, महिलाओं ने नेतृत्व संभाला. शुरुआत हुई यूपी से जब 1963 में सुचेता कृपालानी देश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी. उसके बाद तो रास्ता खुल गया. नंदिनी सतपथी, शशिकला काकोडकर, सईदा अनवारा तैमूर, जानकी रामचंद्रन, जयललिता, मायावती, राजिंदर कौर भट्टल, राबड़ी देवी, सुषमा स्वराज, शीला दीक्षित, वसुंधरा राजे, ममता बनर्जी उसी परंपरा को आगे बढ़ाती रहीं. हां, कुछ राज्य (जिनमें झारखंड भी है) में अभी तक महिला को नेतृत्व संभालने का मौका नहीं मिला है.

इंदिरा गांधी का पदार्पण

भारत की राजनीति में इंदिरा गांधी को एक सशक्त शासक के रुप में याद किया जाता है. उनके किसी निर्णय पर सहमति/असहमति हो सकती है पर दुनिया उन्हें याद करती है बांग्लादेश युद्ध को लेकर. पूरी दुनिया को उन्होंने दिखा दिया था कि एक महिला कितना कड़ा फैसला ले सकती है. दूरदर्शी राजनीति के तहत इंदिरा गांधी ने जिस पाकिस्तान को तोड़ा था, उसके दर्द से पाकिस्तान अभी भी कराहता है. 1974 में भारत ने पोखरण विस्फोट कर परमाणु शक्ति संपन्न देश बना. उन दिनों भारत के हालात आज जैसे नहीं थे. अमेरिकी पर निर्भरता ज्यादा थी. फिर भी विस्फोट का फैसला इंदिरा गांधी ने लिया था. आतंकवाद को कुचलने के लिए उन्होंने आपरेशन ब्लू स्टार को अनुमति दी थी. उसके पहले जेकेएलएफ लीडर मकबूल भट्ट को फांसी न देने की दुनिया के कई देशों की अपील को ठुकरा दिया था. ये बड़े फैसले थे. लेनेवाली थी एक महिला. एक सशक्त प्रधानमंत्री.

बिहार और महिला सांसद

1952 से 2000 तक झारखंड बिहार का हिस्सा रहा. जब देश में पहली बार लोकसभा के लिए 1952 में चुनाव हुआ, महिलाओं को संसद में भेजने में बिहार पीछे नहीं रहा.

देश भर से 24 महिलाएं चुन कर आयी थी जिसमें दो बिहार से थी. भागलपुर साउथ से सुषमा सेन और पटना से तारकेश्वरी सिन्हा चुनी गयी थी. सुषमा सेन कैंब्रिज में पढ़ी लिखी थी और लंदन में रहते हुए उन्होंने बिहार भूकंप के पीड़ितों की सहायता के लिए अभियान चलाया था. उच्च शिक्षा प्राप्त सुषमा सेन ने शिक्षा के क्षेत्र में कई बड़े काम किये. तारकेश्वरी सिन्हा तो कई बार सांसद चुनी गयी. उसके बाद भी बिहार से रामदुलारी सिन्हा, सत्यभामा देवी, कृष्णा शाही, कांति सिंह, मनोरमा सिंह, किशोरी सिन्हा समेत अनेक महिलाएं चुनाव जीतती रहीं.

इस चुनाव में भी उपेक्षा

चुनाव सामने है. एक बात तो साफ है कि इस चुनाव में भी कोई भी दल महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीट छोड़ने नहीं जा रहा है. दरअसल, इसके लिए उनकी तैयारी भी नहीं है. खास कर कांग्रेस और भाजपा जो देश की अधिकांश सीटों पर लड़ती हैं, उनके पास बड़ी संख्या में महिला प्रत्याशी हैं ही नहीं. इसलिए इस बात की आशंका है कि इस बार भी दबाव के बावजूद संसद में 70-75 से ज्यादा महिला सांसद नहीं होंगी. अभी तक जिन भी राजनीतिक दलों ने प्रत्याशी की घोषणा की है, उसमें महिलाओं की संख्या नगण्य है. ऐसे में तमाम गुण होने के बावजूद महिलाएं संसद में कैसे पहुंचेंगी.

टिकट देने में इंदिरा गांधी से आगे सोनिया गांधी

राष्ट्रीय दलों में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दो प्रमुख हैं. इनमें भाजपा में अभी तक कोई महिला नेता शीर्ष पर नहीं रही हैं. कांग्रेस में श्रीमती इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी दो ऐसी प्रमुख नेता रही हैं जिनकी सहमति के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता था/है. इंदिरा गांधी की अगुवाई में ही 1967, 1971, 1977 और 1980 का चुनाव कांग्रेस ने लड़ा था. इसी प्रकार राजीव गांधी की 1991 में हुई हत्या के बाद 1996 में चुनाव हुए लेकिन सोनिया गांधी 1998 के चुनाव से ज्यादा सक्रिय हो गयीं. हमने आंकड़ों के बल पर यह जानने का प्रयास किया कि महिलाओं को टिकट देने में इंदिरा गांधी आगे थीं या सोनिया गांधी. निष्कर्ष निकला कि महिलाओं को आगे बढ़ाने में, लोकसभा का टिकट देने में सोनिया गांधी, इंदिरा गांधी से आगे रही हैं. सोनिया गांधी ने ज्यादा महिलाओं को अपनी पार्टी का टिकट दिया. वे जीतकर भी आयीं. यह संभव है कि इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी के कार्यकाल में फर्क रहा है. उन दिनों की अपेक्षा आज महिलाओं की रूचि राजनीति में ज्यादा है.

झारखंड की सांसद

बिहार विभाजन के पहले झारखंड क्षेत्र से कई महिलाएं संसद पहुंच चुकी थी. आजादी के पहले से ही इस क्षेत्र पर रामगढ़ राजा कामाख्या नारायण सिंह का बहुत प्रभाव था. दूसरे चुनाव (1957) में ही ललिता राजलक्ष्मी (रानी) हजारीबाग से और विजया राजे चतरा लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीत गयी थीं. बाद का चुनाव रानी ने औरंगाबाद और धनबाद से जीता था. एक और राजपरिवार (चक्रधरपुर के राजा की पुत्री) की शशांक मंजरी पलामू से 1962 में चुनी गयी थी. उन दिनों पलामू सुरक्षित नहीं था. बाद में इस क्षेत्र से ऐसीऐसी महिलाएं संसद में गयीं जिनका संबंध राजपरिवार से नहीं था. बिल्कुल सामान्य परिवार की महिलाएं. पलामू वह क्षेत्र है जहां से सबसे ज्यादा बार महिलाएं चुनाव जीत चुकी हैं. चार बार कमला कुमारी और एक बार शशांक मंजरी यानी पांच बार. ऐसा ही एक क्षेत्र है धनबाद जहां से चार बार रीता वर्मा और एक बार ललिता राजलक्ष्मी वहां से सांसद बनी. इसी झारखंड क्षेत्र के लोहरदगा से सांसद बनने के बाद सुमति उरांव केंद्रीय मंत्री बनी. रीता वर्मा भी केंद्रीय मंत्री थी. सुशीला केरकट्टा, आभा महतो और सुमन महतो भी संसद में गयी. यानी झारखंड के लगभग आधे लोकसभा क्षेत्र का नेतृत्व महिलाएं कर चुकी हैं. इसके बावजूद सिंहभूम, रांची, गिरिडीह, कोडरमा और संताल से अभी तक महिला संसद नहीं पहुंची है.

वोट देने में आदिवासी क्षेत्र की महिलाएं आगे

झारखंड और बिहार की महिलाओं पर यह आरोप भले ही लगता हो कि वे वोट देने में पीछे रहते हैं, पर झारखंड में एक खासियत भी है. यहां आदिवासी बहुल क्षेत्रों की महिलाएं वोट देने में आगे हैं. 2009 लोकसभा चुनाव में झारखंड की सुरक्षित सीटों (आदिवासी) की 55.28 फीसदी महिलाओं ने मतदान किया था जबकि सामान्य सीटों पर सिर्फ 49.62 फीसदी महिलाओं ने वोट दिया . सबसे खराब स्थिति है अनसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर. सिर्फ 45.97 फीसदी महिलाएं ही वोट देने निकली थीं. वोट देने में देश में सबसे खराब स्थिति है जम्मूकश्मीर की. उसके बाद स्थान है बिहार का, जहां सिर्फ 44.46 फीसदी महिलाएं ही वोट देने निकली थीं (2009 के चुनाव में). बिहार में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर तो स्थिति और खराब थी. सिर्फ 41 फीसदी महिलाओं ने वोट दिया था. अगर बिहार और झारखंड की महिलाएं वोट देने के लिए निकलने लगे, तो बदलाव दिखेगा.

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