-आम नागरिकों को मानव सुरक्षा प्रदान करना सबसे बड़ी चुनौती-
।। रवि दत्त वाजपेयी।।
भारत के लिए सिर्फ बाहरी ही नहीं , बल्कि आंतरिक खतरे भी हैं. नक्सली हिंसा के अलावा सांप्रदायिकता आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती है. जहां एक ओर भारत को अमेरिका जैसी शक्तियों का का मोहरा बनाने से बचना होगा, वहीं चीन के सामने निरीह बने रहना भी बहुत खतरनाक नीति होगी. पढ़िए दूसरी कड़ी.
अपनी स्वतंत्रता के इतने सालों के बाद भी एक राष्ट्र राज्य रूपी राजनीतिक इकाई और भौगोलिक इकाई के रूप में भारत का गंभीर चुनौतियों से सामना है, भारत की समावेशी संस्कृति को सिर्फ बाहरी ही नहीं बल्किआंतरिक खतरे भी है. बाहरी खतरों में अन्य पड़ोसी देश, कुछ देशों में स्थित आतंकी संगठन जिन्हें ‘नॉन-स्टेट एक्टर्स’ माना जाता है, और ऐसे देश भी शामिल हैं जो अपने हथियार का बाजार और दबदबा बनाये रखने के लिए भारत में तनाव बनाये रखने के लिए सक्रि य हैं. भारत की सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती अपने देश के आम नागरिकों को मानव सुरक्षा प्रदान करना है. एक बहुत बड़ी आबादी के कारण भारत के लिए यह एक बहुत गंभीर समस्या रही है.
भारत के तीव्र आर्थिक विकास की चकाचौंध में आम भारतीय की मानव सुरक्षा का लगातार ह्रास हुआ है, भारतीय परिप्रेक्ष्य में मानव-सुरक्षा, आम नागरिकों को सुरक्षित व सम्मानजनक जीवन जीने के लिए आवश्यक संसाधनों में हिस्सेदारी देना है. अत्याधुनिक हथियार व सैन्य शक्ति से भौगोलिक-राजनीतिक सुरक्षा तो दृढ़ बनायी जा सकती है, लेकिन मानव सुरक्षा के बिना ऐसी सुरक्षा सार्थक नहीं होगी.
सुरक्षा की आंतरिक चुनौतियों में सबसे बड़ा संकट हथियारबंद विद्रोहियों से नहीं बल्किउन्मादी हिंसा भड़कानेवाले सफेदपोश राजनीतिज्ञों से है, भारत में आंतरिक समस्याओं जैसे उत्तर-पूर्व के राज्य, कश्मीर, माओवादी हिंसा के युद्ध क्षेत्र तो चुनिंदा स्थानों पर हैं, लेकिन सांप्रदायिक हिंसा का खतरा लगभग पूरे देश में हर समय बना रहता है और अपनी सुविधानुसार इस हिंसा के जिन्न को बोतल से निकालने में सभी दलों के राजनेता शामिल रहते हैं.
सांप्रदायिक द्वेष और हिंसा के पीछे हमेशा बेहद संकीर्ण व स्वार्थी राजनीतिक उद्देश्य होते है, भारत की गवर्नेस की सबसे बड़ी चुनौती इन राजनेताओं को दंडित करना है, कठोर दंड के बिना सांप्रदायिक दंगों के प्रायोजकों को रोक पाना बहुत मुश्किल है.
एक संप्रदाय की हिंसा दूसरे पक्ष को बड़े पैमाने पर हिंसा करने को उकसाती है या छापामार शैली में आम नागरिकों पर हमला करने को प्रेरित करती है, भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा सांप्रदायिकता है. भारत की आंतरिक सुरक्षा की एक अन्य चुनौती कश्मीर है, जिसके भारत में बने रहने से आम कश्मीरी निवासियों को जितनी दिक्कत है उससे कहीं अधिक बेचैनी पाकिस्तानी हुक्मरानों को है, लेकिन शेष भारत के लोगों का इस समस्या से विशेष जुड़ाव नहीं है. भारत के बड़े हिस्से में आम लोगों के बीच ‘कश्मीर समस्या’ के बारे में भ्रामक अवधारणाएं है, यह या तो भारतीय राष्ट्रवाद की जंग है या दक्षिण एशिया में धर्मनिरपेक्षता की सबसे मौलिक लड़ाई है. कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानने वाले लोग कभी भी इस अभिन्न अंग की ओर रुख ही नहीं करते है, भारत की बड़ी आबादी स्थानीय लोगों की रोजाना की परेशानियों से बिल्कुल उदासीन है और यहां पर कार्यरत भारत की सुरक्षा सेनाओं की उलझनों से भी बेखबर हैं. इसी प्रकार पिछले दशकों में उत्तर-पूर्व राज्यों के निवासियों की मांग भारत से अलगाव नहीं बल्किशेष भारत से जुड़ाव व शेष भारत से सम्मानपूर्ण व्यवहार है, इस मांग को भारत सरकार ने अपनी अदूरदर्शिता से इसे एक सैन्य अभियान में बदल दिया है और भारत की बड़ी आबादी उत्तर-पूर्व के स्थानीय लोगों की समस्याओं से पूरी तरह से निर्लिप्त है. स्वतंत्रता के इतने सालों के बाद भी भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों की इन समस्याओं का उलङो रहना राष्ट्रीय उदासीनता की परिचायक है और यह निष्क्रि यता भारत की राजनीतिक-भौगोलिक अखंडता के लिए घातक है.
नक्सली-माओवादी हिंसा को भारत का सबसे बड़ा आंतरिक संघर्ष माना जाता है, भारत के आर्थिक तौर से पिछड़े राज्यों में इस हिंसा ने उग्रवादियों और प्रशासन-सुरक्षा बलों को हिंसा की आड़ में आर्थिक लाभ उठाने का एक जरिया दिया है. भारत में बहुत थोड़ी संख्या में बचे जंगल व प्राकृतिक संसाधनों को निजी व्यापार के मुनाफे के लिए बेचने को कटिबद्ध सरकार और विस्थापन-उत्पीड़न के नाम पर अपने राजनीतिक मुनाफे के लिए उद्धत संगठनों के इस संघर्ष में आम नागरिकों के लिए बीच का कोई रास्ता नहीं बचा है. सुरक्षा बलों के अनेक अभियानों के बाद भी नक्सली हिंसा कम होने के बजाय आज तक जारी है और नक्सल संघर्ष अब वर्ग संघर्ष, व्यवस्था परिवर्तन के स्थान पर अब स्थानीय लोगों के शोषण का एक तरीका बन गया है. भारत के इस आंतरिक संघर्ष का हल केवल सशस्त्र बल प्रयोग या विकास के नाम पर और सौदेबाजी नहीं है.
भारत की सुरक्षा की बाहरी चुनौतियों में इसके पड़ोसी देश सबसे ऊपर है, भारत पर पाकिस्तान के खुले व छद्म युद्ध की कोई सीमा नहीं है. भारत की सैन्य शक्ति एक बड़ा भाग केवल पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों को भारत में घुसने से रोकने पर केंद्रित है. वर्ष 2014 में अफगानिस्तान से अमेरिकी व अन्य पश्चिमी सेनाओं की वापसी के बाद भारत की सुरक्षा पर बाहरी संकट बढ़ने की आशंकाएं हैं. बांग्लादेश से भारत आनेवाले प्रवासियों की संख्या को सारे विश्व का सबसे बड़ा उत्प्रवासन माना जाता है इसके साथ ही बांग्लादेश और नेपाल को भारत में आतंकी हमलों के लिए एक सरल रास्ते की तरह भी प्रयोग में लाया गया है. विश्व की सबसे आधुनिक महाशक्ति चीन के समक्ष भारत लगभग हर क्षेत्र में बौना दिखायी पड़ता है. भारत को चीन के साथ अपने संबंध बहुत कुशलता से साधने होंगे, जहां एक ओर भारत को अमेरिका जैसी शक्तियों का मोहरा बनाने से बचना होगा वहीं चीन के सामने निरीह बने रहना भी बहुत खतरनाक नीति होगी. यदि भारत चीन के साथ अपने सीमा विवाद का मैत्रीपूर्ण ढंग से निबटारा कर सके तो यह भारत की सुरक्षा के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.
विश्व की अन्य बड़ी शक्तियां भारत की सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से बहुत उत्साहित है और भारत में अपने हथियार का बाजार बनाये रखने के लिए इस सारी समस्याओं को और उलझाये रखना चाहती है. दुनिया की सबसे नामचीन परामर्शी संस्थाएं ( मेकेंजी, केपीएमजी, प्राइस वाटरहाउस आदि) भारत में सुरक्षा संबंधी विेषण में विदेशी हथियारों के निर्मातों-वितरकों लिए स्वर्णिम भविष्य देखती हैं, विदेशी कंपनियों का स्वर्णिम भविष्य, भारत के उज्ज्वल भविष्य लिए कतई भी शुभ नहीं है.