धार्मिक उत्सवों का सीधा संबंध लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से भी है. दशहरा जहां कृषि-आधारित समाज के लिए फसलों की कटाई के बीच के फुरसत के पलों में एक धार्मिक-सांस्कृतिक अवसर है, वहीं बाजार में खास खरीद-बिक्री का मौका भी. समय बीतने के साथ जीवन जीने के ढंग में बदलाव सभ्यता की स्वाभाविक गति है और इससे धार्मिक कृत्य और त्योहार भी अछूते नहीं रह सकते.
दुर्गा पूजा के पंडालों से लेकर निजी पूजा घरों तक में आधुनिक तकनीक का प्रवेश हुआ है, जिससे उत्सव के नजारे भी बदल रहे हैं. इसका एक असर खरीदारी के तौर-तरीकों और सामान के चयन में भी दिखता है, लेकिन नये रंग-ढंग में भी पूजा के आध्यात्मिक अर्थ बरकरार हैं. इस माहौल में सामाजिकता के आयामों को भी विस्तार मिला है. दशहरा के पावन अवसर पर पढ़ें इसके पौराणिक एवं आधुनिक आयामों पर एक नजर आज के विशेष पेज में…
बाजार और तकनीकी प्रभुत्व के दौर में दुर्गा पूजा का बदलता स्वरूप
अशोक भौमिक
प्रसिद्ध चित्रकार व लेखक
भारत के एक बड़े हिस्से में दुर्गा पूजा, दशहरा और नवरात्र एक महत्वपूर्ण पर्व के रूप में आते हैं. वर्षभर का यह समय शायद उत्सव के लिए सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि गर्मी-वर्षा के बाद और जाड़े के शुरू होने के बीच का यह गुलाबी समय उल्लास का आदर्श समय है.
कृषि प्रधान समाज में यह फसल कटाई के बाद का समय है, जबकि अंगरेजों के हमारे यहां आने के बहुत पहले से ही नवाबों-राजाओं-जमींदारों के यहां काम करनेवाले लोगों और छोटे-बड़े नौकरीजीवियों के लिए वेतन और पारिश्रमिक के अतिरिक्त ‘बख्शीश’, ‘त्योहारी’ और ‘बोनस’ मिलने का यह समय रहा है. इसलिए समाज के सभी तबकों के लोगों के लिए इस त्योहार का महत्व कई कारणों से दूसरे त्योहारों से थोड़ा भिन्न अवश्य है.
21वीं सदी में दुर्गा पूजा मनाने में न केवल व्यापक अंतर आया है, बल्कि इसमें होते निरंतर परिवर्तनों को भी हम महसूस कर पा रहे हैं. आज से पचास-साठ वर्षों पहले दुर्गा पूजा के ‘सर्वजनीन’ रूप का अर्थ था- किसी मोहल्ले विशेष के किसी सांस्कृतिक-सामाजिक संस्था द्वारा आम लोगों की मदद से आयोजित दुर्गोत्सव! ऐसे आयोजनों में बड़े-बूढ़ों से लेकर बच्चों की हिस्सेदारी होती थी और चार दिनों का यह उत्सव लोगों के बीच के अनूठे आत्मीय संबंधों को प्रगाढ़ बनाता था.
हालांकि, यह त्योहार मूलतः बंगालियों का था, पर बंगाल के बाहर देश-विदेश के अनगिनत शहरों में इसमें बंगालियों के साथ-साथ अन्य सभी हिस्सा लेते थे. इस प्रकार एक ओर कोलकाता शहर में होनेवाली दुर्गा पूजाओं का एक विशिष्ट स्वरूप था, तो दूसरी ओर व्यापक भिन्नता लिये कलकत्ता के बाहर देश-विदेश के अन्य प्रांतों की दुर्गा पूजाएं थीं. बावजूद तमाम भिन्नताओं के, दुर्गा पूजा सदियों से सर्वत्र समान रूप से एक धार्मिक उत्सव होने के साथ-साथ एक प्रमुख सांस्कृतिक उत्सव भी रहा है.
उत्सव पर बाजार का असर
दुर्गा पूजा से जुड़े ऐसे सशक्त और महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पहलू के कारण इस उत्सव ने अपने लाभ के लिए विभिन्न व्यावसायिक संस्थाओं को अपने उत्पादों के प्रचार-प्रसार के लिए आकर्षित किया और इनके द्वारा व्यापक प्रयोजन के चलते दुर्गा पूजा के स्वरूप में तमाम परिवर्तनों का सूत्रपात भी हुआ. सदियों से चले आ रहे ऐसे उत्सवों के साथ अभिन्न रूप से जुड़े जूते-चप्पल, वस्त्र-आभूषण और खान-पान जैसी सीमित बाजारू चीजों के अलावा तमाम नये उत्पादों के अभूतपूर्व प्रचार और विज्ञापन के लिए इस उत्सव को एक आदर्श अवसर के रूप में निरंतर विकसित किया जा रहा है.
पिछले दो दशकों से बाजार के इस बदलते चेहरे ने दुर्गा पूरा के समय विशेष रूप से अपने उत्पादों के नये और अभिनव तकनीकों का सहारा लिया. दुर्गा पूजा में देवी दुर्गा की मूर्ति और पूजा के पंडालों में बड़े-बड़े वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों का प्रायोजकों के रूप में सामने आने से व्यापक प्रयोग करना संभव हो सका, जो महज जनता से एकत्रित किये गये चंदे से संभव नहीं था. यह सच है कि ऐसे आर्थिक सहयोगों के चलते विभिन्न इलाकों में पूरा आयोजकों के बीच एक असहज प्रतिस्पर्धा का जन्म भी हुआ है.
आज दुर्गा मूर्ति और पूजा मंडपों के निर्माण में रचनात्मकता और सृजनशीलता की ऐसी कलात्मक कृतियां देखने को मिल रही हैं, जो समूचे विश्व में समकालीन कला में हो रहे ‘इंस्टॉलेशन आर्ट’ के तमाम प्रयोगों के समानांतर एक नये अर्थपूर्ण और उत्कृष्ट ‘जनकला’ या ‘पब्लिक आर्ट’ बनने की क्षमता रखते हैं.
विशेष रूप से कोलकाता महानगर की दुर्गापूजा के पंडालों के निर्माण में जिस प्रकार की अभिनव सृजनशीलता देखने को मिलती है, वह शायद अन्य किसी प्रांत या प्रदेश के किसी धार्मिक त्योहारों के मंडपों में अकल्पनीय है. इधर के वर्षों में प्रकाश सज्जा में लेजर और अन्य आधुनिकतम तकनीकों के प्रयोग से पूजा मंडपों का आकर्षण और भी बढ़ा है.
विविध संस्कृतियों और लोक कलाओं के मिश्रण से मूल स्वरूप में परिवर्तन
पूरी दुनिया में युगों से धार्मिक त्योहारों की विशेषता उसके मूल स्वरूप को बरकरार रखने में ही रही है, पर दुर्गा पूजा एक ऐसा उदाहरण है, जहां हम एक धार्मिक उत्सव को सांस्कृतिक उत्सव के रूप में विकसित होते पाते हैं.
दुर्गा पूजा के इस पहलू के चलते नयी-नयी तकनीकों के समावेश से नये-नये प्रयोगों के लिए रास्ता बनाया है. किसी भी समाज में प्रगतिशील संस्कृति रचनाकारों को नये-नये प्रयोग करने और रचने का साहस देती है, जिसका एक सार्थक रूप हम दुर्गा पूजा के पंडालों में देख पाते हैं. हमारे मूर्तिकार बड़ी सहजता से देवी दुर्गा की मूर्ति रचना में मिस्र के देवी-देवताओं से लेकर प्राचीन ग्रीक और बौद्ध मूर्तियों जैसे विविध प्रभावों को ला पाते हैं. उसी प्रकार मंडपों की साज-सज्जा में मधुबनी, वारली, पटचित्र और फड़ से लेकर अफ्रीकी, इंडोनेशियाइ या लैटिन-अमेरिकी आदि विभिन्न लोक कलाओं को आधार बनाते हुए पाते हैं. आज के संकीर्ण धार्मिक माहौल में यह न केवल एक साहसिक कदम है, बल्कि निश्चित तौर पर प्रगतिशील समझ का परिचायक भी है.
धार्मिक सीमा से परे उत्सव
बाजार द्वारा संचालित आज के युग में बाजार के तमाम अच्छे-बुरे प्रभावों के बावजूद दुर्गा पूजा ने निस्संदेह अपने एक उदार और सांस्कृतिक चरित्र को बनाया और निरंतर मजबूत भी किया है.
विगत कई दशकों से कई मायनों में यह उत्सव किसी धर्म विशेष के लोगों द्वारा मनाये जानेवाले किसी धार्मिक उत्सव की सीमा में बंधा नहीं रहा है, बल्कि सही अर्थों में यह एक संस्कृति और कला-उत्सव के रूप में विकसित हुआ है. कोई भी अन्य उत्सव, वर्ष के केवल चार दिनों की अवधि में इतने वैविध्यपूर्ण चाक्षुष अनुभवों के साथ रू-ब-रू होने का अवसर नहीं देता है. एक ऐसे समय में जब दिनों-दिन मनुष्य कला से दूर जा रहा हो, यह तथ्य अपनेआप में बेहद महत्वपूर्ण है.
आज भी कम-से-कम बंगाल के कई जिलों और कोलकाता के कई राज परिवारों में दुर्गा पूजा पारंपरिक ढंग से मनायी जाती है, जो अंततः कुछ परिवारों के अपने सामंती अतीत को जिंदा रखने की कोशिशों के अलावा कुछ भी नहीं है. फिर भी इन पूजाओं को देखने आम लोग जुटते ही हैं. इन पारिवारिक पूजाओं से हट कर इधर के दिनों में छोटे-बड़े आवासीय भवन-समूह या अपार्टमेंटों में स्वतंत्र दुर्गापूजाओं का चलन शुरू हुआ है, जो हमारी संकीर्ण महानगरीय मानसिकता की अनिवार्य परिणति है. पर इन सबसे हट कर दुर्गा पूजा मूल रूप से मोहल्लों और इलाकों के सर्वजनीन संगठनों द्वारा ही आयोजित होते हैं.
पिछले कुछ सालों से अब इन पूजाओं को हर वर्ष किसी-न-किसी सामाजिक विषय को केंद्र में रख कर आयोजित करने का चलन बढ़ा है. ‘समाज में महिलाओं की स्थिति’, ‘अनाथ बच्चे’, ‘प्राकृतिक आपदा’, जैसे तमाम अन्य प्रासंगिक और समकालीन विषयों को चुनने के साथ पूजा मंडपों में ‘रक्तदान शिविरों’, गरीबों के लिए ‘वस्त्र दान’ आदि शिविरों के आयोजनों से समाज में एक जरूरी चेतना के विस्तार की कोशिश भी दिखती है.
वास्तव में दुर्गा पूजा का समकालीन स्वरूप, धार्मिक उत्सवों की एकरसता, दकियानूसी ढब और पुनरावृत्ति के खिलाफ जनता की एक सामूहिक-सांस्कृतिक पहल है, जहां हर वर्ष हम सृजनशीलता की नयी-नयी रचनाओं से परिचित होते हैं. आज, जब समाज में विभाजनकारी शक्तियां हमें गुमराह करने की कोशिश कर रही हैं, तब दुर्गा पूजा जैसे धार्मिक त्योहार का सांस्कृतिक स्वरूप न केवल हमें आश्वस्त करता है, बल्कि अन्य उत्सवों को हमारे सामाजिक दायित्वों को निभाने के एक प्रभावी मंच में बदलने की प्रेरणा भी देता है.
अच्छाई की बुराई पर जीत का पर्व
शंभूनाथ शुक्ल
वरिष्ठ पत्रकार
दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है. पूरे देश में इसको मनाये जाने के पीछे यही भावना काम करती है. कहा जाता है कि राम ने रावण का वध दशहरा के दिन ही किया था. रावण चूंकि बुराई व अत्याचार का प्रतीक था और राम ने न्याय की लड़ाई लड़ी तथा उस पर जीत हासिल की, उसको स्मरण करते हुए यह त्योहार मनाया जाता है. हालांकि, देश के अलग-अलग हिस्सों में इसको मनाये जाने के पीछे की कथाएं अलग-अलग हैं. मसलन, कर्नाटक में मैसूर का दशहरा बहुत मशहूर है. मैसूर के वाडियार नरेशों की कुलदेवी चामुंडा रही हैं और माना जाता है कि देवी ने इसी दिन असुरों के राजा महिषासुर का वध किया था.
कथा कुछ भी रही हो पर मूल में यही है कि यह बुराई की हार और अच्छाई की जीत को याद करने का त्योहार है. देश के मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य में इसे मनाये जाने का औचित्य और भी अधिक है. खासकर राजनीति में जब से आपराधिक तत्वों को प्रवेश मिलने लगी है, यह एक तरह से अपराध, भ्रष्टाचार तथा कदाचार की त्रिवेणी बन गयी है. ऐसे वक्त में इस पर्व को मना कर हम कहीं-न-कहीं अपनेआप में आत्मतुष्ट तो हो ही जाते हैं कि एक-न-एक दिन हम स्वच्छ राजनीति के प्रणेता बनेंगे.
राम ने रावण का वध किया था. रावण समस्त अस्त्र व शस्त्रों से सुसज्जित ही नहीं था, बल्कि उसकी सेना भी चतुरंगिणी थी. वह रथ पर आरुढ़ रहता और उसके पास निज सुरक्षा के तमाम आयुध व लोग थे.
उधर राम के पास सिवाय सत्य के और कुछ नहीं था. उनकी सेना बंदरों-भालुओं की थी और वह भी सारे आयुधों से हीन, मगर सत्य ने उनके अंदर निष्ठा और आत्मबल भरा हुआ था. इसीलिए राम जीतते हैं. गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है- ‘रावण रथी विरथ रघुबीरा, देखि विभीषण भयो अधीरा.’ यानी रावण तो रथ पर सवार था, लेकिन रामचंद्रजी पैदल थे. यह देख कर विभीषण बेचैन हो गया कि भला रामचंद्रजी यह युद्ध कैसे जीतेंगे. लेकिन, सत्य राम की तरफ था और युद्ध राम ही जीते, रावण की पराजय हुई. इसलिए दशहरा यह याद दिलाता है कि जीत सत्य की होती है, असत्य चाहे कितना ही ताकतवर क्यों न दिखे.
उत्तर, दक्षिण और पूर्वी भारत में मान्यता का फर्क
उत्तर भारत में दशहरा राम की जीत को बताता है, पर दक्षिण तथा पूर्वी भारत में शाक्त मत के अनुयायी और देवी भक्त इसे देवी दुर्गा की महिषासुर पर जीत का उत्सव बताते हैं. उनके मुताबिक सुर-असुर संग्राम में महिषासुर को मारने के लिए दस हाथोंवाली कन्या ही देवी दुर्गा हैं. उन्होंने महिषासुर को पराजित किया और उनकी जीत की खुशी में यह पर्व मनाया जाता है. लेकिन, यहां एक और बात है कि अगर ऐसा है, तो इसे नवरात्रि में ही मनाया जाना चाहिए, इसके लिए अगले रोज का इंतजार क्यों किया जाता है?
इसे मनाने के पीछे एक और मत है कि विजयादशमी के दिन ही पांडवों ने शस्त्र पूजा की थी. वे दुर्योधन की शर्त के कारण बारह वर्ष के वनवास पर रहे और एक साल अज्ञातवास पर. इस अज्ञातवास की अवधि में उन्होंने अपने शस्त्र विराट नगर के आसपास एक शमी के वृक्ष के तने में छुपा दिये थे. जब विराट पर आक्रमण हुआ, तो वहां के युवराज को लेकर स्वयं वृहन्नला बने अर्जुन रथ चलाते हुए उसी शमी वृक्ष के नीचे आये और अपने गांडीव तथा अन्य हथियारों को निकाल कर पूजा की. इसके बाद पांचों पांडु पुत्रों ने विराट नगर पर हमला करनेवाले आक्रमणकारियों को मार भगाया. इसी जीत के उपलक्ष्य में विजयादशमी पर्व मनाया जाता है और शस्त्रपूजा होती है.
कुल मिला कर दशहरा मनाया तो हर जगह जाता है, लेकिन उसके मनाने का मंतव्य अलग-अलग होता है. कहीं देवी चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर की जीत के उपलक्ष्य में, तो कहीं पांडवों की शस्त्र पूजा के रूप में, तो कहीं राम द्वारा रावण विजय के प्रतीक स्वरूप. हां, देश में हर जगह दशहरा पूरे उत्साह और तन्मयता के साथ मनाया जाता है.
खेती और खरीदारी से भी जुड़ा है उत्सव
भारत भौगोलिक रूप से ऊष्ण कटिबंधीय इलाका है और खरीफ तथा रबी की फसलें ही यहां की मुख्य उपज हैं. इसलिए दोनों ही फसलों की उपज जब घर पर आती है, तब किसान अपनी संपदा देख कर गदगद हो जाता है. उसी उपज को बाजार में लाने और खरीदारी का उत्सव है यह नवरात्रि.
चाहे वह शारदीय नवरात्रि हो या ग्रीष्म की. शारदीय नवरात्रि के अगले रोज राम के पूजक इस उत्सव को राम की रावण पर विजय के उपलक्ष्य में मनाते हैं, तो देवी के भक्त महिषासुर मर्दिनी के रूप में. चूंकि भारत का अधिकांश इलाका धान की उपज लेता है और धान आश्विन मास में घर आता है, इसलिए शारदीय नवरात्रि को खूब जोर-शोर से मनाने की परंपरा है. अंगरेजों के समय में भी इस नवरात्रि को धूमधाम से मनाने की परंपरा रही है और ऐसा शायद इसलिए भी हुआ होगा, क्योंकि अंगरेजों ने इस्ट इंडिया कंपनी के दिनों से ही अपना मुख्यालय कलकत्ता को बनाया था, जहां शारदीय नवरात्रि मनाने की प्राचीन परंपरा रही है.
सुल्तानी काल से ही बंगाल सूबे में शारदीय नवरात्रि को एक किसान उत्सव के रूप में मनाया जाता रहा है. इसलिए बंगाल के पूरे इलाके में, जिसमें बिहार का भी एक बड़ा इलाका शामिल है, शारदीय नवरात्रि को धूमधाम से मनाया जाता है. नवरात्रि के अगले रोज यानी दशमी के दिन देवी दुर्गा की प्रतिमाएं ढोल-ताशे के साथ विसर्जित की जाती हैं, यानी यहां दशहरा के दिन देवी का विसर्जन होता है. मजे की बात यह भी है कि बिहार के उस हिस्से में, जो अवध सल्तनत के अधीन रहा था, दशहरा के दिन रावण का पुतला फूंका जाता है, क्योंकि अवध के इलाके में देवी का महत्व उतना नहीं रहा, जितना कि राम परंपरा को माननेवालों का. देवी वहां राम की आराध्य शक्ति कुल देवी ही रहीं और इस पूरे इलाके में दशहरा के दिन रावण फूंकने की परंपरा रही.
प्रारूप पृथक-पृथक, लेकिन संदेश समान
मोटे तौर पर दशहरा पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है, भले ही इसके रूप अलग-अलग हों. इसका मुख्य सार संदेश यही है कि बुराई पर अच्छाई की जीत ही दशहरा मनाने का मुख्य मकसद है. चाहे उसे राम की रावण पर विजय का प्रतीक बताया जाये अथवा देवी दुर्गा की महिषासुर पर विजय का.
इस सबके पीछे कहीं-न-कहीं बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतीक के तौर पर इसे मनाने की परंपरा बनी ही रही. विजयादशमी पर शस्त्रपूजा और उसी दिन निर्णय लेकर शत्रुओं पर टूट पड़ने की परंपरा रही है. कहा जाता है कि शिवाजी ने औरंगजेब पर हमला इसी विजयादशमी के दिन ही किया था. इसीलिए कहा जाता है कि विजयादशमी में शुभ नक्षत्रों का योग विजय अवश्य दिलाता है.
आश्विनस्य सिते पक्षे दशम्यां तारकोदये।
स कालो विजयो ज्ञेयः सर्वकार्यार्थसिद्धये॥
मम क्षेमारोग्यादिसिद्ध्यर्थं यात्रायां विजयसिद्ध्यर्थं।
गणपति मातृकामार्गदेवता पराजिता शमीपूजनानि करिष्ये॥
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थों धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
उत्तर भारत में नवरात्रि के पहले दिन से ही रामलीला शुरू हो जाती है, जिसमें राम जन्म से लेकर रावण मरण तक का मंचन किया जाता है और अंतिम दिन पूरे जोशोखरोश के साथ रावण का पुतला फूंका जाता है. माना जाता है कि इस तरह हमने बुराई को समाज से विदा कर दिया.
अंदर की आसुरी शक्ति के नष्ट होने की आकांक्षा
दशहरा दरअसल भक्ति और समर्पण का त्योहार है. भक्त भक्ति-भाव से दुर्गा माता की आराधना करते हैं. नवरात्र में दुर्गा के नौ विभिन्न रूपों की पूजा होती है. दुर्गा ही आवश्यकता के अनुसार काली, शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, कुष्मांडा आदि विभिन्न रूप धारण करती हैं और आसुरी शक्तियों का संहार करती हैं. वे आदि शक्ति हैं. वे ही शिव पत्नी पार्वती हैं.
संसार उन्हें पूज कर अपने अंदर की आसुरी शक्ति के नष्ट होने की आकांक्षा रखता है. दुर्गा रूप जय यश देती हैं तथा द्वेष समाप्त करती हैं. वे मनुष्य को धन-धान्य से संपन्न कर देती हैं. बुराई पर अच्छाई की विजय के इस त्योहार को धूमधाम के साथ मनाया ही जाना चाहिए. समाज में जितनी भी आसुरी शक्तियां हैं, उनका विनाश हो और सुख-संपत्ति व धन-धान्य फले-फूले इसी का प्रतीक है दशहरा और इसे इसी रूप में मनाया जाना चाहिए.
किस विजय का प्रतीक है विजयादशमी?
सद्गुरु जग्गी वासुदेव
दशहरा या विजयादशमी नवरात्रि के बाद आता है. इस दशमी को विजय दशमी क्यों कहते हैं? किस विजय का प्रतीक है यह?
नवरात्रि और दशहरा ऐसे सांस्कृतिक उत्सव हैं, जो सभी के लिए महत्वपूर्ण और अहम हैं. यह उत्सव चैतन्य के देवी स्वरूप को पूरी तरह से समर्पित है. बंगाल में दशहरा दुर्गा से जुड़ा है तो कर्नाटक में चामुंडी से. इस तरह से अलग-अलग जगहों पर यह अलग-अलग देवियों से जुड़ा है, लेकिन मुख्य रूप से स्त्रीत्व या देवी के बारे में ही है.
नवरात्रि के नौ दिन
नवरात्रि, बुराई और ऊधमी प्रकृति पर विजय पाने के प्रतीकों से भरपूर है. इस त्योहार के दिन जीवन के सभी पहलुओं के प्रति, जीवन में इस्तेमाल की जानेवाली वस्तुओं के प्रति अहोभाव प्रकट किया जाता है. नवरात्रि के नौ दिन तमस, रजस और सत्व के गुणों से जुड़े हैं. पहले तीन दिन तमस के होते हैं, जहां देवी रौद्र रूप में होती हैं- जैसे दुर्गा या काली. उसके बाद के तीन दिन लक्ष्मी को समर्पित हैं- ये देवी सौम्य हैं, पर भौतिक जगत से संबंधित हैं.
आखिरी तीन दिन सरस्वती देवी यानी सत्व से जुड़े हैं, ये ज्ञान और बोध से संबंधित हैं. इन तीनों में अपना जीवन समर्पित करने से आपके जीवन को एक नया रूप मिलता है. अगर आप तमस में अपना जीवन लगाते हैं, तो आपके जीवन को एक तरह की शक्ति आयेगी. अगर आप रजस में अपना जीवन लगायेंगे, तो आप किसी अन्य तरीके से शक्तिशाली होंगे. और अगर आप सत्व में अपना जीवन लगायेंगे, तो एक बिल्कुल अलग तरीके से शक्तिशाली बन जायेंगे. लेकिन यदि आप इन सबसे परे चले जाएं, तो फिर यह शक्तिशाली बनने की बात नहीं होगी, फिर आप मुक्ति की ओर चले जायेंगे.
उत्सव का दसवां दिन
नवरात्रि के बाद दसवां और अंतिम दिन विजयादशमी या दशहरा का होता है- इसका मतलब है कि आपने इन तीनों पर विजय पा ली है. आपने इनमें से किसी के भी आगे घुटने नहीं टेके, आपने हर गुण के आर-पार देखा. आपने हर गुण में भागीदारी निभायी, पर आपने अपना जीवन किसी गुण को समर्पित नहीं किया. आपने सभी गुणों को जीत लिया. ये ही विजयदशमी है- विजय का दिन. इसका संदेश यह है कि जीवन की हर महत्वपूर्ण वस्तु के प्रति अहोभाव और कृतज्ञता का भाव रखने से कामयाबी और विजय प्राप्त होती है.
भक्ति और अहोभाव
हम अपने जीवन को सफल बनाने के लिए बहुत से उपकरणों को काम में लाते हैं. जिन उपकरणों से हम अपना जीवन रचते हैं, उनमें सबसे महत्वपूर्ण हमारा अपना शरीर और मन है. जिस धरती पर हम चलते हैं, जिस हवा में सांस लेते हैं, जो पानी हम पीते हैं और जो खाना खाते हैं, इन सभी वस्तुओं के प्रति अहोभाव रखने से हमारे जीवन में एक नयी संभावना पैदा हो सकती है.
इन सभी पहलुओं के प्रति अहोभाव और भक्ति रखने से हमें अपने सभी प्रयत्नों में सफलता मिलेगी. इस तरह से नवरात्रि के नौ दिनों के प्रति या जीवन के हर पहलू के प्रति एक उत्सव और उमंग का नजरिया रखना और उसे उत्सव की तरह मनाना सबसे महत्वपूर्ण है. अगर आप जीवन में हर चीज को एक उत्सव के रूप में लेंगे, तो आप बिना गंभीर हुए जीवन में पूरी तरह शामिल होना सीख जायेंगे.
दरअसल, ज्यादातर लोगों के साथ दिक्कत यह होती है कि जिस चीज को वे बहुत महत्वपूर्ण समझते हैं, उसे लेकर हद से ज्यादा गंभीर हो जाते हैं. अगर उन्हें लगे कि वह चीज महत्वपूर्ण नहीं है, तो फिर उसके प्रति बिल्कुल लापरवाह हो जायेंगे- उसमें जरूरी भागीदारी भी नहीं दिखायेंगे.
जीवन का रहस्य यही है कि हर चीज को बिना गंभीरता के देखा जाये, लेकिन उसमें पूरी तरह से भाग लिया जाये-बिल्कुल एक खेल की तरह.
उल्लास से भरपूर त्योहार भारतीय परंपरा में दशहरा हमेशा उल्लास से भरपूर त्योहार रहा है, जहां समाज के सभी लोग एक साथ मिल कर नाचते और घुल-मिल जाते हैं. लेकिन, पिछले दो सौ सालों के बाहरी आक्रमणों और बाहरी प्रभावों की वजह से यह परंपरा अब खो गयी है. वरना दशहरा हमेशा से ही उल्लास से भरा रहा है. बहुत सी जगहों में यह अब भी उल्लास से भरपूर है, पर अन्य जगहों पर यह परंपरा खो रही है.
हमें इसे फिर से स्थापित करना होगा. विजयदशमी या दशहरा इस देश में सभी के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है, चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग या धर्म का हो और इसे उल्लास और प्रेम के साथ मनाया जाना चाहिए. ये मेरी इच्छा और आशीर्वाद है कि आप दशहरा पूरी भागीदारी, आनंद और प्रेम के साथ मनाएं.