-निर्भीक-निष्पक्ष प्रशासन खोजना होगा-
।। रवि दत्त बाजपेयी।।
2014 के आम चुनाव की तैयारी शुरू हो गयी है, हर चुनाव के पहले इस बार भी सारा ध्यान इस बात पर है कि की क्या भारत का भविष्य अगले आम चुनाव ही तय करेंगे, जबकि मूल प्रश्न है कि क्या भारत की वर्तमान समस्याएं 2019 (या उससे पहले) के चुनावों और अधिक विकराल रूप में उपस्थित रहेंगी. यदि इनका सामयिक व समुचित हल नहीं ढूंढ़ा गया, तो ये दावानल की तरह अनियंत्रित हो जायेंगी. यदि भारत की चुनौतियों में अन्य देश अवसर देख रहे हैं, तो अवश्य ही भारत भी उन चुनौतियों में अवसर तलाश सकता है और उनके समाधान भी ढूंढ़ सकता है. आज पढ़िए, पहली कड़ी.
क्या कुशल शासन व्यवस्था का अभाव ही भारत की समस्याओं की जड़ में है या समस्याओं की भयावहता ने भारत की समूची शासन व्यवस्था को ही जड़ कर दिया है? भारत का प्रशासन तंत्र जिस राह पर और जिस रफ्तार से चल रहा है, उससे यह तय है कि अगले कुछ वर्षो में भारत में प्रशासनिक व्यवस्था एक विलुप्त अवधारणा मान ली जायेगी. भारत में गवर्नेस (शासन व्यवस्था) को सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी माना जाता है, किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है, जब आम जनता न तो प्रशासन व्यवस्था में अपनी भागीदारी देखती है, न इसके सुधार में अपनी जिम्मेदारी समझती है. जब आम जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग सरकार बनाने में अपनी सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी, मतदान में ही हिस्सा नहीं लेता है, तो फिर इन लोगों को गवर्नेस से कोई शिकायत कैसे हो सकती है, ‘यू गेट द गवर्नमेंट यू डिजर्व’, जनता जिस लायक होती है, वैसी ही सरकार आती है. जितने गैरजिम्मेदार लोग होंगे, सरकार भी उतनी ही आलसी और गैरजिम्मेदार होगी. सत्ता के विकेंद्रीकरण के नाम पर भारत में सरकारी तंत्र (गवर्नमेंट) का आकार जितनी तेजी से बढ़ा है, सुचारु प्रशासन का लोप उससे अधिक तेजी से हुआ है. केंद्रीय व राज्य सरकार के आम बजट का एक बड़ा भाग सरकारी तंत्र को चलाने के लिए ही खर्च किया जाता है, लेकिन इतने अधिक अपव्यय के नतीजे में नियम-कानून की व्यवस्था बिल्कुल समाप्त हो चुकी है और अधिकतर सरकारी सेवाएं एकदम व्यर्थ हो गयी हैं.
भारतीय मतदाताओं को इतने सारे टुकड़ों में बांटा जा सकता है कि अधिकतर राजनीतिक दल और उनके नेता, अपने धर्म, जाति, वर्ग के राजनीतिक मालगुजार बन गये हैं. हर चुनाव में इन नेताओं का काम अपने वर्ग से वोटों के रूप में मालगुजारी वसूलना है. अपने नेताओं की भांति ही भारत का मतदाता अब जब चुनावी राजनीति में गोलबंदी करके केवल अपने अल्पकालिक हित साधने के माध्यम ढूंढ़ रहा है, राजनीतिक नेता सिर्फ इन गोलबंदियों को मजबूत करने के लिए अपनी सारी ऊर्जा लगाते हैं.भारत का वर्तमान राजनीतिक वर्ग, समाज और राष्ट्र निर्माण के दीर्घकालीन या दूरगामी कार्यक्र म के बारे में विचार करने के लिए पूरी तरह से अक्षम है.
इनका सारा ध्यान केवल अपने घर, परिवार, कुटुंब के लिए अधिक से अधिक लाभ बटोरना रह गया है. दुर्भाग्यवश राजनीतिक वर्ग का यह मर्ज प्रशासनिक वर्ग और अन्य सभी संस्थाओं में बहुत गहरे तक पैठ गया है. सितंबर, 2013 में वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम ने वैश्विक प्रतियोगी सूचकांक जारी किया. इस सूची में व्यापार करने के लिए उपयुक्त देशों को एक क्र म में दिखाया गया है. 148 देशों की सूची में भारत 60वें स्थान पर है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों में भारत विश्व की 10वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. अनेक लोग भारत को विश्व की आर्थिक महाशक्ति मानते हैं, लेकिन व्यापार करने के लिए अनिवार्य बुनियादी जरूरतों जैसी मजबूत संस्थाएं, आधारभूत सुविधाएं (इन्फ्रास्ट्रक्चर), आर्थिक नीति, स्वास्थ्य एवं प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में भारत 96वें स्थान पर है. इसके अलावा आम जनता का राजनेताओं पर विश्वास के मानकों में भारत 115वें और घूस देने के मामले में 110वें स्थान पर है. नव उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के इन मानकों में भी भारत सरकार की खस्ता प्रशासनिक व्यवस्था का एक प्रमाण है. 2009 में इसी सूची में भारत 49वें स्थान पर था. तब से आज तक भारत सभी पैमानों पर लगातार पिछड़ता रहा है. यह एक निर्विवाद तथ्य है कि भारत के आर्थिक सुधारों के बाद से राजनीतिक-प्रशासनिक-न्यायिक तीनों ही अंगों में भ्रष्टाचार तेजी से बढ़ा है. चुनाव जीतने के लिए नेता, मनपसंद नियुक्ति पाने के लिए अधिकारी और न्यायपालिका को कठपुतली बनाने को तत्पर कानूनविद्, सारी संस्थाओं को बाजार में नीलामी का सामान बना चुके हैं. नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में तत्काल अमीर बनने की होड़ ने भारत के व्यक्तिगत-सामाजिक-सांस्थानिक आचरण को पूरी तरह से विकृत कर दिया है और इस प्रवृत्ति ने समूचे प्रशासन तंत्र को निजी हितों व कॉरपोरेट की जागीर बना दिया है.
नव उदारवाद के दायरे से बाहर, भारत ने अपनी जन्मजात समाजवादी आर्थिक नीतियों को दशकों पहले भुला दिया, जिसके बाद से आम आदमी के नाम पर कुछ बहुप्रचारित जन कल्याणकारी (लोक-लुभावन) योजनाओं का ढिंढोरा पीटा जाता है. मनरेगा कानून बनाने के लिए इसके प्रस्तावकों को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा और बहुत कठिनाइयों के बाद इसे केवल ग्रामीण क्षेत्रों में लागू किया गया. इस कानून को शहरी क्षेत्रों में भी लागू करने का प्रस्ताव था, लेकिन बाद में संसाधनों के अभाव के नाम पर निरस्त कर दिया गया. मनरेगा की उपयोगिता के बावजूद इसमें व्याप्त असीमित अपव्यय और भ्रष्टाचार से इनकार करना असंभव है. मनरेगा ही नहीं, सरकार की लगभग हर कल्याणकारी नीति का मुख्य लाभार्थी, सिर्फ बिचौलियों का समूह है. शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार जैसे कानूनों के बाद स्वास्थ्य का अधिकार जैसे कानून भी बनाये जा सकते हैं, लेकिन जब सरकार वास्तव में काम करनेवाले स्कूल, कॉलेज, अस्पताल बनाने की जगह उनसे मिलनेवाली सुविधाओं की गारंटी के कानून बनाने लगे, तो ऐसे कानून बिल्कुल निर्थक होंगे.
भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था आज भी अपने ब्रिटिश औपनिवेशिक ढांचे से बाहर नहीं निकल पायी है, 21वीं सदी के भारत में 19वीं सदी का प्रशासनिक ढांचा चल रहा है. अब भारतीय संपत्ति की नीलामी या जब्ती, ईस्ट इंडिया कंपनी या ब्रिटिश साम्राज्य के स्थान पर निजी कंपनियों को भेंट करने हेतु हो रही है. भरसक ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की आबादी इतनी बड़ी नहीं थी और आम भारतीयों में ईमानदार लोगों का प्रतिशत अधिक था, जो थोड़े-से अधिकारियों से कानून-व्यवस्था स्थापित रही. आज भ्रष्ट व बिकाऊ प्रशासन तंत्र के चलते कानून-व्यवस्था को भी बिकाऊ सामान माना जाता है. नये भारत के नव धनाढय़ और उद्दंड खरीदारों की तादाद बहुत ज्यादा है. जब निर्भीक-निष्पक्ष प्रशासन कड़ाई से कानून लागू करे, तो व्यवस्था अपने आप स्थापित हो जाती है. ऐसा निर्भीक-निष्पक्ष प्रशासन खोजना और उसे लंबे समय तक बनाये रखना वर्तमान भारत की सबसे बड़ी चुनौती है.