नेपाल में आधी सदी के लोकतांत्रिक प्रशासन में भी जब हाशिए पर रहे बहुसंख्यक लोग ग़रीबी से बाहर नहीं आ सके तो नेपाल में माओवादी क्रांति ने सिर उठाया.
दशक भर की क्रांति में 17000 से ज़्यादा लोगों ने जान गंवाई और नेपाल बदहाली की कगार पर पहुंच गया. आखिरकार नेपाल की सरकार झुकी और माओवादी सत्ता में आए. उस हथियारबंद क्रांति के नायक थे प्रचंड.
नेपाल में वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक चंद्रकिशोर याद करते हैं, "नेपाल के संदर्भ में प्रचंड परिवर्तन के एक प्रतीक बन गए थे. लोगों ने मान लिया था कि नेपाली समाज और नेपाली राष्ट्र को दोबारा स्थापित करने के लिए उन्हीं के माध्यम से बदलाव आएगा. जो लोग उनके हिंसक आंदोलन में यकीन नहीं रखते थे वो भी मानते थे कि नेपाल में परिवर्तन वही ला सकते हैं."
वो साल था 2006, जब भारत और अंतरराष्ट्रीय ताकतों के दबाव में शांति समझौता हुआ जिसके नतीजे में माओवादी हथियार छोड़ने के लिए राज़ी हुए और राजा ज्ञानेंद्र एकछत्र राज छोड़ने के लिए तैयार हुए. अस्थायी संविधान के सहारे नेपाल में सत्ता की चाबी माओवादियों के हाथ में पहुंच गई और देश को प्रचंड के रूप में एक नया प्रधानमंत्री मिला. बहुत से लोगों को तब पता चला कि प्रचंड का असली नाम है पुष्प कमल दहल. प्रधानमंत्री बनने के साथ उनका प्रचलित नाम तो बदला लेकिन उनके तेवर विद्रोहियों वाले ही थे.
नेपाल की राजनीतिक के जानकार चंद्रकिशोर कहते हैं, "नेपाल में वामपंथी राजनीति हमेशा से भारत विरोध की राजनीति रही है. पहली बार जब वो प्रधानमंत्री बने तो उनमें भी वही मनोस्थिति थी. जिस भारत के सहयोग से 12 सूत्री समझौता हुआ और इसी की वजह से नेपाल में शांति समझौता हुआ. इसके बाद नेपाल में बहुत बड़ा बदलाव आया. भारत जाने पर उन्होंने बातें तो बड़ी अच्छी कीं, लेकिन वापस आने के बाद जो कदम उठाए उससे लोगों में आशंका मज़बूत होने लगी कि कहीं वामपंथी वैधानिक तरीके से देश पर कब्ज़ा करने की फिराक में तो नहीं."
जोश के साथ सत्ता में आए प्रचंड ने भारत की बजाय चीन से नज़दीकी बढ़ाने की कोशिश की. प्रधानमंत्री के रूप में पहली यात्रा पर वो चीन गए, उनके शासन में चीन की दखलंदाज़ी इतनी बढ़ गई कि भारत के लिए सहन करना मुश्किल होता गया.
लुंबिनी के विकास के लिए चीन समर्थित संगठन से अरबों डॉलर का करार, चीन से लुंबिनी तक के लिए रेलमार्ग की खुली वकालत और भारत के साथ विवादित मुद्दों पर मुखर बयानों ने उन्हें भारत के लिए असहनीय कर दिया.
इस बीच देश में सेना प्रमुख को हटाने की कोशिश, माओवादियों के पुनर्वास और कोसी में बाढ़ से जूझते नेपाल को छोड़ विदेश जाने की घटनाओं ने उन्हें नेपाल में भी अप्रिय बना दिया. नतीजा आठ महीने बाद ही उन्हें सत्ता छोड़नी पड़ी. सत्ता में रहने के दौरान उन पर शाही जीवनशैली को अपनाने के आरोप भी लगे.
स्वरूप वर्मा नेपाल के जानकार हैं और वहां के माओवादी आंदोलन पर किताब भी लिख चुके हैं.
वो बताते हैं, "दक्षिण एशिया के इतिहास में कोई ऐसा प्रधानमंत्री बना था जो घोषित रूप से खुद को माओवादी कहता था और जिसकी पार्टी ने सशस्त्र संघर्ष करके राजतंत्र को खत्म किया हो. ये उन तमाम ताकतों के लिए जो कम्युनिस्ट विरोधी हैं या पूंजीवाद समर्थक हैं खतरा था. तो इस पार्टी को ध्वस्थ करने के लिए उनके नेतृत्व पर हमले किए जा रहे थे. लेकिन जो आरोप लगाए जा रहे थे दुर्भाग्यवश वो धीरे धीरे सच होने लगे. इसके बाद ये धारणा बन गई कि प्रचंड की जीवनशैली, उनकी सोच बदल गई. आज जो कुछ हो रहा है ये उसी का नतीजा है.’
प्रचंड की क्रांति पर सवार हो कर नेपाल ने जिस बदलाव की उम्मीद की थी वो तो नहीं मिली, उल्टे राजनीतिक अस्थिरता अपने चरम पर पहुंच गई. एक के बाद एक, प्रधानमंत्री बदलते गए लेकिन देश को ना तो सर्वमान्य संविधान मिला ना सरकार. आखिरी चुनाव के बाद संसद में पहुंचे राजनीतिक दलों ने कड़ी मशक्कत के बाद जिस संविधान को बनाने में कामयाबी पाई, उसका विरोध इतना प्रबल हुआ कि कई महीनों तक मधेशियों ने भारत से नेपाल की सप्लाई लाइन रोक दी.
संविधान लागू होने के बाद जब इसका विरोध शुरू हुआ तब प्रचंड ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में कहा, "नेपाली जनता के बहुत लंबे संघर्ष और बलिदान के बाद, नेपाल की पार्टियों, नेताओं और जनता की काफी मेहनत के बाद संविधान सभा से ये संविधान आया है. हमें उम्मीद थी कि भारत भी इस पर गर्व करेगा लेकिन दुर्भाग्य से कहना पड़ रहा है कि भारत को कुछ चिंता है और वो स्पष्ट स्वर में इसकी तारीफ नहीं कर पा रहा है. इससे हमें कुछ तो दुख जरूर हुआ है."
प्रचंड की बातों इतनी नर्म आवाज़ में शायद तब पहली बार सुनाई दी थीं लेकिन ये बदलाव सिर्फ बातचीत के लहज़े में ही नहीं उनके मिज़ाज में भी नज़र आने लगा. जल्दी ही मौजूदा प्रधानमंत्री केपी ओली को हटाया गया और नए राजनीतिक समीकरणों में प्रचंड के लिए एक बार फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने का रास्ता साफ हुआ. कई लोगों का मानना है कि मधेशी आंदोलन से लेकर प्रचंड की ताजपोशी तक में भारत की भी भूमिका है.
आनंद स्वरूप वर्मा कहते हैं, "केपी ओली और भारत सरकार में बहुत तनाव बढ़ गया था, जिस पृष्ठभूमि में प्रचंड प्रधानमंत्री बने हैं उससे संदेह पैदा होता है. मौजूदा परिस्थिति में प्रचंड बहुत अहम हो गए थे. इसलिए भारत किसी भी तरह उन्हें अपने साथ लाना चाहता था. जिस दिन प्रचंड प्रधानमंत्री बने हैं उस दिन के भारतीय अख़बारों में नेताओँ की प्रतिक्रिया देखिए. उससे आभास होता है कि भारत को अपनी जीत का अहसास हो गया. प्रचंड के कंधे पर भारत का हाथ होने के आरोपों को तब और हवा मिलने लगी जब प्रधानमंत्री बनने के पहले ही उनके सुर बदल गए. भारत के साथ अच्छे रिश्तों की वकालत, प्रधानमंत्री बनने पर अपने गृहमंत्री को भेज कर पहली यात्रा की तैयारी और अब तो उन्होंने यहां तक कह दिया कि उनमें और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में बहुत समानता है.
काठमांडू में वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक सीके लाल मानते हैं कि अब वो सच्चाई के धरातल पर उतर आए हैं, "एक तो उम्र का असर दूसरे पहली बार उन्हें लगता था कि नेपाल की राजनीति का इस्तेमाल कर नेपाल में वामपंथी क्रांति की जा सकती है. जैसे जैसे समय बीता उन्हें वास्तविकता का अहसास हुआ. इसके अलावा देश के गरीब युवा काम की तलाश में देश से बाहर जाते हैं, ऐसे में उन पर क्रांति के लिए उतना दबाव नहीं है. कुल मिलाकर सारांश ये है कि अब वो क्रांति के आसमान से वास्तविता की सख्त ज़मीन पर उतर आए हैं और उन्हें पता है कि जो करना है यहीं करना है.”
इधर भारत प्रचंड के बदले तेवरों से खुश तो है लेकिन इसमें अपनी कोई भूमिका होने से इनकार करता है. भारत के राजनयिक ये भी कह रहे है कि प्रचंड क्या कहते हैं इससे ज़्यादा अहमियत इस बात की है कि वापस नेपाल जा कर वो क्या करते हैं.
नेपाल में भारत के पूर्व राजदूत शिवशंकर मुखर्जी का कहना है, "केपी ओली का प्रचंड के साथ करार था कि वो बजट के बाद प्रधानमंत्री पद से हट जाएंगे और प्रचंड प्रधानमंत्री बनेंगे लेकिन ओली उससे मुकर गए. इसके बाद प्रचंड ने दूसरा गठबंधन बनाया. इसमें ये अंदाज़ा लगाना कि भारत ने ऐसा वैसा कर दिया ग़लत है. मीठी बोली तो कोई भी बोल सकता है लेकिन अंतरराष्ट्रीय संबंधों में इसकी बहुत अहमियत नहीं. हमें तो ये देखना है कि वो करते क्या हैं."
प्रचंड में जो बदलाव दिखा है वो सिर्फ भारत के प्रति रुख में ही नहीं है. जानकारों का कहना है कि अब तक नेपाल के बहुसंख्यक गरीब तबके के हक़ की लड़ाई लड़ने वाले प्रचंड अब राजनीति की उस राह पर चल पड़े हैं जहां समझौते और सौदेबाज़ी है, कारोबारियों के हित हैं और बयानबाज़ी है.
आनंद स्वरूप वर्मा तो साफ साफ कहते हैं, "जो कुछ हो रहा है वो जनता के हित में नहीं है. जैसे भारत में पूंजिपतियों के हितों का ख्याल रखा जा रहा है उसी तरह नेपाल में भी जो हो रहा है वो भी वहां के अमीरों के लिए हैं. ऐसा मुझे लगता है. जिन लक्ष्यों को लेकर सशस्त्र संघर्ष हुआ वो कहीं पीछे चले गए हैं. जिनसे लगता था कि दक्षिण एशिया में नई रोशनी आएगी वो ऐसी राजनीति में जुटे हैं."
तीन साल पहले चीन के नए नेतृत्व से मिलने के बाद प्रचंड जब भारत आए थे तो उन्होंने कहा था कि अपनी सामरिक स्थिति के कारण नेपाल चीन और भारत के बीच में कम से कम पुल की भूमिका तो निभा ही सकता है.
प्रचंड से पुष्प कमल दहल तक के सफर में वो अपने ही लोगों के निशाने पर आ गये हैं.