सोलह साल के मोहम्मद शफ़ीक़ सिद्दिक़ी घर आए और देखा कि उनका बिस्तर सड़क पर फेंका हुआ है, तो उन्हें समझ में आ गया कि अब वक़्त आ चुका है.
67 साल के सिद्दिक़ी पार्ट टाइम उर्दू पढ़ाया करते हैं. वो याद करते हैं, "मेरे परिवार ने मुझे नहीं अपनाया और गांव वाले भी मुझे गांव में नहीं देखना चाहते थे. इससे मुझे तकलीफ़ हुई, इसलिए मैंने गांव छोड़ दिया.”
सिद्दिक़ी उस वक़्त एक नौजवान थे, लेकिन उनका गुनाह ‘माफ़ी के लायक़’ नहीं था. उन्हें कुष्ठ हो गया था.
अपने समुदाय से बाहर निकाले जाने के बाद, अब वो ताहिरपुर में कंक्रीट की बनी एक कुटिया में रहते हैं. यह उत्तरी दिल्ली के बाहरी इलाक़े में सरकार की बसाई कुष्ठ कॉलोनी है. यहां कई पड़ोसियों की तरह सिद्दिक़ी का भी इलाज हो गया है.
लेकिन चिपटी हुई नाक, हाथ और पैर के साथ ही वो एक तरह का सामाजिक कलंक ढो रहे हैं, जिसकी वजह से उन्हें यहां रहना पड़ रहा है.
उनके अलावा यह क़रीब पांच हज़ार परिवारों का घर है, जिसे ‘ताहिरपुर निवास’ कहा जाता है. यह भारत के 800 से ज़्यादा कुष्ठ कॉलोनियों में सबसे बड़ा है.
यहां रहने के लिए छोटी सी जगह के अलावा, खुली नालियां और कूड़े के ढेर पड़े होते हैं. लेकिन फिर भी, यह भारत में ऐसी सबसे विकसित कॉलोनी है.
यहां पक्के मकान, वाटर पंप और टॉयलेट की सुविधा है. यहां की दुकानों से सरकारी राशन मिल जाता है.
इसके क़रीब ही एक स्थानीय एनजीओ है. जहां के लोग नियमित तौर पर इस इलाक़े का दौरा करते हैं.
ऐसी ज़्यादातर कॉलोनियां झुग्गियों की तरह होती हैं, जहां लोगों को ठहरने के लिए जगह भर मिल जाती है और वो भीख मांग कर अपना गुज़ारा करते हैं.
इस बीमारी से जुड़ा सदियों पुराना सामाजिक कलंक, पीड़ित को घर से बाहर कर देता है. लेकिन इससे देश में कुष्ठ का इलाज सफल हो पा रहा है.
भारत में कुष्ठ का मुफ़्त और कामयाब इलाज 1983 से चल रहा है.
लेकिन अब भारत सरकार कुष्ठ के इलाज के लिए एक अभियान चला रही है, उम्मीद की जा सकती है कि यह एक ऐतिहासिक कदम होगा.
कुष्ठ की रोकथाम के लिए दुनिया का पहला उपलब्ध टीका, भारत सरकार कुष्ठ से सबसे ज़्यादा प्रभावित गुजरात और बिहार में लोगों को लगवाने जा रही है.
सरकार का इरादा आगे इस अभियान को पूरे देश में लागू करने का है.
माइकोबैक्टेरियम इंडिकस प्रैनी (एमआईपी) को सबसे पहले प्रोफ़ेसर गुरुशरण प्रसाद तलवार ने 1980 के दशक में तैयार किया था.
उन्होंने इसे नेशनस इंस्टिच्यूट ऑफ़ इम्यूनोलॉजी में विकसित किया था, जो सरकार की सहायता से चलने वाला एक स्वतंत्र संस्थान है. यह सरकार के डिपार्टमेंट और बायोटेक्नॉलॉजी के अंदर आता है.
इस संस्थान ने साल 2005 में उत्तर प्रदेश में इसका ट्रायल किया था. यहां 24 हज़ार लोगों को यह टीका लगाया गया, जिसका परिणाम बहुत ही अच्छा रहा.
जांच से पता चला कि 59 फ़ीसद लोगों को 8 साल के लिए इस बीमारी के चपेट में आने से सुरक्षा मिल गई है.
हालांकि ठीक उसी साल विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुष्ठ के आधिकारिक तौर पर उन्मूलन का ऐलान कर दिया.
यह ऐलान हर 10 हज़ार की आबादी में, एक से कम व्यक्ति में कुष्ठ पाने की वजह से किया गया.
लेकिन भारत के लिए यह ऐलान एक तरह का अभिशाप बन गया. भारत में कुष्ठ मिशन की डॉक्टर मैरी वर्गिस कहती हैं, "पहले कुष्ठ का इलाज एक ठोस कार्यक्रम था, लेकिन अब इसे नज़रअंदाज़ किया जाने लगा".
उन्होंने बताया, "पहले हमारे पास आधिकारिक तौर पर लोग थे और इसका इलाज सामाजिक तौर पर होता था. लेकिन 2005 के बाद से इसे सामान्य स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ दिया गया. जिसकी वजह से हम कभी भी ऐसे मामलों की जांच के लिए दौरे पर नहीं गए. इसके लिए लोगों को ख़ुद ही स्वास्थ्य केन्द्रों तक आना था."
लेकिन इस इलाज के लिए कुछ ही लोग आगे आए और लोग उस वक़्त आए जब बीमारी अक्सर काफ़ी आगे बढ़ चुकी होती थी.
उस वक़्त तक लोग स्थाई तौर पर अपंग हो चुके होते थे. उनके पंजे और अंगुलियां साफ़ तौर पर छोटे (कुष्ठ की निशानी) दिखाई देते थे, जहां से संक्रमण बाक़ी शरीर तक पहुंचता है.
डॉक्टर मैरी वर्गिस के मुताबिक़, "लोग 2005 के बाद इन चीज़ों पर ध्यान नहीं देने लगे, इसलिए हर साल सवा लाख से ज़्यादा नए मामलों की सूचना आने लगी. इसके साथ ही संक्रमित इंसान के अपाहिज़ होने के केस भी बहुत तेज़ी से बढ़ने लगे हैं."
आज कुष्ठ के नए मामलों में 60 फ़ीसद मामले भारत के ही होते हैं. नरेंद्र मोदी की सरकार ने ज़िला स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक, इस बीमारी को ख़त्म करने के लिए बड़ा अभियान शुरू किया है.
इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च की महानिदेशक सौम्या स्वामिनाथन का कहना है कि इस अभियान में ‘एमआईपी’ टीका भी शामिल है. आईसीएमआर यह टीका लगाने में सरकार से साथ मिलकर काम कर रहा है.
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