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जरा याद करो कुरबानी…

राज लक्ष्मी सहाय मंत्रमुग्ध था नंदू. उस जमीन का यह आदमी उसे एेसा लग रहा था मानाे एक विराट व्यक्तित्व आकाशवाणी करता हाे. किसी अलाैकिक वस्तु का आभास हाेने लगा था. तभी आया ने टाेका. मम्मी के आने का समय हाे रहा था. ‘‘मैं कल फिर आऊंगा कहते हुए नंदू ने दादा के पैर छुए. […]

राज लक्ष्मी सहाय

मंत्रमुग्ध था नंदू. उस जमीन का यह आदमी उसे एेसा लग रहा था मानाे एक विराट व्यक्तित्व आकाशवाणी करता हाे. किसी अलाैकिक वस्तु का आभास हाेने लगा था. तभी आया ने टाेका. मम्मी के आने का समय हाे रहा था.

‘‘मैं कल फिर आऊंगा कहते हुए नंदू ने दादा के पैर छुए. पाेते काे सीने से लगा कर सिसकने लगे भुवन बाबू. बार-बार भगवान काे धन्यवाद देते-यह दिन दिखाया.’’

अगले दिन दाेपहर से ही ‘आजाद सांसे’ के फाटक के पास बेंच पर बैठे थे भुवन बाबू. देखा नंदू लपकता आ रहा है. कितना मनमाेहक रूप है बच्चे का. निश्चल मासूम. पाेते ने हाथ थाम लिया, ताे लाठी छाेड़ दी. धीरे-धीरे कमरे में आये.

उनकी लाठी आया पीछे-पीछे लेकर आयी. कुरबानी की कथा आगे बढ़ी.

सारा देश हवन कुंड बन चुका था. कुरबानी की समिधा का ढेर था भारत की माटी का हर काेना. एेसा ही हवनकुंड बना जलियावाला बाग. डायर की अनवरत गाेलियाें से छलनी हाेता गिरता-पड़ता, तड़पता जनसमूह. दुनिया के इतिहास की अभूतपूर्व वीभत्स घटना.

कांप रहे थे भुवन बाबू. नंदू भी कांप उठा. एेसी कुरबानी धरती से अंतरिक्ष तक थर्रा देती है. ध्रुवतारा और सप्तऋषी जैसे चमकते सिताराें के अलावा बेनाम अनगिनत तारे कब कैसे अपनी जीवन ज्याेति बुझाते गये-हिसाब है काेई? भुवन बाबू का बेटा भी जलियावाला हवन कुंड में भस्म हाे चुका था. नंदू का माथा सहलाते भुवन बाबू बाेले-

‘नये खून में कुरबानी की उबाल कैसा हाेता है सुनो’-

-‘‘नया खून मतलब?’’

-‘‘मतलाब देश की युवा ताकत. चाहे ताे पानी काे अमृत बना दे.’’ आसमान के तारे ताेड़ लाए. नंदू चुप-फिर आश्चर्य! बाेले दादा-

-‘‘एक था भगत. 21 साल का जवान. आजादी की कसमें खानेवाला’’ बेधड़क असेंबली में धमाका किया और हंसते- हंसते फांसी की जयमाला गले में डाल ली. भारत माता का सीना गर्व से लबरेज- गुलामी की बेड़ियां खुलती नजर आयी थीं. मानाे आजादी द्वार खटखटाती हाे.

बड़ी अलबेली थीं कुरबानी की यादें. मानाे महाभारत, रामायण सरीखा महाग्रंथ हाे. नंदू पर जादू छाने लगा. भगत की मां उसे देवी जैसी लगी. न जाने कितनी माताओं ने एेसी बेमिसाल कुर्बानी दी हाेगी. उसे मार्डन आंटियां और माॅम की याद आयी. ममता की माटी क्या अलग-अलग किस्म की हाेती है? अब ताे अजीब-अजीब सी चर्चा वह सुनता है. माताओं से गिड़गिड़ा कर कहा जाता है कि बच्चे काे अपना दूध पिलाएं. नंदू के यादाश्त में भी आया आंटी ही दूध की बाेतल लिए खड़ी दिखाई देती है. भगत ने जरूर वीर माता का दूध पिया था. दादा ने बताया उसने फांसीवाली टाेपी भी नहीं पहना. इतनी सुंदर माैत काे खुली आंखाें से देखना था उसे.

उस जमाने के आदमी काे बनानेवाला आखिर काैन था? आज के आदमी काे काैन बनाता है? सवाल था नंदू का.

‘‘अरे बेटा बनानेवाला काैन था- भारत की संस्कृति-सभ्यता-धर्म. राम, कृष्ण, अर्जुन, सम्राट अशाेक, बुद्ध, महावीर के चरित्र के छींटे थे घर-घर में. साेचता हूं आज गुलामी हाेती ताे क्या हाेता? आजादी पाने की साेचते ही नहीं. अंग्रेजियत की गुलामी काे शाैकिया लपेट कर ओढ़ रखा है. आत्मा ही गुलाम है.’’ यह बात थाेड़ी कम समझ में आयी नंदू काे.

‘‘कुरबानी का एक और अनूठा रूप दिखाता हूं.’’

एक चंद्रशेखर आजाद था- आजादी की किरणाें से भी चमकीला. पानी पिला कर रखा था गाेरी सरकार काे. धाेखे से पार्क में घिर गया. खुद काे गाेली मार ली, मगर जीते जी खुद काे अंग्रेजाें के हाथ न लगने दिया. एेसा खाैफ था उसका कि मृत आजाद के शरीर में भी सिपाहियाें ने गाेली दागी- कहीं जिंदा न हाे.

नंदू की आंखें चमक रही थीं. एेसा तमाशा! बलिदान के करतब! अनगिनत जानाें के बदले क्या मिला था? तिरंगा…

अचानक भुवन बाबू ने जाेर से अपनी छाती ठाेंकी. लाेहे पीटने जैसी आवाज आयी. एक बूढ़ा शेर भी था आजादी का दीवाना. अस्सी साल का कुंवर सिंह. मेरी तरह बुढ्ढा. एेसी लुका-छिपी हाेती थी. अंग्रेजाें के साथ कि मजा आ जाता. किसी गद्दार की आत्मा मर गयी थी. लालची ने अंग्रेज अधिकारी काे खबर दे दी. गंगा पार कर रहे थे- बांह में गाेली लगी. खुद उस हाथ काे काट कर गंगा में अर्पित कर दिया. अपवित्र भुजा काे अलग कर दिया. सुना है किसी ने एेसी कुर्बानी.

‘‘असंभव दादा असंभव’’

नंदू ने पूछा-

‘‘आप हमारे साथ क्याें नहीं रहते?’’

काेई जवाब नहीं….

‘कथाएं अभी और हैं. पहले सुन ताे लाे’- विरासत का माैन आदान-प्रदान चल रहा था.

‘जरा याद कराे कुर्बानी’ की माला का एक-एक फूल नायाब था. माला का लाॅकेट ताे अद्‌भुत अप्रतिम ही था. युग पुरुष गांधीजी. व्यक्ति काे त्यागकर समष्टि का उपासक. देखा, भारतीयाें के तन पर कपड़े नहीं- खुद आजीवन एक कपड़े से तन ढंककर बिता दिया. सर्दी-गर्मी और वर्षा किसी का असर नहीं इस तपस्वी पर. करिश्माई एेसा कि जिधर एक नजर डाली- देश की दृष्टि उसी ओर. जिधर एक कदम-उधर सारे कदम. माथे पर मैला ढाेया- पत्नी से भी ढुलवाया.

एेसी ज्ववंत शक्ति का प्रतिरूप कि ताेप बारूद सब धूमिल. सत्याग्रह, स्वदेशी, अहिंसा जैसे अद्‌भुत हथियार थे- दिखाई नहीं देते थे, मगर कटनेवाला हाय-हाय कर उठता था. आजाद हुआ वतन. देश बंट गया. प्राणाें पर एेसा सदमा लगा कि जीने की इच्छा ही न रही. सीने पर गाेलियां खायीं. अमर हाे गये. सुभाष, पटेल, सब नायाब हीरे कुर्बानी के. क्या जमाना था. प्राण देने की हाेड़ मची थी. सचमुच तिरंगे को शहीदाें ने अपने देह की नसें खींच कर बुना है.

नंदू काे अपना दादा भीष्मपितामह जैसा लगा. द्राेणाचार्य जैसा लगा. कुर्बानी की घुट्टी पीता रहा वह. मानाे समुद्र मंथन से निकला अमृत.

साेच रहा था नंदू उस जमाने के आदमी के बारे में और इस जमाने के आदमी के बारे में. दादा के लिए आज के जमाने के आदमी के पास जगह नहीं . पहले साबरमती आश्रम था.

अब वृद्धाश्रम. साबरमती में बकरी के जख्म का भी इलाज हाेता था. वृद्धाश्रम में केवल डाॅक्टर की फीस भेजी जाती है. नंदू के दाेस्त ताे उसकी टाॅफी चुरा कर खा जाते हैं. मम्मी के पास नंदू के लिए जरा भी वक्त नहीं. पापा के पास सिर्फ डपटने के लिए शब्द हैं. आया आंटी न हाेती ताे?

दादा कुछ गुस्से में कहने लगे-‘‘कुर्बानी याद करके हाेगा क्या? अंग्रेजाें काे भगाया और खुद अंगरेज हाे गये. अंग्रेजी बाेलते है- अंग्रेजी खाते हैं- अंग्रेजी पहनते हैं. राेज धमाके की खबर आती है. गाजर-मूली जैसे गले रेत देते हैं अपने ही अपनाें के. घराें में दाेहरे पर्दे सजाते हैं. बेटियाें काे उघेड़कर रखते हैं.’’ नंदू काे याद आया कि एक बार वह मम्मी के साथ घूमने नहीं गया, क्याेंकि उसे उनकी ड्रेस अच्छी नहीं लगी थी. हाेमवर्क के बहाने आया आंटी के साथ घर में ही रह गया.

भुवन बाबू ने जाते समय नंदू काे एक भाषण लिखकर दिया.

15 अगस्त. मंच पर नंदू खड़ा था. बाेलना शुरू किया-

‘‘आज मैं नंदू नहीं. मैं उस जमाने का आदमी हूं. जब रगाें में कुर्बानी की लहर दाैड़ती थी. आजादी मंजिल थी. भारत माता के चरणाें में कटा सिर चढ़ाने की हाेड़ मची थी. अपनी मां काे जंजीराें में जकड़ा भला काैन देख सकता था? माटी का कर्ज था. मैं नब्बे साल का वह शख्स हूं, जिसने हर कुर्बानी का संगीत सुना था. गाया था. लक्ष्मी बाई के कटार की झनझनाहट- भगत की हथकड़ियाें का संगीत-आजाद के इनकलाब का गीत- राजगुरु की माैत पर ठहाका- जलियावाला बाग के चीत्कार की गर्जना- ताेपाें की वीभत्स हंसी- कीलाेंवाली बूटाें की चुभन की सिसकती- चाबुकाें की मार- सांय-सांय – भारत छाेड़ाे की हुंकार- आजादी का शंखनाद- कटते देश की कराह- बाबू की निर्दोष माैत के सदमे का सन्नाटा- सब आवाजें- सबका साक्षी हूं मैं. मगर इस जमाने पर हैरान हूं.’’ न जाने नंदू की जुबान पर काैन सवार था?

‘‘मुल्क के बदले दिल दिमाग पर हैरान हूं. क्या कुर्बानी इसलिए थी कि भारत माता की जय बाेलने से लाेग कतराएं? क्या इसलिए थी कुर्बानी कि तिरंगा फहराने पर भी सवाल हाे? क्या कुर्बानी का मकसद गद्दार वारिसाें की फसल थी? अपने ही देश का साैदा करने काे बेचैन.

मर्यादा की धज्जी- संस्काराें काे दफन करना ही कुर्बानी का इनाम था? शहीद आठ-आठ आंसू राेते हैं कि व्यर्थ गयी उनकी कुर्बानी. मैं भारत माता की संतान उस जमाने के कदमाें की एक निशानी लेकर आया हूं. एक जूता. यह जूता मैंने जलियावालाबाग में बिखरी लाशाें के बीच से उठाया था. उस हवन कुंड का प्रसाद समझकर. इस जूते का सवाल है मुल्क से- ‘कुर्बानी क्याें दी शहीदाें ने’. भारतीय समाज के सर पर इस जूते काे मारकर मैं सुकून पाना चाहता हूं.’’

नंदू ने कंधे पर टंगे झाेलेे से जूता निकाला और जाेर से मंच पर दे मारा.

हॉल में सन्नाटा था.

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