कश्मीर में कुछ लोग कभी हिंसा की राह पर थे. अब वे शांति लाने का काम कर रहे हैं. उन्हें नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है.
सैफुल्लाह ख़ान और सिद्दीक़ ख़ान दो सगे भाई हैं. वे भारत प्रशासित कश्मीर में कुछ सालों से शांति का पैग़ाम फैला रहे हैं.
श्रीनगर के रहने वाले सैफुल्लाह ख़ान और उनके छोटे भाई सिद्दीक़ ख़ान 1990 के दशक में सशस्त्र उग्रवाद का एक अटूट हिस्सा थे. लेकिन आज वो हर कश्मीरी नौजवान को सलाह देते हैं कि पत्थर मत मारो, हथियार मत उठाओ.
सैफुल्लाह कहते हैं, "हम अमन के काम में लगे हुए हैं. अमन लाने की कोशिशें कर रहे हैं."
कश्मीर में हाल में हुई हिंसा के सवाल पर उनके छोटे भाई सिद्दीक़ कहते हैं, ”हमें क़ामयाबी नहीं मिल पा रही क्योंकि हमारी बात और हमारा पैग़ाम नौजवानों तक पहुँचने ही नहीं दिया जा रहा है. सरकार नहीं चाहती कि हमारा पैग़ाम युवाओं तक पहुंचे."
दोनों भाई कश्मीर के मौजूदा हालात से फिलहाल मायूस नज़र आते हैं.
सैफुल्लाह का कहना है, "मौजूदा हिंसा और विरोध प्रदर्शन के पीछे शांति प्रक्रिया का शुरू न होना एक अहम कारण है."
वो आगे कहते हैं, "शांति प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए. इंडिया, पाकिस्तान और कश्मीरी अवाम को एक मेज पर आना चाहिए. कश्मीर के मसले का हल निकालना चाहिए."
दोनों भाई मायूसी के बावजूद शांति की अपील करते हैं. उनके हिसाब से यह एक कठिन रास्ता है और मंज़िल तक पहुँचने में समय लग सकता है.
उनके मुँह से शांति की बातें उन लोगों को अजीब लग सकती हैं जो उन्हें चरमपंथी की हैसियत से जानते हैं.
कश्मीर में उग्रवाद 1990 के दशक में अपने चरम पर था. सैफुल्लाह और उनके दो भाई इसमें आगे थे. उनमें से एक भाई एनकाउंटर में मारा गया.
दोनों भाई जेल में रहे. जेल में ही उन्हें लगने लगा कि हिंसा से कुछ हासिल नहीं होगा.
सैफुल्लाह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि वो और उनके भाई हथियार डालने वाले चरमपंथियों में से नहीं हैं. उन्होंने जेल की सज़ा काटी और घर लौटकर शांति का रास्ता अपनाने का फ़ैसला किया.
वे कहते हैं, "मैंने बंदूक का रास्ता अपनाया था. बंदूक उठाई भी थी, चलाई भी. जेल भी गया हूँ. इसके बाद जब शांति प्रक्रिया शुरू हुई तो मैं उसमें शामिल हो गया."
लेकिन वो प्रतिरोध करने वालों पर गोलियों के इस्तेमाल के खिलाफ हैं. उनका मानना है कि "इससे भारत से दूरी बढ़ती है. आप विरोध करने वाले आम नागरिकों को मार नहीं सकते, उन्हें अंधा नहीं कर सकते. ये आपके ख़िलाफ़ जाएगा."
सैफुल्लाह ये भी मानते हैं कि आम नागरिकों के घरों के अंदर पुलिस छापे से भी लोगों में गुस्सा बढ़ता है. बेगुनाह युवाओं को चरमपंथी कहकर उन्हें जेलों में भरना भी अमन के हित में नहीं है.
सिद्दीक़ इसका एक उदाहरण हैं. वो कभी औपचारिक रूप से अपने दो भाइयों की तरह किसी चरमपंथी संगठन से नहीं जुड़े थे.
लेकिन इसके बावजूद चरमपंथी घोषित करके उन्हें पांच साल की सजा सुनाई गई. उन्हें जेल की सजा हुई.
सिद्दीक़ कहते हैं कि इन दिनों आम नागरिकों को एक बार फिर से परेशान किया जा रहा है. इसी कारण उनकी शांति फैलाने की कोशिशें असफल हो रही हैं.
वो कहते हैं, "इसके बावजूद मैं शांति के लिए आखिरी दम तक काम करता रहूंगा."
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