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आंदोलन एवं राज्य: इरोम शर्मिला खत्म करेंगी भूख हड़ताल, राजसत्ता के रवैये पर प्रश्नचिह्न

शांतिपूर्ण सत्याग्रहों की सूची में इरोम शर्मिला का 16 वर्ष लंबा अनशन एक विशेष स्थान रखता है. इस संघर्ष ने उन सभी प्रश्नों को एक नया संदर्भ दिया है, जिनसे हमारा लोकतंत्र बीते सात दशकों से जूझता रहा है. मानवाधिकार, सम्मान, अस्मिता, अहिंसा और संवाद के महत्व को स्थापित करता इरोम का अनशन उन प्रश्नों […]

शांतिपूर्ण सत्याग्रहों की सूची में इरोम शर्मिला का 16 वर्ष लंबा अनशन एक विशेष स्थान रखता है. इस संघर्ष ने उन सभी प्रश्नों को एक नया संदर्भ दिया है, जिनसे हमारा लोकतंत्र बीते सात दशकों से जूझता रहा है. मानवाधिकार, सम्मान, अस्मिता, अहिंसा और संवाद के महत्व को स्थापित करता इरोम का अनशन उन प्रश्नों के प्रति सरकारों के उदासीन रवैये को भी रेखांकित करता है. चुनावी राजनीति में आने के उनके निर्णय की पृष्ठभूमि में संबंधित मुद्दों पर एक नजर आज के संडे-इश्यू में…
इरोम का संघर्ष
बीते 16 सालों से अनशन पर बैठीं इरोम शर्मिला चानू का संघर्ष आंदोलनों के इतिहास में अहम स्थान रखता है. उनकी मांग है कि हिंसक घटनाओं के कारण सरकार द्वारा अशांत घोषित किये गये क्षेत्रों में तैनात सशस्त्र सेनाओं को मिले विशेषाधिकारों को समाप्त किया जाये. नवंबर, 2000 में मणिपुर में 10 लोगों की फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने की घटना के बाद अनशन शुरू करने के तुरंत बाद से ही वे हिरासत में हैं. उन्हें नाक में लगी एक नली द्वारा खाना दिया जाता है तथा इम्फाल के एक अस्पताल के कमरे को ही अस्थायी जेल के रूप में बदल दिया गया है, जहां उन्हें सीमित लोगों से मिलने-जुलने की अनुमति है.
समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर ने लिखा है कि इरोम का संघर्ष अपने तरीके की खासियत के साथ भारत के सबसे लंबे समय तक हिरासत में रहनेवाले राजनीतिक कैदी तथा कैद में उसके अकेले के साहस की कहानी भी है. उनकी निरंतर गिरफ्तारी के पीछे सरकार का तर्क है कि उनकी कोशिश आत्महत्या की है, जो एक कानूनी अपराध है. लेकिन, इस वर्ष 30 मार्च को दिल्ली की एक अदालत ने उन्हें आत्महत्या की कोशिश के आरोपों से बरी कर दिया था. इस फैसले ने इस बात को रेखांकित किया कि उनकी लड़ाई जीने के अधिकार के पक्ष में एक राजनीतिक संघर्ष है, न कि मर जाने की कोई चाह.
मैं नौ अगस्त को अपना अनशन समाप्त कर दूंगी. आंदोलन के प्रति आम लोगों की बेरुखी ने मुझे यह फैसला करने के लिए मजबूर किया है. अब मुझे नहीं लगता है कि अनशन से आफ्स्पा हट पायेगा, लेकिन मेरी लड़ाई जारी रहेगी. इसलिए मैं राजनीति में आऊंगी और निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में राज्य विधानसभा का चुनाव लड़ूंगी.
– इरोम शर्मिला
आफ्स्पा पर सर्वोच्च न्यायालय
इस महीने की आठ जुलाई को देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह फैसला दिया है कि मणिपुर में आत्मरक्षा की आड़ में सुरक्षाबलों द्वारा बड़े पैमाने पर की जा रही हत्याओं को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है.
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि यदि सुरक्षाकर्मी सिर्फ आरोप या संदेह के आधार पर देश के नागरिकों को मार देते हैं, तो वे ‘शत्रु’ हैं. इससे न सिर्फ कानून के शासन को, बल्कि लोकतंत्र को भी खतरा हो सकता है. न्यायालय ने पुलिस समेत सभी सुरक्षा एजेंसियों को अत्यधिक बल प्रयोग करने से मना किया है. मणिपुर में कथित मुठभेड़ों में मारे गये लोगों के पीड़ित परिजनों द्वारा दायर याचिका में कहा गया था कि बीते दशक में 1,528 लोगों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या की गयी है. अदालत ने केंद्र सरकार के इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि राज्य में युद्ध-जैसे हालात हैं.
अदालत ने आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट (आफ्स्पा) की वैधता पर सवाल उठाये बिना कहा है कि यदि अनिश्चित काल तक किसी इलाके में सुरक्षा बलों को तैनात करना पड़ रहा है, तो यह साफ तौर पर शासन-व्यवस्था की असफलता है. वर्ष 1998 में सर्वोच्च न्यायालय की एक संवैधानिक पीठ ने भी अशांत क्षेत्रों में अत्यधिक बल प्रयोग को गलत करार दिया था.
आत्मसम्मान की आग्रही इरोम शर्मिला
इ रोम शर्मिला अलगाववाद या स्वतंत्रता की पक्षधर नहीं हैं, उनका जोर सम्माननीय एकीकरण, जनता के नेतृत्व में विकास, शिक्षा और उनके लोगों की अपनी संस्कृति और जीने के तरीकों के प्रति आदर पर है.
वे मानवीय प्रेम, न्याय, शांति, भयमुक्त जीवन के अधिकार जैसी अच्छाइयों में अटूट आस्था रखती हैं. अगर उन्होंने कुछ हासिल किया है, तो वह यह है कि उन्होंने एक भिन्न प्रकार की राजनीति का बीज बोया है. उन्होंने एक ऐसे बौद्धिक क्रांति की नींव रखी है, जो क्रूर ताकत की जगह आत्मशक्ति पर निर्भर है. उनका दृढ़ और विनम्र व्यक्तित्व अहिंसा की शक्ति को परिलक्षित करता है. असंतुष्टों को शोर मचाने, नारे लगाने या बंदूक उठाने की जरूरत नहीं है, हम क्रूर सत्ता के सामने झुकने से इनकार कर उसे चुनौती दे सकते हैं. एक अकेले कोने में बंद कर राज्य ने शर्मिला को चुप कराने की पूरी कोशिश की है. लेकिन, इस कार्रवाई से उनकी आवाज को बुलंद करने में मदद ही मिली है.
– दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा, इरोम शर्मिला पर चर्चित पुस्तक की लेखिका. (दि इंडियन एक्सप्रेस के एक लेख का अंश)
कुछ प्रमुख आंदोलन
आंदोलनों का जिक्र किये बिना हमारा आधुनिक इतिहास अधूरा है. आंदोलन आम जनमानस की ऐसी शक्ति है, जिसकी आंधी में बड़े-से-बड़ा वट-वृक्ष भी धराशायी हो जाता है. लेकिन, किसी जन-आंदोलन की सफलता और असफलता काफी हद उसकी दशा और दिशा पर निर्भर होती है.
आंदोलन का मतलब ही निरंतर गति से होता है. यह विज्ञान के नजरिये से भी समझा जा सकता है कि नियत दिशा के बिना आप अपनी गति को बरकरार नहीं रख सकते हैं. आंदोलन का उद्देश्य परिवर्तनगामी या परिवर्तनविरोधी हो सकता है, लेकिन उसका उद्देश्य सदैव जनमानस की पवित्र चेतना से जुड़ा होता है. जब किसी आंदोलन से समाज के तमाम वर्ग अपनी अंत:चेतना की आवाज पर जुड़ते हैं, तो आंदोलन का स्वरूप उतना ही वृहद होता जाता है. हमारे लोकतंत्र की नींव ही जन-आंदोलनों के बीच पनपी है.
दक्षिण-अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ सफलता पाने के बाद देश की सरजमीं पर वर्ष 1915 में जब महात्मा गांधी ने कदम रखा, तो उससे पहले शायद ही यह देश किसी बड़े जन-आंदोलन की सफलता से परिचित रहा हो. गांधी जी के नेतृत्व में जिस जन-आंदोलन की शुरुआत चंपारण, खेड़ा सत्याग्रह से हुई थी, उसकी परिणति असहयोग आंदोलन, स्वराज्य और नमक सत्याग्रह से होती हुई ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ पर हुई, जहां पहुंच कर देश ने सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद आजादी की पहली सुबह देखी थी. सत्य और अहिंसा की बुनियाद पर ही हमारा आजादी का आंदोलन पूरी दुनिया के लिए मिसाल है. आज आंदोलन दशा, दिशा और लक्ष्य तीनों से भटक गये हैं.
इसका परिणाम यह होता है कि भले अच्छे उद्देश्यों से ये आंदोलन शुरू होते हैं, लेकिन इनका हिंसात्मक रूप ही इनके दमन या बिखर जाने का कारण बनता है. बावजूद इसके स्वतंत्रता के बाद भी इस देश में किसान, मजदूर, सामाजिक कार्यकर्ताओं के आंदोलन हुए हैं, जो आम-जनमानस की चेतना को स्पर्श करते हैं.
‘सेव साइलेंट वैली’आंदोलन, 1973
जंगलों को बचाने के लिए 1973 में शुरू किया गया यह आजादी के बाद सबसे बड़ा आंदोलन था. कोई विशेष तैयारी और नेतृत्व नहीं होने के बावजूद भी यह आंदोलन काफी प्रभावी था. आम लोगों ने सरकार पर दबाव डालने के लिए सेमिनार, जागरूकता कार्यक्रमों और यहां तक कि कोर्ट का भी सहारा लिया था. दरअसल, केरल राज्य बिजली बोर्ड ने 1973 में पलक्कड़ जिले में कुंथीपुझा नदी पर हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजना की शुरुआत की थी. इसका सीधा प्रभाव ‘साइलेंट वैली’ पर पड़ता, जिससे पेड़-पौधों के साथ-साथ कई जंगली जानवरों को खतरा था. आम लोगों ने इसके खिलाफ बड़ा जन-आंदोलन खड़ा कर दिया. लोगों के दबाव का ही नतीजा था कि वर्ष 1986 में साइलेंट वैली को राष्ट्रीय पार्क घोषित करना पड़ा.
चिपको आंदोलन, 1973
वन-संरक्षण के इस अनूठे आंदोलन ने आम लोगों में सबसे अधिक जागरूकता पैदा की. ठेकेदारों द्वारा वनों की कटाई के खिलाफ गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर अपना विरोध दर्ज कराया. महिलाओं की इस मुहिम के दबाव पर सरकार ने पेड़ों की कटाई पर 20 वर्षों के लिए पाबंदी लगा दी. वर्ष 1981 में सुंदर लाल बहुगुणा जंगलों की कटाई पर पाबंदी लगाने की मांग को लेकर आमरण अनशन पर बैठ गये. इस तरह चिपको आंदोलन की तर्ज पर उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं इलाकों में अनेक आंदोलन होते रहे.
जंगल बचाओ आंदोलन, 1980
बिहार और झारखंड के जनजातीय इलाकों में 1980 के दशक में काफी संख्या में लोग जंगलों को बचाने की मुहिम से जुड़े. बाद के वर्षों में यह आंदोलन ओड़िशा सहित अन्य राज्यों तक पहुंचा. ‘जंगल बचाओ आंदोलन’ की इस मुहिम में आदिवासी कबीलों ने सरकार की सागौन के पेड़ों के जंगल में बदलने की योजना का विरोध किया.
नर्मदा बचाओ आंदोलन, 1985
प्रसिद्ध नर्मदा बचाओ आंदोलन समाज के किसी वर्ग विशेष तक सीमित रहनेवाला आंदोलन नहीं है, बल्कि इस मुहिम में किसान, पर्यावरणविद्, आदिवासी, मानवाधिकारवादी जैसे लोग जुड़ते चले गये. यह आंदोलन नर्मदा नदी पर बन रहे बांधों के खिलाफ शुरू हुआ था. बांधों के विरोध में लोगों ने भूख-हड़ताल भी की. बाद में कोर्ट ने सरकार को इस परियोजना से प्रभावित लोगों को पुनर्वास सुनिश्चित करने का आदेश दिया. हालांकि, कोर्ट ने तय नियमों के आधार पर बांधों के निर्माण को मंजूरी दे दी.
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, 2011
सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने नयी दिल्ली के जंतर-मंतर पर अप्रैल, 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ भूख-हड़ताल की. भ्रष्टाचार विरोधी और जन लोकपाल बिल की मांग को लेकर शुरू किये गये इस आंदोलन में देशभर से लाखों लोग शामिल हुए. इस आंदोलन के दबाव में कुछ केंद्रीय मंत्रियों को इस्तीफा भी देना पड़ा. इस आंदोलन की सफलता को प्रतिष्ठित टाइम पत्रिका ने ‘2011 की 10 सबसे बड़ी घटनाओं’ में शामिल किया था.
भोपाल गैस पीड़ित आंदोलन, 1984
भोपाल में 1984 में हुई गैस त्रासदी के बाद इंसाफ के लिए शुरू हुआ आंदोलन 31 वर्ष बाद भी जारी है. जहरीली गैस की चपेट में आने से हजारों लोग प्रभावित हुए थे. इसका प्रभाव आज भी लोगों पर है. कई कैंसर के मरीज, तो कई फेफड़ों के मरीज आज भी इंसाफ के इंतजार में बैठे हैं. सरकारी उपेक्षा से परेशान पीड़ित अपने आंदोलन को आज भी मुखर बनाये हुए हैं.
लोक, तंत्र और राजनीति के बीच इरोम शर्मिला
जितेंद्र कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
लगभग सोलह साल से इरोम शर्मिला भूख हड़ताल पर हैं और अगले 9 अगस्त को वे अपना भूख हड़ताल तोड़ देंगी. शायद यह दुनिया की सबसे बड़ी भूख हड़ताल है और सबसे अहिंसक, सबसे नैतिक सत्याग्रह तो वह था ही. लेकिन इन सबके बावजूद भारतीय राजसत्ता पर रत्ती भर असर नहीं हुआ. अगर राजसत्ता यह सोचती है कि उसने मणिपुर की इरोम शर्मिला को हरा दिया, तो यह काफी दुखद है. अपनी तरफ से हमें यह भी मान लेना चाहिए कि यह भारतीय राजसत्ता की सबसे बड़ी नैतिक हार है.
इरोम ने एक अनोखी लड़ाई लड़ी, जो न भगत सिंह की तरह का था, न गांधी की तरह का था और न ही शायद लोहिया-जेपी की तरह का था. वह एक निराला प्रयोग था, जो एक औसत मध्यमवर्ग की लड़की का गुरुवार के साप्ताहिक उपवास से शुरू हुआ था, लेकिन 2 नवंबर, 2000 के सैन्य बलों द्वारा इम्फाल में 10 नागरिकों की हत्या जैसी ऐसी दुखद घटना के बाद उन्होंने इसे अनवरत जारी रखा, जो आगे चल कर एक बड़ा नैतिक सत्याग्रह बन गया.
अभी 8 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया है कि मणिपुर में हुए 1,528 झूठे मुठभेड़ में मारे गये लोगों की जांच कराये. हो सकता है इरोम को सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से भी इसकी प्रेरणा मिली हो. कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले से सत्ता में बैठे लोगों के लिए भारत में नागरिक स्वतंत्रता का नया अध्याय खुल सकता है, बशर्ते देशभर में आफ्स्पा के अतिरिक्त तरह-तरह के कानूनों द्वारा नागरिकों को प्रताड़ित करने के प्रति अस्वीकार का भाव प्रबल हो, आफ्स्पा शासित इलाकों से बाकी देश की एकजुटता मजबूत हो और भारतीय राज्य अपनी प्रशासनिक और विधिक संरचनाओं को अधिक लोकतांत्रिक बनाने की ठोस पहलकदमी करें. देश के जिस किसी भी भूभाग में, जहां आफ्स्पा स्थायी भाव बन चुका है, वहां से उसे तत्काल समेटने की प्रक्रिया शुरू हो जानी चाहिए. हालांकि, देर हो चुकी है, लेकिन हो सकता है कि इस पहल से देश में लोकतंत्र में लोगों का विश्वास फिर से जमे और राष्ट्रीय एकता मजबूत हो.
हालांकि, तरह-तरह के राष्ट्रवादी व्याख्यानों से ऐसा लग सकता है कि आखिरकार इरोम हार गयी हैं, इसलिए वह भूख हड़ताल खत्म कर रही हैं. लेकिन, यदि यह सचमुच उनकी हार है, तो भारतीय राज्यतंत्र की इससे बड़ी नैतिक पराजय कुछ और नहीं हो सकती है.
हमें इरोम से जुड़े कुछ और बातों को ध्यान में रखने की जरूरत है. इरोम ने कहा है कि वह 9 अगस्त को उपवास खत्म करेंगी, जो भारतीय गणतंत्र के लिए बहुत ही ऐतिहासिक दिन है.
9 अगस्त को ही भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ था और इतिहास के इस दिन के निहितार्थ साफ हैं. उन्होंने यह भी कहा है कि वह सामान्य जीवन जीना चाहती हैं, वह शादी करना चाहती हैं (हालांकि, शादी वाले बयान को सरकार समर्थित लव जेहादी उनका चरित्र हनन करने से बाज नहीं आयेंगे) और अगले साल होनेवाले विधानसभा का चुनाव भी लड़ना चाहती हैं.
इरोम शर्मिला के इन 16 वर्षों के संघर्षों को देख कर दो तरह की बातें निकलती हैं. अगर आपमें संवेदना और ईमानदारी बची है, तो आपके मुंह से अनायास निकल आयेगा- अद्भुत. लेकिन, आपकी संवेदना अगर झूठी राष्ट्रवाद में तब्दील हो गयी है, तो आप कहेंगे- बिना कारण समय की बरबादी और प्रसिद्धि की चाह. लेकिन, इरोम के इस संघर्ष को इन दो खांचों से अलग ले जाकर भी देखने की जरूरत है, खासकर उस बात को, जिसमें वह कहती हैं कि अगले साल के विधानसभा चुनाव में वह स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ना चाहती हैं.
चुनाव लड़ने का सवाल पिछले कई दशकों से चल रहे विभिन्न तरह के अनुभवों के मद्देनजर काफी मायने रखता है. पिछले कई वर्षों से जिस तरह लोकतंत्र में चुनाव जीतना ही अंतिम सत्य मान लिया गया है, वह कहीं-न-कहीं सिविल सोसाइटी और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कई तरह के प्रश्नचिह्न खड़ा करता है.
इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण जेपी नारायण हैं, जो मुख्यधारा की राजनीति को छोड़ भूदान आंदोलन में शामिल हुए और अंत में फिर से मुख्यधारा की राजनीति में बड़े खिलाड़ी के रूप में लौटे. लेकिन, उसके बाद जो भी लोग वैकल्पिक परिवर्तन की बात करते रहे, वे उस समझदारी के साथ इसमें शामिल हुए थे कि सिर्फ राजनीति में समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि राजनीति के बिना भी बेहतर समाधान दिया जा सकता है. इसी समझदारी के इर्द-गिर्द देश के विभिन्न भागों में अनगिनत लोग अपनी तरह से समाज को बेहतर बनाने के लिए काम कर रहे हैं. लेकिन, इससे इतर कुछ लोगों ने अपनी लाइन बदली, जिसमें उन्हें लगा कि शायद राजनीति से भी परिवर्तन लाया जा सकता है.
इनमें अरविंद केजरीवाल के अलावा नर्मदा बचाओ आंदोलन के मेधा पाटकर व आलोक अग्रवाल, ओड़िशा में पास्को के खिलाफ लड़ रहे लिंगराज, झारखंड में सरकार और माफियाओं के खिलाफ लड़नेवाली दयामणि बारला, कुडानकुलम में एसपी उदय कुमार जैसे लोग हैं. ये लोग चुनावी असफलता के बाद फिर से अपने उसी काम में लग गये हैं, जिसके लिए वे जाने जाते रहे हैं.
मेरी सबसे बड़ी चिंता यही है कि अगर इरोम शर्मिला चुनाव जीत जाती हैं (जिसकी अपेक्षा मुझे है), तो क्या उनकी नियति भी अरविंद केजरीवाल की तरह ही होगी, जो चुनावी सफलता के बाद मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों या व्यक्तियों से किसी भी रूप में भिन्न नहीं है.
जो भी हो, इरोम शर्मिला का भूख हड़ताल खत्म करने का फैसला हर रूप में एक ऐतिहासिक फैसला है, जो भारतीय लोकतंत्र को लगातार आईना दिखाता रहेगा. रही बात उनके राजनीति में शामिल होने की, तो बीआर चोपड़ा के महाभारत में राही मासूम रजा ने एक बहुत ही शानदार वाक्य कहा था, जो बरबस मुझे याद आ गयी है- ‘राजनीति संभावनाओं के द्वार खोलता है’. और मुझे लगता है कि सचमुच कोई-न-कोई द्वार खुलेगा.
शांतिपूर्ण आंदोलनों के प्रति शासकीय सहानुभूति जरूरी
प्रकाश सिंह
पूर्व डीजीपी, उत्तर प्रदेश
किसी भी आंदोलन के प्रति राज्य सरकारों का रवैया सकारात्मक होना चाहिए, लेकिन यह सकारात्मकता आंदोलन की प्रकृति पर ही निर्भर करेगा. सरकार और आंदोलनकारियों के बीच में संवाद कायम करने और उनकी मांगों-जरूरतों को समझने के लिए सरकारों की सकारात्मकता कारगर हो सकती है.
लेकिन, सरकारों के रवैये का सकारात्मक होना इस बात पर भी निर्भर करता है कि आंदोलनकारियों की मांगें क्या हैं. अगर उनकी कोई शिकायत या मांग है, अपने समुदाय विशेष (जैसे कि आदिवासी हितों की मांग) को लेकर है, तो सरकार उनसे संवाद स्थापित कर उस मांग को मानने के लिए सोच-विचार कर सकती है और उचित लगने पर मान भी सकती है. लेकिन अगर आंदोलनकारियों की मांग राष्ट्र-विरोधी है या हिंसा को बढ़ावा देनेवाली है, तो सरकार के लिए उनकी मांग मानना मुश्किल है और यह उचित भी है.
अांदोलनकारियों की ऐसी मांग तो नहीं ही मानी जा सकती कि उन्हें आजाद भारत में भी आजादी चाहिए, जैसा कश्मीर में अलगाववादी मांग करते हैं कि भारत से कश्मीर को अलग कर दिया जाये. ऐसी मांगों के प्रति दंडात्मक कार्रवाई जरूरी हो जाती है, क्योंकि ये मांगें देश को बांटनेवाली होती हैं. यही वजह है कि जहां ऐसी मांगें होती हैं, वहां सरकारों की सकारात्मक सहानुभूति नहीं होती.
एक महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें यह भी देखना चाहिए कि किसी आंदोलन के पीछे कौन लोग हैं, अांदोलनकारियों की मंशा क्या है और उसका लक्ष्य क्या है. यह भी देखना जरूरी है कि कोई आंदोलन देश की एकता-अखंडता-संप्रभुता और देश की सांस्कृतिक-संवैधानिक पहचान को बनाये रखने में कितना सहायक है.
कहीं ऐसा तो नहीं कि वह आंदोलन हमारी एकता की बुनियादी बातों को तोड़ने, देश को कमजोर करने के लिए और कुछ अलगाववादी मानसिकता वालों को संबल प्रदान करने के लिए है? इसका जरूर विश्लेषण होना चाहिए. जाहिर है, यदि कोई आंदोलन देश की एकता-अखंडता-संप्रभुता को तोड़नेवाला होगा, तो सरकार उसके साथ सकारात्मक रवैया नहीं अपना पायेगी और अपनाना भी नहीं चाहिए.
जहां तक इरोम शर्मिला के पिछले 16 वर्षों से चले आ रहे आंदोलन का सवाल है, तो सरकार को उनके आंदोलन के प्रति बहुत सकारात्मक सहानुभूति रखनी चाहिए. इरोम कभी हिंसक नहीं रही हैं और उनकी मांग भी अपनी जगह ठीक है. किसी की बहुत जायज मांग से भी किसी दूसरे को असहमति हो सकती है. अगर सरकार को इरोम की मांगों से असहमति है, सरकार को उनकी मांग उचित नहीं जान पड़ती, तो भी सरकार को इरोम के प्रति अपना दृष्टिकोण और अपनी सहानुभूति को बहुत सकारात्मक रखना होगा, क्योंकि इरोम ने बहुत ही शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलन किया है.
इरोम ही नहीं, कोई भी अगर शांतिपूर्ण ढंग से आंदोलन करे और अपनी जायज मांगों को सरकार के सामने रखे, तो सरकार की यह जिम्मेवारी है कि वह उस आंदोलन के प्रति अपनी सकारात्मक दृष्टि ही नहीं रखे, बल्कि संवाद स्थापित कर उस आंदोलन को सफल बनाये. सरकार अगर जायज मांगों को लेकर संवेदनशील होगी, तो जाहिर है कि आंदोलनों में भी हिंसा की प्रवृत्ति नहीं पनपेगी. और ऐसे में आंदोलनकारियों का रवैया भी सरकारों के प्रति सकारात्मक रहेगा.
यहां एक महत्वपूर्ण बात और है.
जो लोग अपनी मुख्यधारा में रहते हुए अहिंसात्मक आंदोलन कर रहे हैं, उनका रवैया तो ठीक रहेगा. लेकिन, जो देश को तोड़नेवाले सांप की प्रवृत्ति वाले लोग हैं, उनके प्रति तो सरकार को दमनात्मक होना ही पड़ेगा. ऐसे लोग कभी सीधे नहीं चलते और न ही देश को एक करने के लिए कोई काम करते हैं.
देश के आदिवासी क्षेत्रों में बहुत से आंदोलन चल रहे हैं. आदिवासियों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को देखते हुए उनके प्रति हमें बहुत ही सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाना चाहिए.
आदिवासियों की मांगों को, उनके सामाजिक न्याय को और उनकी बुनियादी जरूरतों को हमें समझना चाहिए और उनकी हर न्यायोचित मांगों को पूरा किया जाना चाहिए. जहां तक आफ्स्पा कानून की बात है, इरोम की आफ्सपा को खत्म करने की मांग प्रथम दृष्टया तो सही है, लेकिन राज्यों की अंदरूनी हालत के मद्देनजर हमें इस कानून की जरूरत को समझना पड़ेगा, तभी संभव है कि इसमें कुछ सुधार हो सके. लेकिन, मसला यह है कि इस कानून को हटाने की मांग के पीछे कुछ लोगों की मंशा सुरक्षा बलों का मनोबल गिराने की होती है.
और इसके लिए सुरक्षा बलों पर कई उल्टे-सीधे आरोप भी लगाये जाते हैं. इसलिए, जहां ऐसे मसले हैं, वहां सुरक्षा बलों का मनोबल बनाये रखने के लिए कुछ विशेष कानूनी प्रावधान होना जरूरी है. फिर भी, अगर आफ्स्पा जैसे सख्त कानून में कुछ संशोधन जरूरी है, तो यह संशोधन कर दिया जाना चाहिए, ताकि जनता इस कानून की वजह से अपने को प्रताड़ित महसूस न करे. मेरे ख्याल में पिछली सरकार ने इसके लिए कुछ ड्राफ्ट भी बनाया था कि इस सख्त कानून में कुछ सुधार किया जाये.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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