विनोद कुमार
कुछ देर यहां-वहां भटकने के बाद वे उस टाउन हॉल के करीब पहुंच गये, जहां समन्वय समिति की बैठक होनेवाली थी. हॉल में बड़ी संख्या में विभिन्न झारखंडी संगठनों के कैडर और समर्थक जमा हो गये थे.
मंच की कुर्सियां भी भर चुकी थीं. मानव जिन्हें पहचान सके उनमें रामदयाल मुंडा, बीपी केसरी, सीपीआइ-एमएल के संतोष राणा, मार्क्सवादी समन्वय समिति के नेता कॉमरेड एके राय आदि मंच पर विराजमान थे. लेकिन, सबसे निराली धज आजसू कैडरों की थी. उन्होंने तमिल टाइगर्स जैसी फौजी पोशाक पहन रखी थी. कुछ के हाथों में दोनाली बंदूक और कुछ के हाथों में तीर-धनुष थे. उनसे घिरे बेसरा हॉल के बाहर-भीतर दनदनाते फिर रहे थे. मंच पर एक तरह से उन्हीं का कब्जा था.
मंच पर कोई गरज रहा था – “असम में छात्रों और वहां की जनता ने राजनीतिक दलों को उनकी औकात बता दी है. वे उनके लिए अप्रासंगिक हो गये हैं. वहां बहिरागतों के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व छात्र-नौजवान कर रहे हैं. झारखंड अलग राज्य का आंदोलन भी उस वक्त तक अपने मुकाम तक नहीं पहुंचेगा, जब तक यहां के छात्र-नौजवान आंदोलन की बागडोर अपने हाथ में नहीं ले लें. आजसू यही कर रही है. उसकी सक्रियता की ही वजह से केंद्र सरकार झारखंड अलग राज्य के मुद्दे पर बातचीत के लिए तैयार हुई है. हमने झारखंड की आर्थिक नाकेबंदी कर अपनी ताकत दिखा दी है….”
मानव, बागी व एक अन्य पत्रकार सुरेंद्र कुछ देर तो बाहर बरामदे से ही भाषण सुनते रहे, उसके बाद भीतर हॉल में पीछे की कतार में जाकर बैठ गये. मंच पर बैठे नेताओं में से और नीचे दर्शक दीर्घा से भी वक्ता नाम पुकारे जाने पर बारी-बारी से मंच पर अपनी बात रख रहे थे.
एक अन्य वक्ता ने कहा – “असम के आंदोलनकारियों ने स्टैंड लिया था कि जब तक बहिरागतों को वहां से निकाल बाहर नहीं किया जाता, उनके नाम मतदाता सूची से हटाये नहीं जाते, तब तक वहां वे चुनाव नहीं होने देंगे. झारखंड में भी हमें ‘झारखंड नहीं, तो चुनाव नहीं’ का नारा बुलंद करना होगा. अधिकतर झारखंडी संगठन इस मुद्दे पर एक राय नहीं हैं, लेकिन मुक्ति मोर्चा जैसे कुछ दल अपनी सत्ता लोलुपता की वजह से चुनाव से हटने के लिए तैयार नहीं हैं.
कुछ वक्ता चुनाव बहिष्कार के मुद्दे पर आजसू के प्रतिकूल विचार भी रखते थे. लेकिन आजसू के कमांडो दस्ते और उनके आक्रामक तेवर से सभी के होश उड़े हुए थे. डॉ मुंडा, केसरी जैसे बुद्धिजीवियों ने भी अपनी बात संभल कर रखी. लेकिन एक वक्ता ने प्रतिकूल विचार रख दिये.
“हम भारतीय लोकतंत्र का हिस्सा हैं. संसदीय राजनीति में हमारा विश्वास है. हमारे पास वोट से अपनी बात कहने का अवसर है. हम वोट से अपनी बातें क्यों न कहें? हमारे चुनाव बहिष्कार से भी चुनाव थमनेवाला नहीं. सरकार बनने से हम रोक नहीं सकते…. हम आपस में एका बनाकर चुनाव क्यों न लड़ें? यदि झारखंडी जनता हमारे साथ है, तो हम चुनाव के द्वारा भी अपने विरोधियों को शिकस्त दे सकते हैं.”
लेकिन बेसरा ने एक तरह से उनसे माइक छीन ली और दहाड़ा – “जो लोग चुनाव लड़ना चाहते हैं वे दरअसल सत्ता के दलाल हैं. उन्हें झारखंड अलग राज्य के आंदोलन से कोई लेना देना नहीं है. झारखंड की मांग आज की नहीं, वर्षों पुरानी है. सैकड़ों लोगों ने अलग राज्य के आंदोलन में अपनी कुर्बानी दे दी, लेकिन कुछ झारखंडी नेता अपनी हवस और लालच के लिए झारखंड आंदोलन को बार-बार बेच रहे हैं…. असम में छात्रों ने चुनाव बहिष्कार का नारा दिया और कामयाब हुए. हम भी झारखंड में उस वक्त तक चुनाव नहीं होने देंगे, जब तक झारखंड अलग राज्य बन नहीं जाता और जो लोग चुनाव के मैदान में उतरेंगे, उनका हम सक्रिय विरोध करेंगे. झारखंडी जनता सड़क पर उतर कर उनका विरोध करेगी.
हम झारखंड में खून की नदियां बहा देंगे. हमने ‘नो झारखंड, नो इलेक्शन’ का नारा दिया है. बोलिए कौन लोग इसके विरोध में हैं. झारखंडी जनता उन्हें सबक सिखाएगी. हम सरकार को बता देंगे कि झारखंडी जनता की मांग को नजरअंदाज करने का क्या नतीजा हो सकता है. हम कोयला की सप्लाई ठप कर देश के कल-कारखानों का चलना मुश्किल कर देंगे. हम झारखंड में आतंक का वह साम्राज्य कायम कर देंगे, जिससे केंद्र सरकार भी थर्रा जाये.”
मंच पर बैठे सभी लोगों को लगा कि जैसे सांप सूंघ गया हो. कुछ देर के लिए पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया.
सुरेंद्र ने धीमे स्वर में कहा – “इस तरह कहीं कोई सम्मेलन होता है? यह तो खुलेआम धमकी दे रहा है. कोई इसके खिलाफ बोलने का साहस तक नहीं कर रहा है…”
अचानक मंच के एक छोर पर बैठे कॉमरेड राय अपनी जगह से उठे और डायस की तरफ बढ़े. औसत से थोड़ा छोटा कद, मलिन भेस-भूषा, चेहरे पर एक निर्व्यक्त-सी हंसी.
बेसरा अपनी बात समाप्त कर चुके थे या फिर राय को देख माइक से हट गये. राय ने बिना किसी भूमिका के बोलना शुरू किया. उनके स्वर में गर्जन नहीं था, किसी तरह का हुंकार नहीं, ठंडे लोहे जैसी सर्द थी उनकी आवाज.
“तुम लोग टेरर की बात करता है. अभी स्टेट का टेरर देखा नहीं है. जब स्टेट का टेरर शुरू होगा, तो तुममें कोई यहां नजर नहीं आयेगा. भुगतना होगा झारखंडी जनता को. टेरर क्या होता है यह जानना हो तो मिजोरम और त्रिपुरा जाओ, कश्मीर जाओ. सेना किस तरह आतंक बरपा रही है, यह वहां जाकर देखो. वहां की जनता से पूछो. टेरर की बात करता है! एक बार गृहमंत्री ने बातचीत के लिए क्या बुला लिया, समझते हैं बडी जंग जीत ली.
इस तरह की बात एक बार नहीं, अनेक बार हो चुकी है. उन झारखंडी नेताओं के साथ हुई, जिनका वास्तव में झारखंडी जनता के बीच ‘मास बेस’ था. लेकिन झारखंड बना नहीं. तुम्हारे साथ जनता है कहां? चुनाव में एक सीट जीतने की तो औकात नहीं, चुनाव बहिष्कार की बात करते हैं. पहले जनता के बीच जाओ, उनका विश्वास जीतो, क्योंकि चुनाव बहिष्कार भी वही करा सकता है, जो चुनाव जीतने की क्षमता रखता है. असम की बात करते हैं.
असम में आंदोलनकारियों के आह्वान पर कर्फ्यू तोड़ कर लाखों औरत, मर्द और बच्चे सड़कों पर निकल आते थे. तुम्हारे बंद का कितना असर होता है? हाइवे को जाम कर दिया, रेलवे ट्रैक उखाड़ दिया. यही है न तुम्हारा बंद? इतने से काम नहीं चलनेवाला. बड़े आंदोलन के लिए जनता की बड़ी गोलबंदी और व्यापक भागीदारी चाहिए.”
पूरा हॉल सन्न रह गया.
किसी को उम्मीद नहीं थी कि राय इस तरह बोलेंगे. उसके बाद सभा नहीं चली. विधिवत समाप्ति की घोषणा तो कुछ देर बाद हुई, लेकिन कोई महत्वपूर्ण वक्ता बोलने के लिए सामने नहीं आया. राय भी अपनी बात रख कर मंच से नीचे उतर आये और पैदल ही अपने आवास सह कार्यालय के लिए निकल पड़े. मानव, बागी और सुरेंद्र भी हॉल के बाहर चले आये.
(‘रेड जोन’ उपन्यास से साभार)