बीते 57 साल से तिब्बत की आज़ादी के लिए लड़ रहे निर्वासित तिब्बती अब भारत में रहकर भारतीय नागरिकता हासिल करने के लिए भी लड़ने लगे हैं.
एक निर्वासित तिब्बती ने तो इसकी मांग के लिए दिल्ली हाइकोर्ट में जनहित याचिका तक दायर की है.
40-42 साल के तिब्बती लोबसंग वांग्याल ने जब पासपोर्ट के लिए आवेदन किया तो उनसे पासपोर्ट ऑफ़िस ने भारतीय नागरिकता का सुबूत मांगा.
दरअसल, कर्नाटक हाइकोर्ट के एक फ़ैसले के बाद भारत के निर्वाचन आयोग ने 2014 में सभी राज्यों को निर्देश जारी किए थे कि उन तिब्बतियों को मतदाता सूची में शामिल किया जाए, जो 26 जनवरी 1950 और एक जुलाई 1987 के बीच भारत में पैदा हुए हैं.
यह भी कहा गया कि सिटिज़नशिप एक्ट 1955 के सेक्शन (3) (1) (ए) के तहत ऐसा प्रावधान है. ऐसा आदेश जारी होते ही कुछेक तिब्बतियों ने मतदाता सूची में पंजीकरण करवाया और 2014 के लोकसभा चुनाव में वोट भी डाले. निर्वासित तिब्बत सरकार के केंद्र हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में इस साल मार्च के नगर निगम चुनाव में भी उन्होंने मताधिकार का इस्तेमाल किया.
सिटिज़नशिप एक्ट में साफ़ लिखा है कि माता-पिता की राष्ट्रीयता चाहे जो हो, इस दौरान यहां जन्म होने पर वो भारत के नागरिक हैं.
लोबसंग ने हाइकोर्ट के फ़ैसले, सिटिज़नशिप एक्ट और चुनाव आयोग के निर्देश के आधार पर गृहमंत्रालय में सर्टिफ़िकेट के लिए आवेदन किया तो उन्हें मज़ेदार जवाब मिले.
लोबसंग और डायरेक्टर (सिटीज़नशिप) प्रवीण होरो सिंह के बीच कुल आठ बार मेल के ज़रिए संवाद हुआ.
मंत्रालय से 17 अगस्त 2015 को मिले आख़िरी जवाब में उनसे कहा गया कि महज़ सिटिज़नशिप एक्ट के हिसाब से ही लोबसंग सीधे भारत के नागरिक नहीं बन जाएंगे. इसके लिए अलग से आवेदन करना होगा.
डायरेक्टर (सिटिज़नशिप) की ओर से पांच बिंदुओं पर दिए गए इस जवाब में कहा गया कि उन्हें सिटिज़नशिप एक्ट के सेक्शन 9 (2) के तहत अलग से नागरिकता के लिए आवेदन करना होगा. उन्हें अपना तिब्बबती रेफ़्यूजी सर्टिफ़िकेट और पहचान पत्र सरेंडर करना होगा.
साथ ही यह भी कहा कि तिब्बती लोग रजिस्ट्रेशन ऑफ़ फ़ॉरेनर्स एक्ट के तहत यहां पंजीकरण करवाते हैं और उसमें अपनी मौजूदा राष्ट्रीयता तिब्बती लिखते हैं. लिहाज़ा वे ख़ुद को भारत का नागरिक नहीं मानते. उन्हें भारत में रहने के लिए बाक़ायदा एक पहचान पत्र जारी किया जाता है. इससे साफ़ है कि वे तिब्बती नागरिक हैं.
आख़िर में लोबसंग ने नागरिकता के मामले में दिल्ली हाइकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर दी.
असलियत यह है कि लोबसंग जैसे मामलों में यदि कोई सिटिज़नशिप एक्ट के तहत सर्टिफ़िकेट के लिए आवेदन करता है, तो उसके लिए कोई तय गाइडलाइंस है ही नहीं.
यह कहीं साफ़ नहीं लिखा है कि उन्हें अलग से आवेदन करना होगा. लोबसंग को दिए गए सरकारी जवाब में कभी यह कारण बताया गया, तो कभी वो.
लोबसंग कहते हैं, ”तिब्बत नाम का कोई देश नहीं है. फिर हम तिब्बती नागरिक कैसे हुए? यदि किसी देश की नागरिकता हमारे पास होती, तब भी कहा जा सकता था कि गृह मंत्रालय की बात में दम है.”
वह आगे कहते हैं, "हम तो स्टेटलेस लोग हैं. जब भारत के सिटिज़नशिप एक्ट के तहत हम भारत के नागरिक हैं, तो फिर सिटिज़न सर्टिफ़िकेट देने में हर्ज़ क्या है. हमारी तिब्बत को लेकर लड़ाई अपनी जगह है और यह मामला अपनी जगह."
हालांकि बहुत से तिब्बतियों ने यह सोचकर मतदाता सूची में पंजीकरण नहीं करवाया कि ऐसा करने से उनका रिफ़्यूजी स्टेटस और मिशन तिब्बत प्रभावित होगा. मगर जिनके कारोबार भारत में जमे हुए हैं, वे और ज़्यादा भारतीय होना चाहते हैं.
दावा रिंचन तिब्बतियों के सेटलमेंट ऑफ़िसर हैं. उनका कहना है, ”दुनिया में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब लोगों ने दूसरे देश की नागरिकता लेकर अपने मुल्क की लड़ाई लड़ी. यदि कोई तिब्बती भारतीय नागरिकता लेता है, तो उससे हमारी लड़ाई पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा.”
दावा के मुताबिक़ इंडियन सिटिज़नशिप एक्ट में साफ़ है कि एक तय अवधि के दौरान पैदा हुए लोग भारतीय हैं लेकिन उन्हें नागरिकता कैसे मिले, इस बारे में स्थिति साफ़ नहीं है.
वे कहते हैं, ”हमारे भारतीय पासपोर्ट नहीं बनाए जाते जबकि विभिन्न अदालतों ने व्यक्तिगत मामलों में पासपोर्ट देने के आदेश भी दिए हैं. वैसे हम स्टेटलेस लोग हैं. लेकिन अब कुछ लोगों के पास भारतीय निर्वाचन आयोग के फ़ोटो पहचान पत्र हैं. राशन कार्ड और बैंक अकाउंट नंबर तो हैं ही. बावजूद इसके हमें इंडियन पासपोर्ट नहीं दिया जाता.”
हालांकि उम्मीद यही है कि लोबसंग मामले में दिल्ली हाइकोर्ट के फ़ैसले के बाद निर्वासित तिब्बतियों को भारतीय नागरिकता देने के बारे में स्थिति और साफ़ होगी.
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