कश्मीर घाटी एक बार फिर उबाल पर है. आठ जुलाई से हो रही हिंसक घटनाओं में 42 लोग मारे जा चुके हैं और सैकड़ों लोग घायल हैं. बीते सालों में जहां सीमापार से घुसपैठ तथा आतंकवादी घटनाओं में बड़ी कमी आयी है, वहीं विरोध प्रदर्शनों तथा सुरक्षाबलों की कार्रवाइयों की संख्या बढ़ती गयी है. पिछले दशक की शांति का दौर किसी दूर अतीत-सा दिखता है.
कश्मीर समस्या के स्थायी समाधान की किसी उम्मीद की बात क्या करना, तनावपूर्ण अशांति को रोक पाने की तात्कालिक संभावना भी नजर नहीं आती. निश्चित रूप से केंद्र और जम्मू-कश्मीर की सरकारें जनता के भरोसे को बहाल करने में नाकाम रही हैं तथा अलगाववादी खेमे अपने निहितार्थों के लिए इस माहौल का लाभ उठाने का कोई भी मौका चूक नहीं रहे हैं. भारत और पाकिस्तान के बीच भी संवाद का अभाव है. इस परिस्थिति को लेकर प्रस्तुत है एक विस्तृत विश्लेषण आज के संडे-इश्यू में…
बनते-िबगड़ते हालात
वर्ष 2002 का शांति का दौर
वर्ष 2002 के चुनाव के बाद बनी मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार ने केंद्र में सत्तारूढ़ वाजपेयी सरकार के सहयोग से घाटी में विश्वास और अमन-चैन स्थापित करने में बड़ी कामयाबी पायी थी. उस चुनाव में घाटी की जनता ने बड़े पैमाने पर भाग लिया था तथा उसकी निष्पक्षता की व्यापक सराहना हुई थी. राज्य में पहली बार ऐसा हुआ था कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार में परस्पर विरोधी दल शामिल थे. राजनीतिक विरोधों को परे रख कर पीडीपी-कांग्रेस की राज्य सरकार तथा केंद्र की वाजपेयी सरकार ने कश्मीर में अनेक सकारात्मक पहलें की थीं. उस समय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत’ का सूत्र दिया था. अलगाववादियों से बातचीत, गुमराह युवाओं को मुख्यधारा में लाने तथा उग्रवादियों को समर्पण करा कर उनके पुनर्वास के कार्यक्रम शांति और विश्वास बहाल करने में सहायक हुए थे.
2003 से 2007 तक युद्धविराम
नवंबर, 2003 में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्धविराम होने से भी कश्मीर में स्थिरता बहाल करने में बड़ी मदद मिली. वर्ष 2004, 2005 और 2007 में युद्धविराम के उल्लंघन की एक भी घटना नहीं हुई थी, जबकि 2002 में 8376 तथा 2003 में 2045 ऐसी घटनाएं हुई थीं. रावलपिंडी और मुजफ्फराबाद सड़क खुलने से नियंत्रण रेखा के दोनों ओर बसे कश्मीरी आपस में मिल-जुल सके. वाजपेयी ने जनवरी, 2004 में घाटी के अलगाववादी नेताओं के साथ भी विचार-विमर्श किया.
वर्ष 2005 में गठबंधन की शर्तों के अनुरूप मुफ्ती मोहम्मद सईद ने पद छोड़ दिया और उनकी जगह सरकार की कमान कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद ने संभाली. तब केंद्र में कांग्रेसनीत गठबंधन सत्तासीन हो चुका था. हालांकि इस दौरान आतंकवादियों द्वारा नरसंहारों का सिलसिला भी बरकरार रहा था, पर ठोस पहलों से कश्मीर समस्या के स्थायी समाधान की उम्मीद तो बंधी ही थी. दुर्भाग्यवश, कश्मीर की किस्मत में यह दौर बहुत लंबे समय तक नहीं रह सका और 2008 आते-आते घाटी फिर से अशांत हो गयी.
वर्ष 2008 के प्रदर्शन
भारत सरकार और राज्य सरकार के बीच 26 मई, 2008 को 99 एकड़ वन भूमि अमरनाथ मंदिर को देने पर सहमति बनी. कश्मीर घाटी में इस फैसले के विरोध में तथा जम्मू में इसके पक्ष में प्रदर्शन शुरू हो गये. घाटी में सुरक्षाबलों की कार्रवाई में कुछ प्रदर्शनकारियों की मौत के बाद तनाव बहुत बढ़ गया और जुलाई तथा अगस्त के महीने बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए. इसी बीच मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टी पीडीपी ने गुलाम नबी आजाद सरकार से अपना समर्थन वापस ले किया तथा मुख्यमंत्री ने जुलाई के पहले हफ्ते में अपना इस्तीफा दे दिया. अगस्त में मुजफ्फराबाद के पास सुरक्षाबलों की गोलीबारी में एक प्रमुख नरमपंथी अलगाववादी नेता शेख अब्दुल अजीज समेत 15 लोग मारे गये. बाद के दिनों में मौतों का सिलसिला जारी रहा.
वर्ष 2009 में प्रदर्शन
शोपियां में 29 मई, 2009 को दो महिलाओं के कथित बलात्कार और हत्या तथा पुलिस के रवैये से आक्रोशित कश्मीरियों ने विरोध प्रदर्शन किये. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला द्वारा न्यायिक जांच की घोषणा का भी कोई खास असर नहीं पड़ा. इससे पहले 21 फरवरी को सेना की गोलीबारी में बोमाई में दो ग्रामीणों की मौत को लेकर भी बहुत हंगामा हो चुका था.
वर्ष 2010 के प्रदर्शन और जनसंहार
कश्मीर घाटी में जून, 2010 से प्रदर्शनों का लंबा और हिंसक दौर शुरू हुआ. अलगाववादी संगठनों ने इस आंदोलन का नाम ‘जम्मू-कश्मीर छोड़ो’ दिया था और कश्मीर से सेना हटाने की मांग रखी थी. तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इस विरोध का मुख्य कारण मचिल में सेना द्वारा फर्जी मुठभेड़ में कश्मीरी युवकों की हत्या बताया था. प्रदर्शनों पर नियंत्रण पाने की कोशिश में सुरक्षाबलों की कार्रवाई में सौ से अधिक लोग मारे गये थे. कश्मीर की ताजा अस्थिरता की जड़ें इस प्रदर्शन और सेना के रवैये में
बतायी जाती हैं.
अफजल गुरु की फांसी
भारतीय संसद पर 2001 में हुए हमले के आरोप में दोषी अफजल गुरु को नौ फरवरी, 2013 को दिल्ली के तिहाड़ जेल में फांसी दे दी गयी थी. इस फैसले की आधिकारिक सूचना गुरु के परिवार के पास फांसी के दो दिन बाद मिली थी. फांसी के विरोध में घाटी में तथा दिल्ली में रह रहे कश्मीरियों ने प्रदर्शन किया था.
दो युवकों की हत्या
इस वर्ष अप्रैल में हंदवारा में सुरक्षाबलों द्वारा कथित छेड़खानी के दौरान हुए विरोध प्रदर्शन पर गोलीबारी में दो युवा मारे गये थे. इस पूरे प्रकरण को लेकर घाटी में कई दिनों तक तनाव रहा था.
8 जुलाई, 2016 से अब तक
आठ जुलाई को हिजबुल कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से प्रदर्शनों का दौर जारी है. घाटी के सभी जिलों में कर्फ्यू है और मीडिया तथा इंटरनेट पर रोक लगी हुई है. प्रदर्शनकारियों और सुरक्षाबलों की हिंसक झड़पों में अब तक 42 लोग मारे जा चुके हैं तथा सैकड़ों लोग घायल हैं.
कश्मीरियों के गुस्से को समझना जरूरी
कश्मीर समस्या से निजात का सबसे जरूरी पहलू है कि कश्मीरी अवाम को बातचीत में शामिल किया जाये. वे क्या चाहते हैं, इसे समझा जाये. कश्मीर को भी वे सारी सुविधाएं मिलनी चाहिए, जो एक विकसित राज्य के लिए जरूरी होती हैं.
सीमा मुस्तफा संपादक, द सिटिजन
कश्मीर के मौजूदा दहशत भरे माहौल की वजहों को समझने के लिए हमें थोड़ा सा पीछे जाना पड़ेगा. 1990 के दशक में कश्मीर घाटी में जब आतंक का माहौल बना था, तब वहां बाहर से लोग आकर कश्मीर को अशांत करना शुरू किये थे. उस वक्त कश्मीर का माहौल खराब करने में सीमा पार पाकिस्तान से ढेर सारे मिलिटेंट और कई आतंकी समूह, जैसे लश्कर वगैरह, सीधे तौर पर जुटे और जुड़े हुए थे. ऐसा कहा जा सकता है कि तब वे समूह कश्मीर में आतंकी गतिविधियों को अंजाम दे रहे थे, लेकिन आज की हालत कुछ दूसरी है.
आज तमाम तरह की अंदर-बाहर वाली परेशानियों से घिरे कश्मीर के युवाओं में आक्रोश, झल्लाहट, गुस्सा है. भूले से भी मैं इन युवाओं के लिए आतंकवादी शब्द का इस्तेमाल नहीं करती और न ही किसी दूसरे भारतीय को ऐसा कहना चाहिए कि कश्मीरी युवा आतंकवादी हैं. ऐसा कहना उनके साथ अन्याय करना होगा. वे अपने ही देश के युवा हैं, थोड़ा परेशान हैं, इसलिए गुस्से में हैं. कश्मीर में अंदरूनी तौर पर कई तरह की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परेशानियों के चलते अरसे से उनमें गुस्सा पल रहा है, जो अब बहुत ही ज्यादा मुश्किल और खतरनाक हो गया है, कश्मीर के लिए भी और हम सबके लिए भी.
जब कश्मीर में उमर अब्दुल्ला की सरकार थी, तब उसका रवैया वही था, जैसा मौजूदा राज्य सरकार का है. कश्मीर को लेकर नयी दिल्ली की राजनीति कश्मीर को काफी परेशान करनेवाली होती है. हालांकि, यूपीए सरकार के दौरान भी हालात कुछ ठीक नहीं थे, लेकिन एनडीए सरकार बनने के बाद पिछले दो साल में तो कश्मीर के हालात और भी खराब हो गये हैं, क्योंकि भाजपा धारा 370 पर सवाल खड़ा करने और कश्मीरी पंडितों के लिए अलग से कॉलोनी बसाने की बात करती है. जबकि, इस तरह की बातों के बीच कश्मीरियों से कहीं कोई बातचीत नहीं होती है, तो वे सशंकित होते हैं कि उनको शामिल किये बिना ही सारी बातें की जा रही हैं.
मौजूदा कश्मीर की हालत पर एक नजर डालें, तो आप पायेंगे कि कश्मीर में बेरोजगारी ज्यादा है, उद्योग नहीं है, उनके लिए कोई अवसर नहीं है, कोई काम नहीं है, कोई नीति नहीं है और कश्मीरियों से सरकार की कोई बातचीत नहीं है, यानी ऐसा लगता है कि बिल्कुल ही उन्हें एक तरफ फेंक दिया गया है. उनके लिए एक अदद सिनेमाघर नहीं है कि वे जाकर वहां अपना मन बहला सकें. दिनभर बंदूकों के साये में रहने को मजबूर वहां चार लोग एक साथ खड़े होकर चाय भी नहीं पी सकते. यानी बच्चे-बूढ़े-नौजवान सब खौफ के साये में जीने को मजबूर हैं. अब ऐसे में आजाद भारत के एक राज्य में इतनी पाबंदी के बाद जब दिल्ली में बैठे लोग उनके बुनियादी हकों की बात न कर, बेवजह की बातें करते हैं, तो कश्मीरी युवाओं में आक्रोश को ही बढ़ाते हैं.
जाहिर है, यह आक्राेश कहीं-न-कहीं से तो बाहर निकलेगा ही. सरकार को इस गंभीरता को समझना चाहिए. हम बड़े गर्व से कहते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है. अच्छी बात है.
तो फिर अपने अभिन्न हिस्से के साथ कम-से-कम अभिन्न की तरह व्यवहार भी करना चाहिए और यह नहीं कहना चाहिए कि हर कश्मीरी आतंकवादी है या हर कश्मीरी पाकिस्तानी है. अगर कश्मीर के लोगों में किसी बात का गुस्सा है, तो देश को चाहिए कि उनसे बात करे. अगर देश ही कहेगा कि उसके लोग दुश्मन हैं, तो फिर वह दुश्मन करेंगे भी क्या, सिवाय गुस्से में प्रोटेस्ट करने के और सेना की गोलियों के शिकार होने के!
इसलिए कश्मीर समस्या से निजात का सबसे जरूरी पहलू है कि कश्मीरी अवाम को बातचीत में शामिल किया जाये. वे क्या चाहते हैं, इसे समझा जाये. कश्मीर को भी वे सारी सुविधाएं मिलनी चाहिए, जो एक विकसित राज्य के लिए जरूरी होती हैं. वहां उद्योगों की स्थापना होनी चाहिए. हर कश्मीरी के हाथ काम होना चाहिए. अच्छे शैक्षणिक संस्थान होने चाहिए. सर्वांगीण विकास की नीति बननी चाहिए. कश्मीर मसले के हल में ये सभी चीजें बहुत अहम किरदार अदा कर सकती हैं.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
पंडितों को लेकर सिर्फ राजनीति!
बमुश्किल तीन लाख के आसपास कश्मीरी पंडित हैं. अगर उन्हें वापसी का मौका भी मिले, तो उसमें से ज्यादा से ज्यादा एक लाख ही वापस जायेंगे. और अगर वे जायेंगे भी, तो करेंगे क्या, यह एक बड़ा सवाल है…
राजेश एस जाला फिल्मकार
कश्मीरी पंडितों की वापसी तभी हो सकती है, जब कश्मीर का नागरिक समाज चाहेगा. अब चूंकि नागरिक समाज पर अलगाववादियों का कब्जा है, इसलिए यह मुश्किल है, क्योंकि अलगाववादी नहीं चाहते कि कश्मीरी पंडितों की वापसी हो. इसके पीछे उनका तर्क है कि कश्मीरी पंडितों की वापसी से कश्मीरियत खतरे में आ जायेगी. यह तर्क समझ से परे है, क्योंकि भारत के हर हिस्से में बहुसंख्यकों के साथ अल्पसंख्यकों की कोशिश होती है कि वे घुल-मिल कर रहें.
दरअसल, हर जगह का अल्पसंख्यक तबका डरा हुआ होता है. गुजरात में मुसलमान डरा रहता है और वह चाहता है कि अहमदाबाद में एक जगह रहे. दिल्ली में सिख तिलक नगर के आसपास और मुसलिम या तो जामिया की तरफ या चांदनी चौक या जामा मसजिद के आसपास रहते हैं.
इसका कारण यह है कि उनके अंदर डर बैठा हुआ है कि पता नहीं कब क्या हो जाये. कश्मीर में भी ऐसी जगहें, कॉलोनियां दशकों से हैं. श्रीनगर के त्राल गांव में हजारों की संख्या में सिख रहते हैं. शिया भी कश्मीर के कई शहरों में एक ही जगह पर रहते हैं. लेकिन, अगर इसी तरह रहने की बात कश्मीरी पंडित करता है, तो वहां के अलगाववादियों को परेशानी होने लगती है और वे कहने लगते हैं कि कश्मीरी पंडितों को अपने घरों में जाना चाहिए.
भारत का मीडिया, कश्मीर का मीडिया, वहां का नागरिक समाज अलगाववादियों से यह क्यों नहीं पूछता कि जब 80 प्रतिशत से ज्यादा कश्मीरी पंडितों के पास घर है ही नहीं, तो वे किस घर में जायें? जिन तकरीबन 20 प्रतिशत कश्मीरी पंडितों के घर बचे हुए हैं, उन पर भी गैरकानूनी अधिग्रहण हैं.
ऐसे में यह तभी संभव होगा, जब वहां का बहुसंख्यक नागरिक समाज अपनी जिम्मेवारी समझते हुए कश्मीरी पंडितों को स्वीकार करे.
यहां एक दूसरी बात बहुत ही हास्यास्पद लगती है. वह यह कि बमुश्किल तीन लाख के आसपास कश्मीरी पंडित हैं. अगर उन्हें वापसी का मौका भी मिले, तो उसमें से ज्यादा से ज्यादा एक लाख ही वापस जायेंगे. और अगर वे जायेंगे भी, तो करेंगे क्या, यह एक बड़ा सवाल है, क्योंकि वहां न तो कोई उद्योग है और न ही रोजगार की कोई व्यवस्था है. अब कल्पना कीजिये कि अगर एक लाख कश्मीरी पंडित वहां जाते हैं, तो क्या इससे कश्मीरियत खतरे में पड़ जायेगी?
क्या एक लाख कश्मीरी पंडितों से 70-80 लाख कश्मीरी मुसलमान डर रहे हैं? क्या ऐसा संभव है कि ये कश्मीरी पंडित उनका कुछ बुरा कर पायेंगे, जो सदियों से अहिंसक रहे हैं? कुल मिला कर कश्मीरी पंडितों की ना-वापसी का तर्क एक दिखावा है और अलगाववादी चाहते ही नहीं हैं कि वे सब घुल-मिल कर रहे.
दूसरी तरफ, कश्मीरी पंडितों की वापसी को लेकर सिर्फ राजनीति हो रही है, जमीन पर कहीं कुछ दिखाई नहीं दे रहा है.
कश्मीरी पंडितों की वापसी का राग अलापना भारतीय राजनीति को बहुत अच्छा लगता है और इससे राजनेताओं का हित सधता है. उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है कि कौन किस परेशानी में है. एक अहम बात यह भी है कि हमारी सरकारों की कोई मंशा ही नहीं है कि कश्मीरी पंडितों की वापसी हो. अगर होती, तो सबसे पहले उनके लिए घरों का निर्माण करतीं, कॉलोनियां बसातीं, उद्योग-धंधे लगा कर उन्हें रोजगार मुहैया करातीं. सरकारें सिर्फ बयानबाजी करती हैं, दिखावा करती हैं, धरातल पर कुछ नहीं करतीं. यही दशकों से होता आया है और आगे भी ऐसा ही होता रहेगा.
(बातचीत पर आधारित)
कश्मीर के इतिहास की कैद में भविष्य
अशोक कुमार पांडेय
लेखक
कश्मीर के भारत में विलय के शर्तनामे पर दस्तखत हुआ और 361 वर्षों बाद एक कश्मीरी फिर कश्मीर का प्रशासक बना- शेख अब्दुल्लाह.
कल्हण ने राजतरंगिणी में लिखा है कि कश्मीर को आध्यात्मिक शक्ति से तो जीता जा सकता है, लेकिन सैन्य शक्ति से नहीं. पौराणिक आख्यानों को छोड़ दें, तो कश्मीर का प्रमाणिक इतिहास सम्राट अशोक के काल से मिलता है, जिसने वहां बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया. लेकिन, कश्मीर में बौद्ध धर्म की स्थापना हूण वंश के राजा कनिष्क के समय हुई. कश्मीर में विकसित हुए शैव धर्म और इसलाम के सूफी मत पर इसका गहरा प्रभाव है.
अलग तरह का शैव दर्शन विकसित
कश्मीर में आठवीं-नौवीं शताब्दी में अपने तरह का शैव दर्शन विकसित हुआ. यह विभिन्न अद्वैत और तांत्रिक धार्मिक परंपराओं का एक समुच्चय है. इस दर्शन ने कश्मीर जनजीवन पर ही नहीं, अपितु पूरे दक्षिण एशिया की शैव परंपरा पर गहरा प्रभाव डाला. नौवीं से 12वीं सदी के बीच बौद्ध धर्म का प्रभाव क्षीण होता गया और शैव दर्शन कश्मीर का सबसे प्रभावी दर्शन बन गया. शैव राजाओं में सबसे पहला और प्रमुख नाम मिहिरकुल का है, जो हूण वंश का था, लेकिन कश्मीर पर विजय पाने के बाद उसने शैव धर्म अपना लिया था.
हूण वंश के बाद गोनंद द्वितीय और कार्कोटा नाग वंश का शासन हुआ, जिसके राजा ललितादित्य मुक्तपीड को कश्मीर के सबसे महान राजाओं में शामिल किया जाता है. वह न केवल एक महान विजेता था, बल्कि उसने अपनी जनता को आर्थिक समृद्धि उपलब्ध कराने के साथ-साथ मार्तंड के सूर्य मंदिर जैसे महान निर्माण कार्य भी करवाये थे. इस क्रम में अगला नाम 855 ईसवी में सत्ता में आये उत्पल वंश के अवंतिवर्मन का लिया जाता है, जिनका शासन काल कश्मीर के सुख और समृद्धि का काल था. उसके 28 साल के शासन काल में मंदिरों आदि का निर्माण बड़े पैमाने पर हुआ. प्रसिद्ध वैयाकरणिक रम्मत, मुक्तकण, शिवस्वामिन और कवि आनंदवर्धन तथा रत्नाकर उसकी राजसभा के सदस्य थे. कश्मीर के इस दौर में संस्कृत साहित्य के सृजन का उत्कर्ष देखा जा सकता है.
शुरू हुआ हिंदू राजाओं का पतन
अवंतिवर्मन की मृत्यु के बाद हिंदू राजाओं के पतन का काल शुरू हो गया. ऐसे ही एक राजा क्षेमेंद्र गुप्त का राज्यकाल पतन की पराकाष्ठा का काल था. जयसिम्हा का राज्यकाल भी इस पतन को नहीं रोक पाया और कश्मीर की किस्मत में हर्ष जैसा ऐय्याश राजा भी आया.
कश्मीर का पहला मुसलिम शासक
अंततः जब एक मंगोल आक्रमणकारी दुलचा ने कश्मीर पर आक्रमण किया, तो तत्कालीन राजा सहदेव भाग खड़ा हुआ और इस अवसर का फायदा उठा कर तिब्बत से आया एक बौद्ध रिंचन अपने मित्र तथा सहदेव के सेनापति रामचंद्र की बेटी कोटारानी के सहयोग में कश्मीर की गद्दी पर बैठा. उसने इसलाम अपना लिया और इस तरह कश्मीर का पहला मुसलिम शासक हुआ. कालांतर में शाहमीर ने कश्मीर की गद्दी पर कब्जा कर लिया और अगले 222 वर्षों तक उसके वंशजों ने कश्मीर पर राज किया. आरंभ में ये सुल्तान सहिष्णु रहे, लेकिन हमादान से आये शाह हमादान के समय में शुरू हुआ इसलामीकरण सुल्तान सिकंदर के समय अपने चरम पर पहुंच गया.
कश्मीर का सबसे गौरवशाली काल
साल 1417 में जैनुल आबदीन गद्दी पर बैठा और उसने अपने पिता तथा भाई की सांप्रदायिक नीतियों को पूरी तरह से बदल दिया. उसका आधी सदी का शासनकाल कश्मीर के इतिहास का सबसे गौरवशाली काल माना जाता है. जनता के हित में किये उसके कार्यों के कारण ही कश्मीरी इतिहास में उसे बड शाह यानी महान शासक कहा जाता है. जैनुल आबदीन के बाद शाहमीर वंश का पतन शुरू हो गया और इसके बाद चक वंश सत्ता में आया, जिसका समय कश्मीर में बरबादी का समय माना जाता है.
गैर-कश्मीरियों का शासन
16 अक्तूबर, 1586 को मुगल सिपहसालार कासिम खान मीर ने चक शासक याकूब खान को हरा कर कश्मीर पर मुगलिया सल्तनत का परचम फहराया, तो फिर अगले 361 सालों तक घाटी पर गैर-कश्मीरियों का शासन रहा- मुगल, अफगान, सिख, डोगरे. अकबर से लेकर शाहजहां का समय कश्मीर में सुख और समृद्धि के साथ-साथ सांप्रदायिक सद्भाव का था, लेकिन औरंगजेब और उसके बाद के शासकों ने इस नीति को पलट दिया तथा हिंदुओं के साथ शिया मुसलमानों के साथ भी भेदभाव की नीति अपनायी गयी. मुगल वंश के पतन के साथ कश्मीर पर उनका नियंत्रण भी समाप्त हो गया और 1753 में अहमद शाह अब्दाली के नेतृत्व में अफगानों ने कश्मीर पर कब्जा कर लिया. अगले 67 सालों तक कश्मीर लूटा-खसोटा जाता रहा.
अफगान शासन की एक बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें प्रशासनिक पदों पर स्थानीय मुसलमानों की जगह कश्मीरी पंडितों को तरजीह दी गयी. ट्रेवेल्स इन कश्मीर एंड पंजाब में बैरन ह्यूगल लिखते हैं कि पठान गवर्नरों के राज में लगभग सभी सर्वोच्च पदों पर कश्मीरी पंडित थे. अफगान शासन के अंत के लिए भी अंतिम गवर्नर राजिम शाह के राजस्व विभाग के प्रमुख एक कश्मीरी पंडित बीरबल धर ही जिम्मेवार हैं, जिन्होंने सिख राजा रणजीत सिंह को कश्मीर आने का न्यौता दिया.
सिख शासन की स्थापना
इस तरह 15 जून, 1819 को कश्मीर में सिख शासन की स्थापना हुई, बीरबल धर फिर से राजस्व विभाग के प्रमुख बनाये गये और मिस्र दीवान चंद कश्मीर के गवर्नर. दीवान चंद के बाद कश्मीर की कमान आयी मोती चंद के हाथों और शुरू हुआ मुसलमानों के उत्पीड़न का दौर. श्रीनगर की जामा मसजिद बंद कर दी गयी, अजान पर पाबंदी लगा दी गयी, गोकशी की सजा अब मौत थी और सैकड़ों कसाइयों को सरेआम फांसी दे दी गयी.
वर्ष 1839 में रणजीत सिंह की मौत के साथ लाहौर का सिख साम्राज्य बिखरने लगा. लाहौर में फैली अफरातफरी का फायदा उठा कर अंगरेजों ने 1845 में लाहौर पर आक्रमण कर दिया और अंततः 10 फरवरी, 1846 को सोबरांव के युद्ध में निर्णायक जीत हासिल की. इसके बाद 16 मार्च, 1846 को अंगरेजों ने गुलाब सिंह के साथ अमृतसर संधि की, जिसमें 75 लाख रुपयों के बदले उन्हें सिंधु के पूरब और रावी नदी के पश्चिम का जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के इलाके की सार्वभौम सत्ता दी गयी. इस तरह गुलाब सिंह ने जम्मू और कश्मीर का राज्य अंगरेजों से खरीदा और यह पहली बार हुआ कि ये तीन क्षेत्र एक साथ मिल कर स्वतंत्र राज्य बने. खुद को अंगरेजों का जरखरीद गुलाम कहनेवाला यह राजा और उसका खानदान ताउम्र उनका वफादार रहा.
1931 में विद्रोह फूटा
राजा हरि सिंह का राज्य आते-आते बहुसंख्यक मुसलिम आबादी का गुस्सा फूटने लगा और इन क्षेत्रों में 1931 में विद्रोह फूट पड़ा, तो राजा ने भयानक दमन किया. लेकिन अब यह आग रुकनेवाली नहीं थी. शेख अब्दुल्लाह के नेतृत्व में बनी मुसलिम काॅन्फ्रेंस 11 जून, 1939 को नेशनल काॅन्फ्रेंस बन गयी और कांग्रेस के साथ मिल कर देश के मुक्ति आंदोलन का हिस्सा बनी. वर्ष 1946 में शेख अब्दुल्लाह ने कश्मीर छोड़ो आंदोलन शुरू किया. जब देश आजाद हो रहा था, तो महाराजा हरि सिंह ने पहले तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान दोनों से अपने लिए आजादी की मांग की और टालमटोल करता रहा. उस समय नेहरू ने गृह मंत्री पटेल को लिखे पत्र में कहा कि पाकिस्तान की रणनीति कश्मीर में घुसपैठ करके किसी बड़ी कार्यवाही को अंजाम देने की है.
राजा के पास इकलौता रास्ता नेशनल कॉन्फ्रेंस से तालमेल कर भारत के साथ जुड़ने का है. यह पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर आधिकारिक या अनाधिकारिक हमला मुश्किल कर देगा. काश यह सलाह मान ली गयी होती! जब पाकिस्तान ने कबायलियों के भेस में आक्रमण कर दिया, तो राजा के पास भारत से जुड़ने के अलावा कोई चारा न बचा. भारत में विलय के शर्तनामे पर दस्तखत हुआ और 361 वर्षों बाद एक कश्मीरी फिर कश्मीर का प्रशासक बना- शेख अब्दुल्लाह.
इतिहास के तथ्य अपनी जगह रह जाते हैं, भविष्य उनके सही-गलत की पहचान करता है. इसके बाद का कश्मीर का किस्सा इतिहास की कैद में उलझे भविष्य का किस्सा है.