दक्षा वैदकर
वॉ ट्सएप्प पर एक मैसेज इन दिनों खूब चल रहा है. यह छोटी-सी कहानी है या यूं कहें कि किसी के साथ घटी छोटी-सी सीख देने वाली घटना है. कहानी कुछ इस तरह है- एक पान वाला था. जब भी उसके पास पान खाने जाओ, ऐसा लगता कि वह हमारा ही रास्ता देख रहा हो. हर विषय पर बात करने में उसे बड़ा मजा आता था. कई बार उसे कहा भी कि भाई देर हो जाती है, जल्दी पान लगा दिया करो, पर उसकी बात खत्म ही नहीं होती थी. एक दिन अचानक कर्म और भाग्य पर बात शुरू हो गयी.
तकदीर और तदबीर की बात सुन मैंने सोचा कि चलो आज उसकी फिलासफी देख ही लेते हैं. मैंने एक सवाल उछाल दिया. मेरा सवाल था कि आदमी परिश्रम से आगे बढ़ता है या भाग्य से? और उसके जवाब से मेरे दिमाग के सारे जाले ही साफ हो गये. वह कहने लगा, आपका किसी बैंक में लाॅकर तो होगा? उसकी चाबियां ही इस सवाल का जवाब है. हर लाॅकर की दो चाबियां होती हैं. एक आप के पास होती है और एक मैनेजर के पास.
आप के पास जो चाबी है, वह है परिश्रम की चाबी और मैनेजर के पास जो चाबी है, वह है भाग्य वाली चाबी. जब तक दोनों लॉकर में नहीं लगतीं, ताला नहीं खुल सकता. यहां आप कर्मयोगी पुरुष हैं और मैनेजर भगवान. अापको अपनी चाबी भी लगाते रहना चाहिए. पता नहीं ऊपर वाला कब अपनी चाबी लगा दे. कहीं ऐसा न हो कि भगवान अपनी भाग्यवाली चाबी लगा रहा हो और हम परिश्रम वाली चाबी न लगा पायें और ताला खुलने से रह जाये.
यह कहानी उनके लिए है, जो सब कुछ भाग्य पर छोड़ देते हैं. अगर कोई चीज न मिले, तो कहते हैं कि भगवान की इच्छा नहीं थी. यदि उन्हें किसी चीज के लिए प्रयास करने को कहा जाये, तो कहेंगे कि अगर मेरे भाग्य में होगा, तो खुद-ब-खुद मिल जायेगा.
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