प्रो (डॉ) योगेंद्र प्रसाद राय
हूल एक सशस्त्र विद्रोह था, जिसके समानांतर न तो भारत वर्ष और न तो विश्व के किसी अन्य देश में ही कोई घटना घटित हुई. स्थापित व्यवस्था को पलट देने का यह एक महान प्रयास था, जिसे यदि स्थानीय राजा-जमींदारों का सहयोग मिलता, तो यह संताल विद्रोह नहीं, संताल क्रांति कही जाती. 17वीं एवं 18वीं शताब्दी में विश्व के अन्य देशों में शोषण व उत्पीड़न के विरुद्ध होनेवाली क्रांतियों की तरह 19वीं शताब्दी के मध्य में (30 जून 1855- 17 मार्च 1856) बिहार, बंगाल व झारखंड के इतिहास में होनेवाला संताल हूल (विद्रोह) आधुनिक भारतीय इतिहास की एक महान घटना थी.
यह संताल परगना के संताल लोगों का हुंकार था, जो सहज ही जनमानस की एक स्वाभाविक घटना बन गयी थी. अंगरेजों की बंदूक के सामने तीर-धनुष से लाेहा लिया गया था. इससे संतालों के उत्साह का अंदाजा लगाया जा सकता है. यह घटना सुनियोजित थी और इसमें सविराम गति भी थी. तत्कालीन सामाजिक गतिरोध और स्थापित सत्ता को पलट देने तथा अपना स्वराज स्थापित करने का यह एक सफल प्रयास था, जिसका निर्णय 30 जून 1855 में लगभग 10 हजार की संख्या में संतालों की भारी भीड़ ने साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गांव में लिया था. बंगाल के बांकुड़ा, वीरभूम, मुर्शिदाबाद और झारखंड के मानभूम, छोटानागपुर,पलामू व हजारीबाग तथा ओड़िसा के पठारी इलाकों से आये संतालों और संताल परगना के कुछ अन्य आदिवासियों मसलन धांगरों, कोलों, राजवाड़ों, निम्न जाति के हिंदुओं जैसे घटवाल, ग्वाला, तेली, लोहार, कुम्हार, नाई, डोम, चमार तथा मुसलमानों में मोमिनों ने भी 30 जून 1855 को संतालों द्वारा लिए गये निर्णय के पक्ष में अपनी स्वीकृति दी. संतालों के हुंकार को गति प्रदान कर इसे विद्रोह का एक नया आयाम दिया था. कार्यकुशलता, कार्यक्षमता, ईमानदारी, समरूपता को प्रतिष्ठित करने और शोषण, अन्याय, अत्याचार, जुल्म, ठगी, बेईमानी, भ्रष्टाचार और पुलिसिया दमन आदि के विरोध का प्रयास भारतीय सामाजिक और आर्थिक इतिहास में पहली बार संताल हूल के माध्यम से ही किया गया. इसलिए यह विद्रोह एक जन आंदोलन भी था. अपने को अंगरेजी दासता से मुक्त करने का यह एक मुक्ति संग्राम था. संपूर्ण झारखंड के इतिहास में कृषकों का यह एकाकी विद्रोह था.
इस संताल हूल के मूर्धन्य नेता सिदो-कान्हू केवल संताल कृषकों के ही नेता नहीं, अपितु गैर-संताल किसानों के भी सर्वमान्य नेता हो गये थे. हूल एक योजनाबद्ध प्रतिज्ञा-पत्र था, जिसमें इसके नेताओं ने अपने गुरुओं से सलाह लेकर शकुन-अपशकुन का ख्याल कर अपनी नीति को निर्धारित किया था. गुरुओं ने निर्दोषों पर हाथ उठाने से मना किया था और न्याय की दुहाई दी थी. योजना को सफल बनाने के लिए 30 जून 1855 से कई महीने पूर्व से ही वर्तमान संताल परगना के पूर्वी-उत्तरी और दक्षिणी भाग के कई प्रमुख लोगों की बैठकों का दौर चल रहा था. 30 जून की सभा में जिन लोगों ने मुख्य रूप से इसमें भाग लेकर इसे एक आम सभा का रूप दिया था, उनमें लक्ष्मीपुर-ससान गांव के वीर सिंह परगनैत, वीर सिंह मांझी, सतबंधा के डोमन मांझी, सिंदरी गांव के कावलक परमाणिक, बैजु परगनैत के भाई गोचो मांझी, लखनपुर के सिंघराई मांझी, मानसिंहपुर के त्रिभुवन संताल, जो वीर ठाकुर के नाम से प्रसिद्ध थे, कदमा के सिंघराय मांझी व चंदराय मांझी, दिकुओं में मंगलू जुलहा, सीरु चमार, सीलू नाई, गणपत ग्वाला तथा जगरनाथ सिकदर सबसे अधिक मुखरित थे. इन्हीं के नेतृत्व में संतालों- गैर-संतालों की मिलीजुली भीड़ ने एक आमसभा का रूप धारण कर लिया था. इस सभा में लोगों ने महान चांदो बोंगा के प्रति निष्ठा व श्रद्धा दिखाते हुए एक स्वर में सिदो और कान्हू को अपना सर्वमान्य नेता चुन लिया. मंगलू जुलहा सिदो-कान्हू के वजीर बनाये गये और जगन्नाथ सिकदर विद्रोहियों के एक पक्ष के सेनापति. उपस्थित लोगों ने अपने-अपने हाथों में जमीन से मिट्टी उठाकर और अपने चारों दिशाओं में फेंक कर घोषणा की थी कि मरांग बोंगा के हम बच्चे अपने मुल्क पर अधिकार प्राप्त करके रहेंगे. सभा में घोषणा की गयी कि कोई भी अब किसी भी प्रकार का कर अदा नहीं करेगा. सभी अपनी इच्छानुसार और शक्ति के अनुसार जमीन जोतने के लिए स्वतंत्र हैं और संतालों द्वारा लिये गये सभी ऋण भी अब से स्वत: समाप्त हो गये.
जर्मन दर्शनशास्त्री कार्ल मार्क्स और भारतीय किसानों के मसीहा तथा कृषि विधिशास्त्री स्वामी सहजानंद सरस्वती के क्रमश: वर्ग संघर्ष और हुंकार को संतालों ने इस विद्रोह के माध्यम से इतिहास में महिमामंडित किया था. संतालों ने देसी दासता और गुलामी के विरुद्ध अपना हथियार एक झंडे के नीचे उठाया था. विद्रोहियों की अपनी वरदी जैसे लाल कपड़े की पगड़ी, उजली धोती और उजली लुंगी होती थीं. हम सभी जानते हैं कि हूल के जन नायक सिदो और कान्हू थे, लेकिन उनकी योजना को मूर्त रूप इनके अन्य दो छोटे भाई चांद व भैरव ने किया था. हूल की क्रांतिकारी योजनाओं में कान्हू व भैरव की भूमिका सबसे अहम थी. आश्चर्य है कि हूल का अध्ययन करनेवाले और हूल पर लिखनेवाले विद्वान हूल की कार्रवाइयों में सिदो व कान्हू की जितनी व्याख्या करते हैं, उतनी भैरव की नहीं.
लेखक, स्नातकोत्तर इतिहास विभाग
सिदो-कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय, दुमका में प्रोफेस हैं.
इतिहासकार डॉ दत्त ने किया था हूल पर पीएचडी
यह दुखद है कि तकरीबन 23 वर्षों से अधिक पुराने व दुमका में स्थापित सिदो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय द्वारा इतिहास अथवा सामाजिक विज्ञान संकाय के किसी भी विषय में संताल हूल संबंधी कोई भी शोध नहीं हुए. बड़ा सवाल यह है कि क्या शोध करनेवाले शोधार्थियों ने इसकी आवश्यकता ही नहीं समझी? या फिर शोध निदेशकों का ध्यान ही इधर नहीं गया? इतिहासकार डॉ केके दत्त ने 1949 में कलकत्ता विश्वविद्यालय कलकत्ता से संताल हूल पर शोध करके जो पीएचडी की उपाधि प्राप्त की, वही हमारे लिए काफी है? सिदो-कान्हू जैसे अमर वीर स्वतंत्रता सेनानी पर शोध करना किसी खास वर्ग का ही महत्वपूर्ण कार्य है. हूल के सिपाहियों ने स्वतंत्रता की प्रतिबद्धता को बार-बार दोहराया था. दूसरे शब्दों में कहे तो संताल हूल पर शोध कार्य किसी खास वर्ग की जिम्मेदारी नहीं समझ लेनी चाहिए.