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‘राजन की नीतियों का कोई तोड़ नहीं’

राजेश रपरिया आर्थिक मामलों के जानकार रघुराम राजन ने अपने आलोचकों और घोर विरोधियों से चुटकी ली है कि मुझे विदा मत दीजिए. बतौर गर्वनर अभी मेरी सेवाएं बाकी हैं. कहना न होगा कि इस अवधि में वह अपने आलोचकों और विरोधियों को मुंहतोड़ जवाब देने से नहीं चूकेंगे जिन्होंने उन पर कारोबारों को चौपट […]

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रघुराम राजन ने अपने आलोचकों और घोर विरोधियों से चुटकी ली है कि मुझे विदा मत दीजिए. बतौर गर्वनर अभी मेरी सेवाएं बाकी हैं.

कहना न होगा कि इस अवधि में वह अपने आलोचकों और विरोधियों को मुंहतोड़ जवाब देने से नहीं चूकेंगे जिन्होंने उन पर कारोबारों को चौपट करने के आरोप लगाए गए हैं.

राजन का कोई आलोचक या विरोधी चाहे वो सरकार में हो या बाहर, वह राजन की महंगाई, ब्याज दर और विकास के आपस में जुड़े होने के उनके दलीलों और नीतियों का कोई तर्कसंगत जवाब नहीं दे पा रहे हैं.

यहां तक कि सुब्रमण्यम स्वामी भी जो अपने को धरती का सर्वश्रेष्ठ अर्थशास्त्री मानते हैं, वो भी उनका जवाब नहीं दे पा रहे हैं.

सरकारी रवैये को भांपते हुए राजन ने अपने कार्यकाल समाप्त होने से ढाई महीने पहले ही पिछले हफ़्ते यह घोषणा कर दी कि वे कार्यकाल समाप्त होने के बाद दूसरी पारी नहीं खेलेंगे.

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तब से वे अपने विचार पर ना सिर्फ क़ायम हैं बल्कि वे अपने भाषणों में और अधिक तल्ख़ और हमलावर हो गए हैं. 21 जून को वैज्ञानिकों को संबोधित करते हुए उन्होंने साफ़-साफ़ कहा कि ब्याज दर और महंगाई को लेकर आप जनता को थोड़े समय के लिए मूर्ख बना सकते हैं, पर हमेशा के लिए नहीं.

आप एक फ़ीसदी ब्याज दर कर के वाहवाही लूट सकते हैं. थोड़े समय के लिए स्टॉक बाज़ार कुलांचे भर सकता है. मांग में भी तुरंत वृद्धि हो सकती है, पर ऐसे में महंगाई की स्थिति में अधिक वेतन और मज़दूरों की मांग भी तेज़ हो जाती है.

इस भाषण में उनका मतलब बिल्कुल साफ़ था कि मांग के साथ आपूर्ति नहीं बढ़ती है, तो महंगाई बेक़ाबू हो जाती है.

इसकी क़ीमत सिर्फ मज़दूर वर्ग को चुकानी पड़ती है. क्योंकि उन्हें कोई महंगाई भत्ता नहीं मिलता है. इसका सीधा असर छोटे-छोटे बचतकर्ताओं पर भी पड़ता है. अधिक ब्याज दर की स्थिति में भी ब्याज से होने वाली आमदनी नकारात्मक हो जाती है.

यानी आपकी जमा-पूंजी का मूल्य वास्तव में कम हो जाता है. उसे लगता है कि अधिक चीज़ों के संग्रह से वह अपनी पूंजी के मूल्य को बचा सकता है. वैसे सामान्य अनुभव से सब जानते हैं कि अनियंत्रित महंगाई का लाभ केवल क़ानून को धत्ता बताने वाले लोगों को ही होता है.

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राजन ने इस आपत्ति को भी सिरे से ख़ारिज कर दिया है कि अधिक ब्याज़ दरों के चलते सार्वजनिक बैंकों की क़र्ज़ देने की वृद्धिदर कम हुई है.

उन्होंने फिर दोहराया कि डूब रहे क़र्ज़ो की बढ़ती संख्या के कारण सार्वजनिक बैंक अधिक क़र्ज़ नहीं दे पा रही है. डूबते क़र्ज़ ही इन बैंकों के बेहतर कामकाज में सबसे बड़ी बाधा है़.

डूबते क़र्ज़ो के चलते ही ब्याज दरों में आई गिरावट का फ़ायदा ग्राहकों को मुहैया नहीं करा पा रही है.

एक आकड़े के मुताबिक़ (यह राजन के भाषण का अंश नहीं है.) बैंकों की 150 रुपये की जमा राशि पर 50 रुपये डूबे हुए क़र्ज़ की भेंट चढ़ जाते हैं.

सवाल फिर अटक जाता है कि किसी भी केंद्रीय बैंक की नीति क्या हो?

राजन साफ़ तौर पर मानते हैं कि किसी भी केंद्रीय बैंक (रिजर्व बैंक) के लिए सर्वश्रेष्ठ रास्ता है कि वह सतत विकास दर के लिए मांग और आपूर्ति में तालमेल बैठाकर चले ताकि महंगाई सामान्य बनी रहे.

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ऐसे में सुशासन की भूमिका मुख्य हो जाती है. दाल, चीनी, प्याज़ या टमाटर में आई अचानक महंगाई में सुशासन की भूमिका से राजन का मतलब आसानी से समझा जा सकता है.

अर्थशास्त्र के छात्रों को पढ़ाया जाता है कि बेक़ाबू या अनियंत्रित महंगाई डकैत की तरह होती है जो सरेआम लोगों की जेब पर डकैती डालता है और पकड़ा भी नहीं जाता है.

राजन की ख़ता यह है कि ‘चलता है’ की देसी तर्ज़ छोड़ कर इस ‘डकैत’ को हिरासत में रखने की कोशिश की.

राजन ने महंगाई को विकास और राजनीति का सतत मुद्दा बना दिया है. ज़ाहिर है कि किसी भी सत्ताधारी दल को इसे पचाना मुश्किल है.

ख़ुदरा महंगाई छह फ़ीसदी के आस-पास है. खाने-पीने की चीज़ों की महंगाई 10 फ़ीसदी तक पहुंच गई है. ऐसे ब्याज दरों को लेकर राजन के रवैये को ग़लत बताने वाले की मंशा पर सवाल उठना लाज़िमी है.

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