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भोजन और पोषण : 2030 तक कैसे होगी कुपोषण मुक्त दुनिया!
मनुष्य के भोजन में पोषक तत्वों की उपलब्धता के लिहाज से मछली की महत्ता आदिकाल से रही है. भारत में भले ही आबादी का एक बड़ा हिस्सा शाकाहारी है, लेकिन दुनिया के कई हिस्सों में मछली कुपोषण से निबटने का प्रमुख साधन है. इन इलाकों के बाशिंदों के लिए आयरन, प्रोटीन, विटामिन बी-12 और जिंक […]
मनुष्य के भोजन में पोषक तत्वों की उपलब्धता के लिहाज से मछली की महत्ता आदिकाल से रही है. भारत में भले ही आबादी का एक बड़ा हिस्सा शाकाहारी है, लेकिन दुनिया के कई हिस्सों में मछली कुपोषण से निबटने का प्रमुख साधन है. इन इलाकों के बाशिंदों के लिए आयरन, प्रोटीन, विटामिन बी-12 और जिंक समेत कई माइक्रोन्यूट्रिएंट्स का मुख्य स्रोत मछली ही है.
ऐसे में चिंता जतायी जा रही है कि हाल के वर्षों में मछलियों के उत्पादन में वैश्विक कमी से इन इलाकों में कुपोषण का संकट गहरा सकता है. इस समय कितनी गंभीर है दुनिया में कुपोषण की समस्या, मछलियों के उत्पादन में कमी का क्या हो सकता है असर और कुपोषण से पार पाने के लिए किस तरह के वैज्ञानिक उपायों पर दिया जा रहा है जोर, बता रहा है यह आलेख…
दुनियाभर में समुद्र तटीय इलाकों, बड़े द्वीप समूहों समेत अनेक क्षेत्रों में मछली इनसान के मुख्य भोजन में शामिल है. इसके अलावा भी दुनिया के अनेक देशों में बड़ी संख्या में लोग भूख मिटाने के लिए मछली का सेवन करते हैं. ऐसे में यदि मछलियों का वैश्विक उत्पादन कम हो रहा हो, तो यह वाकई चिंता का विषय है. प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ ने अपनी एक रिपोर्ट में चिंता जतायी है कि मछलियों का उत्पादन कम होना और इनके इलाके सीमित होते जाना इस सदी के मध्य तक दुनिया की करीब 10 अरब आबादी को पोषक खाद्य पदार्थ मुहैया कराने की दिशा में एक बड़ी चुनौती साबित हो सकती है.
यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन, हार्वर्ड के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन से हासिल आंकड़ों के आधार पर रिपोर्ट में चिंता जतायी है कि इससे वैश्विक कुपोषण का संकट गहरा सकता है.
दरअसल, इस समय समुद्र तटीय ही नहीं, बहुत से विकासशील देशों में भी कुपोषण से लड़ने में मछली की बड़ी भूमिका साबित हो रही है. लेकिन, संयुक्त राष्ट्र के अधिकृत संगठन फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 1950 से 2010 के दौरान वर्ष 1996 में मछलियों का उत्पादन सबसे ज्यादा (86 मिलियन टन) हुआ था. उसके बाद से सालाना 0.38 मिलियन टन की दर से इसमें गिरावट आ रही है.
वास्तविक उत्पादन ज्यादा!
हालांकि, ‘सीबीसी न्यूज डॉट सीए’ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 1996 में मछलियों का वास्तविक उत्पादन एफएओ के आंकड़ों से करीब डेढ़ गुना ज्यादा (130 मिलियन टन) था और उसके बाद से इसमें सालाना 1.2 मिलियट टन की दर से गिरावट आ रही है.
अमेरिका और आसपास के 400 वैश्विक साझेदारों के सहयोग से यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया के अध्ययनकर्ताओं ने यह रिपोर्ट तैयार की है. इसमें जिक्र किया गया है कि एफएओ के आंकड़े खास देशों पर ही आधारित होते हैं, जहां मछलियों का औद्योगिक तरीके से उत्पादन किया जाता है. लेकिन, इन दोनों ही रिपोर्टों में मछलियों का उत्पादन कम होना स्वीकार किया गया है और इसके प्रति गंभीर चिंता जतायी गयी है.
विटामिन बी-12 और प्रोटीन का स्रोत
नेचर में प्रकाशित शोध रिपोर्ट के सह-लेखक एडवर्ड एलिसन के मुताबिक, मछली प्रोटीन का बड़ा स्रोत है और अनेक गरीब देशों में, जहां लोगों के लिए प्रोटीन के अन्य स्रोतों तक पहुंच कम होती है, इसका व्यापक इस्तेमाल किया जाता है.
दुनियाभर में करीब डेढ़ अरब लोगों के लिए विटामिन बी-12 और डीएचए ओमेगा-3 फैटी एसिड का सबसे बड़ा स्रोत समुद्री खाद्य पदार्थ से जुड़ा है. इसमें आयरन और जिंक जैसे माइक्रोन्यूट्रिएंट्स भी मौजूद हैं, जिनकी कमी से मातृत्व और बाल मृत्यु की आशंका बढ़ जाती है. तंत्रिकाओं पर भी इसका असर पड़ता है. लिहाजा इसके उत्पादन में कमी से दुनिया की बड़ी आबादी पर कुपोषण का संकट गहरा सकता है.
मछली का उत्पादन करनेवाले शीर्ष दस देश
देश का नाम उत्पादन (टन में)
चीन 4,94,67,463
पेरू 94,16,285
भारत 63,18,639
इंडोनेशिया 55,78,573
अमेरिका 53,60,597
चिली 50,28,358
जापान 48,19,046
थाइलैंड 37,43,564
वियतनाम 33,67,853
रूस 33,05,749
(स्रोत : वर्ल्ड नोइंग डॉट कॉम)
भोजन में मछली की हिस्सेदारी
85 फीसदी के आसपास मछलियां इनसानों द्वारा भोजन के रूप में इस्तेमाल में लायी जाती हैं इसके कुल उत्पादन का. शेष का इस्तेमाल हाइ-प्रोटीन फीड के तौर पर फिशमील और फिश ऑयल बनाने में किया जाता है.
150 ग्राम मछली का इस्तेमाल भोजन के रूप में करने पर एक वयस्क इनसान के रोजाना प्राेटीन की जरूरतों का 60 फीसदी हिस्सा पूरा हो सकता है.
20 फीसदी प्रोटीन की जरूरत मछलियों के माध्यम से पूरी की गयी वर्ष 2010 में तीन अरब लोगों की.
15 फीसदी प्रोटीन की जरूरत मछलियों के माध्यम से पूरी की गयी वर्ष 2010 में 4.3 अरब लोगों की.
25 फीसदी हिस्सेदारी है मछलियों से हासिल होनेवाली प्रोटीन की, सभी प्रकार के पशुओं से प्राप्त होनेवाली कुल प्रोटीन के मुकाबले दुनिया के कई देशों में.
हालांकि, कुल समुद्री खाद्य पदार्थों का बढ़ रहा है उत्पादन
3.2 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रही है समुद्री खाद्य पदार्थों की आपूर्ति.
158 मिलियन टन समुद्री खाद्य पदार्थों का उत्पादन हुआ था वर्ष 2012 में दुनियाभर में.
– प्रति व्यक्ति खपत के लिहाज से समुद्री खाद्य पदार्थों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल एशिया में होता है. (स्रोत : फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन की द स्टेट ऑफ वर्ल्ड फिशरीज एंड एक्वाकल्चर रिपोर्ट) खाद्य पदार्थों की पोषकता बढ़ाने वाले कुछ हािलया शोध
1. शकरकंद में पोषकता बढ़ायेंगे वैज्ञानिक
अफ्रीकी देश रवांडा ने इंटरनेशनल पोटैटो सेंटर के साथ साझेदारी की है, ताकि स्थानीय रूप से उगायी जानेवाले शकरकंद की उन्नत किस्म को विकसित किया जा सके, जिसमें अनेक पोषक पदार्थ शामिल किये जा सकें. रवांडा में शकरकंद का अधिक पैमाने पर उत्पादन होता है और यहां के लोग भोजन में भी इसका ज्यादा इस्तेमाल करते हैं. लिहाजा इंटरनेशनल पोटैटो सेंटर के वैज्ञानिक इसमें विटामिन ए, आयरन और जिंक जैसे पोषक तत्वों की प्रचूरता को बढ़ाने में जुटे हैं. इस देश में किसान के अलावा अन्य परिवारों में भी शकरकंद का इस्तेमाल ज्यादा होता है.
इंटरनेशनल पोटैटो सेंटर और रवांडा एग्रीकल्चर बोर्ड निजी क्षेत्रों के साथ मिल कर इस मुहिम को कामयाब बनाने में जुटे हैं. रवांडा की एक वेबसाइट की रिपोर्ट के मुताबिक, अफ्रीकी देशों में लोगों में विटामिन-ए की कमी एक बड़ी चुनौती है. इंटरनेशनल पोटैटो सेंटर के रीजनल कोऑर्डिनेटर का कहना है कि इस कारण अनेक बीमारियों का जोखिम बढ़ जाता है. रवांडा में इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे अधिकारी का कहना है कि इस समस्या से निबटने के लिए पांच वर्षीय प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है और बायो-फोर्टफाइड ऑरेंज फ्लेश्ड स्वीट पोटैटो (ओएफएसपी) को विकसित किया जा रहा है.
2. नैनोटेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से बढ़ेगी फलों की पोषकता
दुनिया की बड़ी आबादी दक्षिणी गोलार्ध के गर्म इलाकों में रहती है, जहां केला, आम और पपीता की पैदावार और खपत ज्यादा होती है. इन फलाें के भंडारण में बड़ी चुनौतियां पेश आती हैं, क्योंकि ये जल्द खराब हो जाते हैं. रेफ्रिजरेशन के अभाव में भारी मात्रा में ये फल बर्बाद हो जाते हैं.
इन फलों को ज्यादा दिनों तक टिकाऊ बनाये रखने और इनकी पोषकता को बढ़ाने के लिए नैनोटेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जा रहा है. कनाडा, भारत और श्रीलंका की साझेदारी में शोधकर्ताओं ने इस शोध को अंजाम दिया है. इस इनोवेटिव तकनीक का इस्तेमाल करते हुए इन फलाें को पेड़ों से तोड़ने के बाद ज्यादा दिनों तक पकने से बचाया जा सकता है.
इन फलों के पकने के लिए इनके भीतर सेल मेंब्रेन्स जिम्मेवार होते हैं, जिनमें वैज्ञानिकों ने बदलाव किया है. आम के बगीचों में इस तकनीक का इस्तेमाल किया गया और उन्हें पकने की समयावधि को तीन से चार सप्ताह आगे ले जाने में कामयाबी मिली है. यानी अब तक तकरीबन सभी आम एक ही समय में पक जाने से बहुत बर्बाद हो जाते हैं.
तमिलनाडु एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी और श्रीलंका की इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों द्वारा किये गये इस तकनीक के परीक्षण के तहत पाया गया कि पेड़ों में आम का फल परिपक्व होने के बाद उन्हें तोड़ने पर 17 दिनों तक सामान्य तापमान में और 26 दिनों तक कोल्ड स्टोरेज में रखा जा सकता है. इस अवधि में ये पूरी तरह फ्रेश पाये गये हैं. इस कामयाबी से निश्चित रूप से अन्य फलों को खराब होने से बचाया जा सकेगा और लोगों को ज्यादा तादाद में पोषकता हासिल करने में मदद मिलेगी.
दुनियाभर की एक-तिहाई आबादी कुपोषण की चपेट में
दुनिया के करीब सभी देशों में कुपोषण की समस्या बढ़ रही है. इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आइएफपीआरआइ) द्वारा पिछले दिनों जारी ‘ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट’ के मुताबिक, प्रत्येक तीन में से एक व्यक्ति कुपोषण के किसी-न-किसी प्रारूप का शिकार है. आइएफपीआरआइ के को-चेयर और सीनियर रिसर्च फेलो लॉरेंस हेडाड का कहना है कि कुपोषण को दुनियाभर में बीमारियों के सबसे बड़े वाहक के रूप में देखा जा रहा है.
2 अरब लोगों को पर्याप्त मात्रा में विटामिन्स और मिनरल्स नहीं मिल पाता है दुनियाभर में.
79.5 करोड़ लोगों को विश्व में पर्याप्त कैलोरी नहीं मिल पाती है.
16.1 करोड़ बच्चे दुनियाभर में गंभीर कुपोषण की चपेट में हैं.
1.2 अरब डॉलर का प्रावधान किया गया था 2012 में वर्ल्ड विजन के तहत, ताकि कुपोषण की समस्या से निबटा जा सके.
57 देशों में वर्ल्ड विजन की मुहिम के तहत न्यूट्रिशन मूवमेंट काे नयी दिशा दी गयी और यहां इसके अच्छे नतीजे सामने आये.
11 फीसदी तक का नुकसान होता है अफ्रीका और एशिया में प्रत्येक वर्ष कुल जीडीपी का, जो एक बड़ा आर्थिक नुकसान भी है.
16 डॉलर तक का रिटर्न हासिल किया जा सकता है इन देशों में इस मद में निवेश किये गये एक डॉलर की दशा में, जो अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य, दोनों ही लिहाज से महत्वपूर्ण है.
2030 तक का समय निर्धारित किया गया है दुनियाभर में कुपोषण को पूरी तरह से खत्म करने के लिए और इसके लिए अनेक उपायों पर जोर दिया जा रहा है.
– श्रीलंका और वियतनाम में वर्ल्ड विजन के तहत इनोवेटिव ग्रेजुएशन मॉडल अपनाया गया, लिहाजा इन देशों में कुपोषण को कम करने में बड़ी कामयाबी हासिल हुई है.
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