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फादर्स डे विशेष : मेरे पहले शिक्षक-मेरे पिता

एपीजे अब्दुल कलाम, पूर्व राष्ट्रपति मे रे पिता जैनब अबुल पाकिर जैनुलब्दीन एक शिक्षक थे. जब भारत को स्वतंत्रता मिली, तब मैं छोटा बच्चा था. मुझे याद है कि स्वतंत्रता के कुछ ही समय बाद रामेश्वरम में पंचायत बोर्ड के चुनाव हुए. मेरे पिता भी पंचायत बोर्ड के लिए निर्वाचित हुए और उसी दिन, वे […]

एपीजे अब्दुल कलाम, पूर्व राष्ट्रपति

मे रे पिता जैनब अबुल पाकिर जैनुलब्दीन एक शिक्षक थे. जब भारत को स्वतंत्रता मिली, तब मैं छोटा बच्चा था. मुझे याद है कि स्वतंत्रता के कुछ ही समय बाद रामेश्वरम में पंचायत बोर्ड के चुनाव हुए.

मेरे पिता भी पंचायत बोर्ड के लिए निर्वाचित हुए और उसी दिन, वे रामेश्वरम पंचायत बोर्ड के अध्यक्ष भी चुन लिये गये. उस समय रामेश्वरम द्वीप करीब 30,000 की आबादीवाला सुंदर स्थान था. मेरे पिता धर्म, जाति, भाषा या अपने आर्थिक स्तर के कारण अध्यक्ष नहीं चुने गये थे बिल्क उनका चुनाव सिर्फ इसलिए हुआ था कि वे अच्छे और शुद्ध मन के इनसान थे. जब मेरे पिता पंचायत बोर्ड के अध्यक्ष चुने गये थे, तब मैं स्कूल में पढ़ता था. उन दिनों हमारे यहां बिजली नहीं थी और मुझे मिट्टी-तेल के दीये की रोशनी में पढ़ाई करनी पड़ती थी. एक दिन शाम को जब मैं अपना पाठ जोर-जोर से पढ़ रहा था, तभी मैंने दरवाजे पर दस्तक सुनी. कोई दरवाजा खोल कर अंदर आया और मेरे पिता के बारे में पूछने लगा. मैंने उसे बताया कि पिता जी नमाज अता करने गये हैं.

तब उस व्यक्ति ने कहा, ‘मैं उनके लिए कुछ लाया हूं. क्या मैं इसे यहां रख दूं.’ मेरे पिता जी नमाज अता करने गये थे. इसलिए मैंने अपनी मां से पूछा. वे भी नमाज अता कर रही थीं, इसलिए उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. मैंने उस व्यक्ति से वह सामान चारपाई पर रख देने को कहा और अपनी पढ़ाई में फिर जुट गया. बचपन में मैं अपने पाठ को जोर-जोर से पढ़ कर याद करता था. मैं तेज स्वर में पढ़ रहा था और मेरा पूरा ध्यान पढ़ाई पर था. मैंने ध्यान ही नहीं दिया कि मेरे पिता चुपके से घर आ चुके हैं और उन्होंने चारपाई पर रखे तंबलम् को देख लिया है. उन्होंने मुझसे पूछा, ‘यह क्या है? कौन लाया इसे?’

मैंने उन्हें बताया, ‘एक आदमी आया था और इसे आपके लिए रख गया है.’ मेरे पिता ने तंबलम् का आवरण खोला, तो देखा कि उसमें एक महंगा अंगवस्त्रम‍्, कुछ फल और कुछ मिठाइयां थीं.’ उसमें एक चिट भी लगी थी, जो वह आदमी मेरे पिता के लिए छोड़ गया था.

मैं अपने पिता की सबसे छोटी संतान था और वे मुझे बहुत प्यार करते थे. मैं भी उनसे बहुत प्यार करता था. मैं समझ गया कि वे उस आदमी द्वारा लाये गये तंबलम् और उपहार देख कर नाराज हो गये हैं. मैंने उन्हें पहली बार गुस्से में देखा. उस दिन मेरी पहली बार पिटाई हुई. मैं डर गया और रोने लगा.

मेरी मां ने मुझे गले लगाया और चुप कराया. तभी मेरे पिता आये और प्यार से मेरे कंधे पर हाथ रख कर उन्होंने मुझे समझाया कि उनकी अनुमति के बिना किसी से कोई उपहार नहीं लेना चाहिए. उन्होंने इस्लाम की हदीस का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है: जब सर्वशक्तिमान ईश्वर किसी व्यक्ति को किसी पद पर नियुक्त करता है, तो वह उसकी जरूरतों का भी ख्याल रखता है.

अगर वह व्यक्ति उससे ज्यादा कुछ लेता है, तो वह गैर कानूनी है. तब मेरे पिता ने मुझे समझाया कि उपहार लेना अच्छी आदत नहीं है. उन्होंने समझाया कि उपहार किसी भेंटकर्ता की गलत इच्छा का संकेत है और इसलिए यह खतरनाक चीज है. यह सांप को छूने और बदले में जहर पाने के समान हैं. उस दिन से लेकर अब, जबकि मैं सत्तर साल का हो चुका हूं, तब भी यह सबक मेरे दिल में बसा है. इस घटना ने मुझे जीवन का बेशकीमती पाठ पढ़ाया.

मैं मनुस्मृति का भी इसी तरह का उद्धरण देना चाहूंगा. उसमें कहा गया है: उपहार लेने से इनसान के अंदर की दिव्य ज्योति बुझ जाती है. मनु उपहार लेने से बचने की चेतावनी देते हैं, क्योंकि उपहार लेनेवाले पर उसके बदले में पक्षपात करने का दबाव बढ़ जाता है. इससे व्यक्ति गैरकानूनी, अनुचित या अन्यायपूर्ण कार्यों की ओर उन्मुख हो सकता है. मैं यह विचार आप सभी के बीच बांट रहा हूं, ताकि हर अभिभावक यह संदेश समझे कि बच्चों को बचपन में सही दिशा-निर्देश देना कितना महत्वपूर्ण होता है. बच्चों को यह सिखाया जाना चाहिए कि उपहार हमेशा किसी व्यक्ति को बिगाड़ने के इरादे से दिये जाते हैं.

(इ श्रीधरन और भारत वाखलू की पुस्तक ‘सशक्त मूल्यों का तेजस्वी भारत’ से साभार)

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