उत्तर प्रदेश चुनाव के दिन जैसे-जैसे क़रीब आ रहे हैं राजनीतिक विश्लेषकों एवं दूसरे लोगों के मन में एक सवाल उठ रहा है कि मायावती क्या कर रही हैं?
एक तरफ बहुजन समाज पार्टी 2017 विधानसभा चुनाव के दौरान सत्ता के प्रबल दावेदार के रूप में उभर रही है. दूसरी तरफ मायावती का कम बोलना और उनकी सक्रियता में कमी से लोगों के मन में कई सवाल पैदा हो रहे हैं.
लोग इस रहस्य को समझना चाह रहे हैं कि मायावती क्यों कम बोलती हैं. गांवों में कहावत है, "जब कोई कम बोले तो उसकी हरेक बात का महत्व है." जब कोई बढ़-बढ़ कर हर काम में आगे न आए, तो उसके हरेक काम का मतलब होता है.
ऐसा आदमी एक-एक शब्द तोल-तोल कर बोलता है, वह एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रखता है. मायावती के संदर्भ में यह बात सही बैठती है. मायावती कम बोलती हैं. जो बोलती हैं लिखकर बोलती हैं और उपर्युक्त समय पर बोलती हैं.
बावजूद इसके मायावती इन दिनों बीजेपी पर बोलने का एक भी मौक़ा नहीं चूकतीं.
अंबेडकर के 125वीं जयंती पर उन्होंने कहा हमारे मसीहा अंबेडकर हैं, राम नहीं. इस बेलाग ढंग से कहे गए एक वाक्य से ही उन्होंने एक तो अपने समर्थन आधार को भी संगठित किया और बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति की नस पर प्रहार किया. वे इन दिनों अपने को भाजपा के तीव्र आलोचक के रूप में पेश करना चाहती हैं ताकि मुस्लिम मतदाता जुड़ें.
वे राज्य के अनेक मुद्दों पर चुप रहती हैं लेकिन समाजवादी पार्टी की असफलता, उनके शासन के क़ानून व्यवस्था की लगातार ख़राब होती स्थिति को एक्सपोज़ करती रहती रही हैं. उनके पास मोदी जी की तरह लच्छेदार पंक्तियां नहीं होती पर वे सीधी बात कहती हैं, और सीधी बात सीधे जनता के मन तक पहुंचती है.
उनकी बातें उनका वोट बैंक (दलित अति पिछड़ा एवं अन्य समुदाय) हाथोहाथ लेता है.
वे जिन मुद्दों पर चुप रहती हैं, उसकी भी अपनी राजनीति होती है. वे अब कांग्रेस पर नहीं बोलतीं. उसके दो कारण हैं. एक तो राज्य के चुनाव में कांग्रेस से उनका सीधा टकराव होता नहीं दिखता, दूसरा वह कांग्रेस से टकराकर मुस्लिम मतदाताओं के मन में किसी तरह की शंका पैदा नहीं करना चाहती हैं.
मायावती अक्सर मीडिया की ओर से खड़ी किए गए रोज़ की बहसों की अनदेखी करती हैं. टीवी चैनल्स की बहस में भी बसपा के प्रवक्ता कम ही शामिल होते हैं. शायद इसलिए क्योंकि मायावती के वोट बैंक का बड़ा तबक़ा टीवी नहीं देखता. या अगर देखता है तो बहुत सीरियसली नहीं लेता.
इतना ही नहीं उनका वोटर भावनात्मक रूप से जुड़े होने के चलते उनके कम कहे को ज़्यादा समझता है. बनारस के चंदापुर गांव के लाल चंद कहते हैं, "बहन जी से हम लोग भावनात्मक रुप से जुड़े हैं, उनकी बातें हम समझते हैं. एक कहावत आपने सुना है, "थोड़ा कहना, ज़्यादा समझना."
कम बोलने के साथ-साथ मायावती बहुत आक्रामक नहीं दिखतीं. उनका एक्शन अभी रैलियों एवं बड़ी मीटिंगों में तो नहीं दिखता, लेकिन सांगठनिक स्तर पर बूथ कमिटी से लेकर मंडल और राज्य कमेटी की बैठकें वे अपनी मौजूदगी में करती हैं.
दिल्ली में भी कई बार राष्ट्रीय कमिटियों की बैठक में भी शामिल होती हैं. बनारस में बीएसपी के एक कैडर ने कहा, "चुनाव आने दीजिए, बहन जी की चमक आपको दिखाई देगी."
मायावती इन दिनों ख़ुद को भाजपा विरोधी साबित करना चाहती हैं. ऐसा करके वो अपने आधार मत में बीजेपी की घुसपैठ को रोकना चाहती हैं और दूसरे मुस्लिम मदताओं के मन में अपने लिए जगह बनाना चाहती हैं.
उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं के मन में समाजवादी पार्टी के लिए इन दिनों बढ़ती शंका को देखा और सुना जा सकता है. मुस्लिम जनमत का अधिकांश तबक़ ये महसूस कर रहा है कि मुलायम सिंह एवं सपा अनेक राष्ट्रीय मुद्दों पर भाजपा के प्रति नरम रवैया अख़्तियार कर रहा है.
ऐसे में मुस्लिम मतदाता मायावती के प्रति झुकते दिख रहे हैं. मायावती बहुत सजग हैं और कुछ भी न ऐसा कहना चाहती हैं, न करना चाहती हैं कि उनकी ओर हो रहे मुस्लिम मतों के धुव्रीकरण में बाधा आए.
लेकिन वे कहीं भी मुस्लिम मु्द्दों को ज़्यादा हाईलाइट नहीं करती. वह अपने हिन्दु मतदाताओं के बीच अति मुस्लिम समर्थक की छवि भी नहीं बनने देना चाहती हैं. उनकी कोशिश है कि उनकी तरफ़ हो रहे मुस्लिम मतों का धुव्रीकरण धीरे-धीरे और आराम से हो ताकि इससे हिंदू मतदाताओं में कोई काउंटर पोलराइजेशन न हो सके.
बिहार में जिस तरह से जदयू महागठबन्धन ने बिना हिंदुओं में काउंटर पोलराइजेशन पैदा किए मुसलमानों को जोड़ा था वैसा ही मायावती उत्तर प्रदेश चुनाव में करना चाहती हैं.
पिछले दिनों उत्तराखंड में बसपा को भाजपा के विरुद्ध हरीश रावत को दिया गया समर्थन, मध्य प्रदेश में राज्य सभा के चुनाव में कांग्रेस को दिया गया समर्थन यह दिखाता है कि मायावती हर राजनीतिक क़दम तौल तौल के उठा रही है.
उनका कांग्रेस को दिया गया समर्थन न तो कोई डील है, न ही कांग्रेस के प्रति उनमें पैदा हुआ सहज प्रेम. ऐसा करके वे एक तरह से अपनी भाजपा विरोधी छवि को मज़बूत करना चाहती हैं.
मायावती का कम बोलना, तौल-तौल के बोलना, कभी बोलना, कभी चुप रह जाने की रणनीति को अगर ठीक से समझा जाए तो समझ में आता है कि यह एक तरह से उनकी सधी हुई राजनीति का प्रतिरुप है. इससे यह भी साबित होता है कि वे राजनीति में लगातार ‘परिपक्व’ हुई हैं.
वे अपने सामाजिक इंजीनियरिंग की धार को भी तीखा करती जा रही हैं. राज्य सभा के चुनाव में नॉमिनेशन के वक़्त मायावती के निर्देश पर बीएसपी के ब्राह्मण चेहरे सतीश चन्द्र मिश्र के प्रस्तावक दलित एवं ओबीसी विधायक थे एवं दलित नेता अशोक कुमार सिद्धार्थ के प्रस्तावक ब्राह्मण और ऊंची जाति के विधायक थे.
यह जानना रोचक है कि इसी समीकरण के आधार पर कांग्रेस न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे देश में लंबे समय तक सत्ता में क़ाबिज़ रही है. देखना है कि मायावती अपने प्रयासों से कहां तक सफ़ल हो पाती हैं.
हालांकि बीजेपी दलित-मुस्लिम के बीच सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की राजनीति कर रही है, इस मुद्दे पर मायावती फिलहाल चुप हैं, परंतु उन्हें ऐसे तनावों को बढ़ने से रोकना होगा. उन्हें अपने कैडरों को यह संकेत देना होगा कि ऐसे तनाव उनके लिए ख़तरनाक हैं.
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