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न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप : एनएसजी की सदस्यता पर फंसा पेच, भारत की राह में चीन का रोड़ा
न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) की वियना में दो दिन से चल रही बैठक शनिवार को बेनतीजा खत्म हो गयी. इस समूह में भारत को शामिल करने के बारे में कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया जा सका. माना जा रहा है कि 20 जून को सिओल में होनेवाली आगामी बैठक में भारत के आवेदन पर फिर […]
न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) की वियना में दो दिन से चल रही बैठक शनिवार को बेनतीजा खत्म हो गयी. इस समूह में भारत को शामिल करने के बारे में कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया जा सका. माना जा रहा है कि 20 जून को सिओल में होनेवाली आगामी बैठक में भारत के आवेदन पर फिर से विचार किया जायेगा. रिपोर्टों के मुताबिक अमेरिका के ठोस समर्थन के बाद भारत की सदस्यता का विरोध कर रहे दक्षिण अफ्रीका, न्यूजीलैंड और तुर्की जैसे कुछ देशों के रुख में नरमी आयी है और वे इस मुद्दे पर समझौते की ओर बढ़ने के लिए तैयार हैं, लेकिन चीन का अड़ियल रवैया अभी तक बरकरार है. उसका कहना है कि परमाणु अप्रसार संधि से सहमति इस समूह में शामिल होने की आधारभूत शर्त है. चीन की रजामंदी के लिए दबाव बनाने के भारत के कूटनीतिक प्रयास जोरों पर हैं.
पिछले दिनों ऐसी खबरें आयी थीं कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी चीन यात्रा के दौरान चीनी नेताओं को याद दिलाया था कि भारत ने कभी किसी अंतरराष्ट्रीय संस्था में चीन की सदस्यता का विरोध नहीं किया है. हालांकि, 2008 में मिली छूट के कारण भारत को एनएसजी सदस्यों को मिलनेवाले कई लाभ मिले हुए हैं, पर आधिकारिक सदस्यता उसकी परमाणु ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने और वैश्विक स्तर पर परमाणु तकनीक के प्रसार को नियंत्रित करने के लिहाज से बहुत जरूरी है. इस मुद्दे से जुड़े विभिन्न पहलुओं के विश्लेषण पर आधारित है आज का
इन दिनों…
क्या है न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप
न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप यानी एनएसजी परमाणु अपूर्तिकर्ता देशों का समूह है, जो परमाणु हथियार बनाने में सहायक हो सकनेवाली वस्तुओं, यंत्रों और तकनीक के निर्यात को नियंत्रित कर परमाणु प्रसार को रोकने की कोशिश करता है.
भारत द्वारा मई, 1974 में किये गये पहले परमाणु परीक्षण की प्रतिक्रिया में इस समूह के गठन का विचार पैदा हुआ था और इसकी पहली बैठक नवंबर, 1975 में हुई थी. इस परीक्षण से यह संकेत गया था कि असैनिक परमाणु तकनीक का उपयोग हथियार बनाने में भी किया जा सकता है. ऐसे में परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर कर चुके देशों को परमाण्विक वस्तुओं, यंत्रों और तकनीक के निर्यात को सीमित करने की जरूरत महसूस हुई. ऐसा समूह बनाने का एक लाभ यह भी था कि फ्रांस जैसे देशों को भी इसमें शामिल किया जा सकता था, जो परमाणु अप्रसार संधि और परमाणु निर्यात समिति मेंनहीं थे.
वर्ष 1975 से 1978 के बीच विभिन्न वार्ताओं के सिलसिले के बाद निर्यात को लेकरदिशा-निर्देश जारी किये गये, जिन्हें इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी द्वारा प्रकाशित किया गया. लंदन में हुई इन बैठकों के कारण इस समूह को ‘लंदन क्लब’, ‘लंदन समूह’ और ‘लंदन सप्लायर्स ग्रुप’ के नाम से भी संबोधित किया जाता है.
इस समूह की अगली बैठक हेग में मार्च, 1991 में हुई और नियमों में कुछ संशोधन किये गये. इसमें नियमित रूप से बैठक करने का निर्णय भी लिया गया.
प्रारंभ में एनसीजी के सात संस्थापक सदस्य देश थे- कनाडा, वेस्ट जर्मनी, फ्रांस, जापान, सोवियत संघ, ब्रिटेन और अमेरिका. वर्ष 1976-77 में यह संख्या 15 हो गयी. वर्ष 1990 तक 12 अन्य देशों ने समूह की सदस्यता ली. चीन को 2004 में इसका सदस्य बनाया गया. फिलहाल इसमें 48 देश शामिल हैं और 2015-16 के लिए समूह की अध्यक्षता अर्जेंटीना के पास है.
एनएसजी की सदस्यता क्यों
महत्वपूर्ण है भारत के लिए?
चूंकि इस समूह का गठन भारत द्वारा किये गये परमाणु परीक्षण की प्रतिक्रिया में किया था, इसलिए भारत का यह भी मानना है कि इसका लक्ष्य अत्याधुनिक तकनीक तक भारत की पहुंच को रोकना है. मौजूदा 48 सदस्यों में से पांच देश परमाणु हथियार संपन्न हैं, जबकि अन्य 43 देश परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर कर चुके हैं.
इस संधि को भेदभावपूर्ण मानने के कारण भारत ने अब तक इस पर हस्ताक्षर नहीं किया है. वर्ष 2008 में हुए भारत-अमेरिका परमाणु करार के बाद एनएसजी में भारत को शामिल होने की प्रक्रिया शुरू हुई.
यदि भारत को इस समूह की सदस्यता मिल जाती है, तो उसे निम्न लाभ हो सकते हैं-
1. दवा से लेकर परमाणु ऊर्जा सयंत्र के लिए जरूरी तकनीकों तक भारत की पहुंच सुगम हो जायेगी, क्योंकि एनएसजी आखिरकार परमाणु कारोबारियों का ही समूह है. भारत के पास देशी तकनीक तो है, पर अत्याधुनिक तकनीकों के लिए उसे समूह में शामिल होना पड़ेगा.
2. भारत ने जैविक ईंधन पर अपनी निर्भरता कम करते हुए अक्षय और स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों से अपनी ऊर्जा जरूरतों का 40 फीसदी पूरा करने का संकल्प लिया हुआ है. ऐसे में उस पर अपनी परमाणु ऊर्जा उत्पादन को बढ़ाने का दबाव है, और यह तभी संभव हो सकेगा, जब उसे एनएसजी की सदस्यता मिले.
3. भारत के पास परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर कर हर तरह की तकनीक हासिल करने का विकल्प है, पर इसका मतलब यह होगा कि उसे अपने परमाणु हथियार छोड़ने होंगे. पड़ोस में दो परमाणु-शक्ति संपन्न देशों को होते हुए उसका ऐसा करना संभव नहीं है. एनसीजी में सदस्यता इस संशय से बचा सकती है.
4. तकनीक तक पहुंच के बाद भारत परमाणु ऊर्जा यंत्रों का वाणिज्यिक उत्पादन भी कर सकता है. इससे देश में नवोन्मेष और उच्च तकनीक के निर्माण का मार्ग प्रशस्त होगा, जिसके आर्थिक और रणनीतिक लाभ हो सकते हैं. परमाणु उद्योग का विस्तार ‘मेक इन इंडिया’ के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को नयी ऊंचाई दे सकता है.
5. इस समूह में नये सदस्य मौजूदा सदस्यों की सर्वसहमति से ही शामिल हो सकते हैं. यदि भारत को सदस्यता मिल जाती है, तो वह भविष्य में पाकिस्तान को इसमें आने से रोक सकता है. इसी स्थिति को रोकने के लिए ही चीन भारत के साथ पाकिस्तान को भी सदस्य बनाने पर जोर दे रहा है.
मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल
रिजीम (एमटीसीआर)
अप्रैल, 1987 में स्थापित इस स्वैच्छिक समूह में फिलहाल 34 देश सदस्य हैं. औपचारिक रूप से सदस्यता मिलने के बाद भारत इसका 35वां सदस्य बन जायेगा. इस समूह के नियमों को एकतरफा तौर पर चार देश- इजरायल, रोमानिया, स्लोवाकिया और मक्दुनिया- बिना औपचारिक सदस्यता के मानते हैं. इस समूह का लक्ष्य रासायनिक, जैविक और परमाणु हमले के लिए प्रयुक्त हो सकनेवाले मिसाइलों और अन्य संबद्ध तकनीकों के प्रसार को सीमित करना है. इसके सदस्यों में मिसाइलों के दुनिया के अनेक बड़े निर्माता देश शामिल हैं. समूह अपने सदस्य देशों से कम-से-कम 300 किलोमीटर तक 500 किलोग्राम भार ले जा सकनेवाले मिसाइलों और उनसे जुड़ी तकनीकों तथा महाविनाश के हथियारों के निर्यात नहीं करने का निवेदन करता है.
एमटीसीआर में जाने के लिए भारत को क्या करना है?
मौजूदा देशों की आम सहमति से ही इस रिजीम में नये सदस्य शामिल हो सकते हैं. अमेरिका की नीति यह है कि गैर-मान्यताप्राप्त परमाणु-शक्ति संपन्न देशों, जिनमें भारत भी शामिल है, को कम-से-कम 300 किलोमीटर तक 500 किलोग्राम भार ले जा सकनेवाले अपने बैलेस्टिक मिसाइलों को नष्ट करना होगा. हालांकि उसने 1998 में यूक्रेन तथा 2012 में दक्षिण कोरिया के लिए इस शर्त में छूट दी थी. बीते दिनों के घटनाक्रम से यह संकेत मिलता है कि अमेरिका ने भारत के लिए भी अपने मिसाइल रखने की छूट दे दी है और एमटीसीआर की अगली बैठक में उसे औपचारिक सदस्यता मिल जायेगी.
एमटीसीआर की सदस्यता के संभावित लाभ
हालांकि सदस्य देशों के लिए मिसाइलों के आयात-निर्यात के संबंध में कोई विशेष छूट नहीं है, पर भारत को उम्मीद है कि इस सदस्यता के बाद अमेरिका से वैसे अत्याधुनिक ड्रोन और प्रक्षेपास्त्र ले पाना आसान हो जायेगा, जिनका उपयोग अफगानिस्तान, पाकिस्तान, सोमालिया और यमन में आतंकवाद के विरुद्ध सफलतापूर्वक किया गया है. ये ड्रोन अब तक सिर्फ ब्रिटेन, इटली और दक्षिण कोरिया को बेचे गये हैं.
अमेरिका भी ऐसे हथियारों के निर्यात में ढील के पक्ष में है क्योंकि इजरायल, रूस और चीन जैसे उसके प्रतिद्वंद्वी इन हथियारों को विकसित करने के प्रयास में हैं. इस रिजीम में शामिल होने से भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को बड़ी मदद मिलेगी. भारत रूस के सहयोग से बने अपने सुपरसोनिक ब्रह्मोस मिसाइलों के निर्यात की कोशिश लंबे समय से कर रहा है. इस समूह की सदस्यता से इस प्रयास में मदद मिलेगी.
अमेरिका और भारत का रुख
अमेरिका परमाणु अप्रसार की एक वैश्विक व्यवस्था बनाने के लिए प्रयासरत है, जो 1968 के परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) का मुख्य उद्देश्य है. इस संधि के मुताबिक वही देश ‘परमाणु हथियार संपन्न देश हैं, जिन्होंने एक जनवरी, 1967 से पहले परमाणु परीक्षण किया हुआ है. इसका अर्थ यह है कि इजरायल और पाकिस्तान की तरह भारत ऐसे देशों की श्रेणी में नहीं आ सकता है. इन तीन देशों ने इस संधि पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया है.
वर्ष 2005 के बाद भारत और अमेरिका के रणनीतिक संबंधों में मजबूती आने के बाद परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग बढ़ा है, पर इस संधि में भारत के शामिल नहीं होने के कारण संबंधित तकनीक का हस्तांतरण नहीं हो पा रहा है. भारत-अमेरिका परमाणु करार के जरिये इस समस्या का समाधान करने की राह निकाली गयी है.
भारत अपने नागरिक और सैन्य परमाणु कार्यक्रमों को अलग करने पर सहमत हो गया है और नागरिक परमाणु को इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी के नियमों के तहत रखा गया है. भारत ने अपने निर्यात नियमों में भी एनएसजी, एमटीसीआर, वासेनार एग्रीमेंट और ऑस्ट्रेलिया ग्रुप के निर्देशों के अनुरूप बदलाव किया है. ये चार समूह परमाणु नियंत्रण के प्रमुख व्यवस्थाएं हैं. इस पृष्ठभूमि में अमेरिका भारत को इन व्यवस्थाओं में शामिल करने के लिए तैयार है, और ऐसा हो जाने के बाद एनपीटी पर हस्ताक्षर के बिना भी भारत को एनपीटी सदस्य के समकक्ष व्यावहारिक मान्यता मिल जायेगी.
पाकिस्तान के विरोध के कारण
पाकिस्तान का तर्क है कि भारत को परमाणु साजो-सामान और तकनीक देने से उसके सैन्य परमाणु कार्यक्रम को बड़ी मदद मिलेगी. इससे परमाणु हथियारों की दौड़ को बढ़ावा मिलेगा. लेकिन यह तर्क बेमानी है, क्योंकि पाकिस्तान फिसिल मैटेरियल कट-ऑफ ट्रीटी का जोरदार विरोध करता है, जो सभी देशों में परमाणु हथियारों को कम करने के लिए लाया गया है. यह संधि पाकिस्तान की शंकाओं का समाधान करती है, पर उसने इसे मानने से इनकार कर दिया है.
जारी है चीन का अवरोध
चीन का कहना है कि जिन आधारों पर भारत को सदस्यता दी जा सकती है, उन्हीं आधारों पर अन्य देशों को भी एनएसजी में शामिल किया जाना चाहिए. ऐसे में न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में पाकिस्तान के शामिल होने की राह भी खुल जायेगी, जिस पर अनेक देशों को आपत्ति है, क्योंकि पाकिस्तान ने गुप-चुप तरीके से ईरान, लीबिया और उत्तरी कोरिया को परमाणु तकनीक मुहैया कराया है.
चीन ने 2008 में भारत को दी गये छूट का समर्थन किया था : भारत में परमाणु ऊर्जा रियेक्टर लगाने के लिए एनएसजी के सदस्य देशों और भारत के बीच परमाणु व्यापार का एक अवसर 2008 में दिया गया था. तब चीन और अमेरिका के संबंध अच्छे थे और राष्ट्रपति बुश ने तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति हु जिन्ताओ को मना लिया था. लेकिन, आज साउथ चाइना सी और अन्य मसलों पर दोनों देशों के बीच संबंध तनावपूर्ण हैं. ऐसे में चीन को मना पाना अमेरिका के लिए आसान नहीं है. इस स्थिति में चीन एमटीसीआर में अपनी सदस्यता सुनिश्चित करने के लिए दबाव की राजनीति कर रहा है.
21 न्यूक्लियर पावर रियेक्टर हैं देश में जिनकी कुल क्षमता 5,780 मेगावाट है.13 के करीब भारत के रियेक्टर, जिनकी क्षमता 3,389 मेगावाट है, इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी की निगरानी में हैं और ये ईंधन का आयात कर सकते हैं.
– भारत ने फ्रांस, रूस, कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, अमेरिका, नामिबिया, यूरोपीय संघ, अर्जेंटीना, चेक गणराज्य, दक्षिण कोरिया, वियतनाम, श्रीलंका और कनाडा से यूरेनियम आयात करने का करार किया है.
3,700
मीट्रिक टन से अधिक यूरेनियम फ्रांस, रूस और कजाकिस्तान से 2009 के बाद से आयात हो चुका है. बीते सालों में परमाणु संयंत्रों की क्षमता के उपयोग में वृद्धि हुई है.
( िबजनेस स्टैंडर्ड की िरपोर्ट)
परमाणु अप्रसार के लिहाज से चीन का रवैया घातक
रेशमी काजी
अंतरराष्ट्रीय मामलों की जानकार
न्यू क्लियर सप्लायर्स ग्रुप में भारत की प्रस्तावित भागीदारी पर चीन को दो आपत्तियां हैं. उसकी पहली चिंता परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर भारत के हस्ताक्षर नहीं करने से है. उसका तर्क है कि ऐसे में भारत को समूह की सदस्यता नहीं मिल सकती है. चीन का दूसरा मुद्दा है कि समूह में भारत के शामिल होने का मामला पाकिस्तान से जुड़ा हुआ है.
पहली आपत्ति पर तार्किक रूप से कहा जा सकता है कि एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं करने के मसले पर एनएसजी में शामिल होने से भारत को रोकना परमाणु अप्रसार के वैश्विक प्रयास के हित में नहीं है. दूसरी आपत्ति बिल्कुल अप्रासंगिक है, क्योंकि निर्यात नियंत्रण के इस समूह में भारत की सदस्यता को किसी अन्य देश से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए.
इस समूह में भारत के शामिल होने के प्रस्ताव का सदस्य देशों द्वारा पूरी तरह से समर्थन किया जाना चाहिए, क्योंकि चुनिंदा सहयोग के आधार पर यह समूह अलग से प्रभावी नहीं हो सकता है.
भारत द्वारा 1974 में शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण के बाद इस समूह के सात संस्थापक देशों ने यह स्वीकार किया था कि एनपीटी अपने-आप में परमाणु हथियारों और तकनीक के प्रसार को रोक पाने में सक्षम नहीं है. इस समूह की स्थापना परमाणु सामानों और तकनीक के अवैध हस्तांतरण को रोकने के उद्देश्य से हुई थी. इस समूह के 48 देश इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए निर्धारित दिशा-निर्देशों का पालन करते हैं. वर्ष 2008 में भारत की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों को देखते हुए उसे परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों से कारोबार की छूट दी गयी थी. भारत ने प्रभावी तरीके से इस छूट का लाभ उठाया है और परमाणु अप्रसार की अंतरराष्ट्रीय कायदों को माना है. इसके अलावा परमाणु तकनीक के प्रसार को रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर किये जा रहे उपायों और समझौतों को भी भारत ने स्वीकार किया है.
ऐसी स्थिति में चीन का अड़ियल रवैया अनुचित है. एनएसजी में शामिल नहीं होने से भारत के परमाणु अप्रसार प्रयासों पर असर नहीं पड़ेगा, लेकिन अगर उसे सदस्यता नहीं मिली, तो भविष्य में इस समूह की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठने लगेंगे. परमाणु तकनीक के वैश्विक प्रसार को देखते हुए एनपीटी से बाहर के परमाणु-शक्ति संपन्न देशों को एनएसजी में शामिल करना अप्रसार को प्रभावी बनाने के लिए जरूरी है. परमाणु तकनीक में भारत की दक्षता और भविष्य में प्रतिस्पर्द्धात्मक आपूर्त्तिकर्ता बनने की उसकी योजनाओं के मद्देनजर इस समूह में उसका शामिल होना तात्कालिक आवश्यकता है.
इसलिए, चीन को एनपीटी के तर्क को आगे रखकर भारत को रोकने का कोई मतलब नहीं रह जाता है.एनपीटी के सदस्य होने के बावजूद इराक, ईरान और उत्तर कोरिया जैसे देश गुप-चुप तरीके से परमाणु हथियार पाने की कोशिश में लगे रहते हैं. वर्ष 1974 में गैर-एनपीटी देश फ्रांस ने पाकिस्तान को परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने में मदद दी थी, पर उसी साल उसके एनएसजी में शामिल होने के बाद 1978 में पाकिस्तान के साथ करार रद्द हो गया था. परमाणु तकनीक के निर्यात को रोक पाने में इस समूह के प्रयास बहुत संतोषजनक नहीं हैं.
पाकिस्तान के परमाणु वैज्ञानिक ए क्यू खान के कारनामे और चीन-पाकिस्तान परमाणु सहयोग समूह के नियमों का खुला उल्लंघन हैं. ऐसे में समूह को एनपीटी की शर्त को हटा कर भारत जैसे देशों को शामिल कर अपना दायरा बढ़ाने की जरूरत है. अमेरिका ने भी एनएसजी को लिखे अपने पत्र में भी एनपीटी की सदस्यता को जरूरी नहीं बनाये जाने और समान विचार के देशों को शामिल करने की बात कही है. पाकिस्तान को एनएसजी में लिये जाने की चीन की वकालत को भारत की राह अवरुद्ध करने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है.
परमाणु अप्रसार के मामले में भारत के रिकॉर्ड की तुलना पाकिस्तान से नहीं की जा सकती है. भारत ने 1998 के परीक्षणों के बाद आगे ऐसा न करने का संकल्प लिया है, जिसे आज तक पूरा किया गया है. चीन के साथ परमाणु सहयोग और ए क्यू खान के मामलों पर पाकिस्तान का रवैया साफ नहीं है. ऐसे में चीन को सतही राजनीति से ऊपर उठकर व्यापक वैश्विक हित में एनएसजी में शामिल होने की भारत की दावेदारी का समर्थन करना चाहिए.
(‘द डायलॉग’ में छपे लेख का संपादित और अनुदित अंश. साभार)
एनएसजी की सदस्यता मिलने से नहीं होगा कोई बड़ा फायदा
अभिजीत अय्यर मित्रा
विजिटिंग फेलो, इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कन्फ्लिक्ट स्टडीज (आइपीसीएस)
मेरे ख्याल में बिना एनएसजी की सदस्यता के भी भारत को हर तरह की परमाणु तकनीक मिल रही है, सिवाय रिएक्टर वेसेल टेक्नोलॉजी के. रिएक्टर वेसेल टेक्नोलॉजी के अलावा हमें जो भी परमाणु तकनीक चाहिए, वह सब हमें बाकी देशों से मिल जाती है. चूंकि रिएक्टर वेसेल टेक्नोलॉजी जापान के पास है, जिसे वह देने के लिए किसी भी तरह से तैयार नहीं है.
न्यू क्लियर सप्लायर्स ग्रुप यानी एनएसजी में फिलहाल 48 सदस्य देश हैं और इसमें शामिल होने को लेकर भारत की कोशिशें जारी हैं. इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पांच देशों की हालिया यात्रा को कामयाब बताया जा रहा है, क्योंकि इस यात्रा के दौरान कई और देशों ने एनएसजी में भारत के शामिल किये जाने का समर्थन किया है. अमेरिका तो पहले से ही एनएसजी में शामिल होने के लिए भारत का समर्थन कर रहा है. एनएसजी में शामिल होने की कोशिशों को हम एनपीटी (परमाणु अप्रसार संधि) के विकल्प के रूप में मान रहे हैं, क्योंकि किन्हीं कारणों से फिलहाल भारत एनपीटी में शामिल नहीं हो सकता. दूसरा यह कि अब तक भारत ने एनपीटी पर हस्ताक्षर भी नहीं किया है.
माना जा रहा है कि अगर भारत को एनएसजी की सदस्यता मिल जाती है, तो भारत को इससे बहुत फायदा मिलेगा. लेकिन, मुझे इससे कोई बड़ा फायदा नजर नहीं आ रहा है. यह भी कहा जा रहा है कि सदस्यता मिलने से भारत को परमाणु तकनीक मिलने लगेगी. लेकिन मेरे ख्याल में बिना एनएसजी की सदस्यता के भी भारत को हर तरह की परमाणु तकनीक मिल रही है, सिवाय रिएक्टर वेसेल टेक्नोलॉजी के. रिएक्टर वेसेल टेक्नोलॉजी के अलावा हमें जो भी परमाणु तकनीक चाहिए, वह सब हमें बाकी देशों से मिल जाती है. चूंकि रिएक्टर वेसेल टेक्नोलॉजी जापान के पास है, जिसे वह देने के लिए किसी भी तरह से तैयार नहीं है.
रिएक्टर वेसेल टेक्नोलॉजी को जापान की मित्सुबिशी हैवी इंडस्ट्रीज लिमिटेड कंपनी बनाती है. यहां गौर करनेवाली बात यह भी है कि अगर हम एनएसजी के सदस्य बन भी जायें, तब भी जापान हमें रिएक्टर वेसेल टेक्नोलॉजी नहीं देगा. जापान की ब्यूरोक्रेसी पाकिस्तान के आइएसआइ की तरह ही व्यवस्था पर पकड़ रखती है. भारत के प्रधानमंत्री और जापान के प्रधानमंत्री चाहे जितनी भी सकारात्मक बैठकें कर लें, चाहे जितनी भी बातें कर लें, इस मामले में जापान का प्रतिष्ठान (पीएमओ) सिर्फ एक शब्द बोलेगा- नो चांस. जापानी ब्यूरोक्रेसी एक प्रकार की न्यूक्लियर कट्टरपंथी है. मसलन, महाराष्ट्र के जैतापुर में फ्रांसीसी परमाणु कंपनी अरेवा एक परमाणु बिजली संयंत्र लगा रही है, अरेवा कंपनी जापानी रिएक्टर वेसेल टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करती है, लेकिन जापान इसे नहीं दे रहा है.
इस तरह मैं समझता हूं कि एनएसजी में शामिल होने से कोई खास फायदा नहीं होनेवाला है. अगर भारत एनएसजी में शामिल हो भी जाता है, तब भी यह जरूरी नहीं कि वह जो चाहे उसे मिल ही जायेगा. मसलन, कल को अगर भारत एनएसजी में शामिल हो जाये और वह चाहे कि उसे जापानी रिएक्टर वेसेल मिल जाये, तो यह तभी संभव है, जब जापान इसे देना चाहेगा.
वैसे तो कोई भी देश एनएसजी में शामिल हो सकता है, लेकिन नये सदस्यों के लिए नया नियम यह है कि वह एनपीटी या सीटीबीटी पर हस्ताक्षर कर चुका हो. भारत ने एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं किया है, फिर भी भारत के समर्थन में कई देश मुहिम चला रहे हैं कि इसे एनएसजी की सदस्यता मिलनी चाहिए.
अब समस्या यह है कि एनएसजी में शामिल होने की कसौटी पर खरा कैसे उतरा जाये. मैक्सिको और स्विट्जरलैंड के राष्ट्रपतियों का बयान है कि एनएसजी की सदस्यता के लिए भारत का समर्थन हो. दरअसल, ये देश अपने समर्थन की राजनीति के पीछे सदस्यता की असली कसौटी को छिपा देते हैं. इससे सबकुछ गडमड हो जाता है और सालों-साल तक सदस्यता पर राजनीति होती रहती है, होता कुछ भी नहीं है. इस समय भी वही हो रहा है.
अभी हाल ही में ओबामा जापान से लौट कर आये हैं, इसके तुरंत बाद मोदी जी अमेरिका पहुंच गये. एनएसजी की सदस्यता की बात उठी है और इस बार भी मामला आगे तक खिंच गया. जब इसका फैसला होगा, संभव है, तब तक अमेरिका का राष्ट्रपति कोई और हो जायेगा.
उसके बाद एनएसजी में भारत की सदस्यता को लेकर क्या होगा, इसका अभी से अनुमान लगाना मुश्किल है. जहां तक न्यूक्लियर ट्रेड की बात है, तो सदस्यता मिलने से पहले इस बारे में भी पक्के तौर पर कुछ कह पाना मुश्किल है कि भारत का न्यूक्लियर ट्रेड क्या और कैसा होगा.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधािरत)
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