-हरिवंश-
हर भारतीय के लिए म्यांमार की आबोहवा में नेताजी की गंध है. वहां की धरती पर पांव पड़ते ही भारतीय जानना चाहते हैं कि नेता कहां रहते थे? उनकी कोई स्मृति है या नहीं? महारानी लक्ष्मीबाई रेजिमेंट का गठन, दिल्ली चलो का आवाहन, आजाद हिंद फौज के संकल्प-सपने कहां दफन हैं? बर्मा से इंफाल (भारत के द्वार तक दस्तक) तक पहुंचे आजाद हिंद फौज के जांबाज लोगों का फौलादी व्यक्तित्व और मजबूत मन, इस धरती के किस टुकड़े पर टिका, रहा, सपने देखा और आहुति दी? हर भारतीय के इन सामान्य सवालों के सीधे उत्तर नहीं हैं. क्योंकि नेताजी स्थायी तौर पर किसी एक जगह-एक आवास में वहां नहीं रहे.
वहां रहनेवाले हर भारतीय के लिए नेताजी का नाम, जादुई असर से जुड़ा है. नेताजी का नाम लेते ही बुजुर्ग सुलेमान अहमद जिनवाला बिल्कुल जोश में आ गये, जिनवाला का परिवार मूलत: गुजरात से आया. कई पीढ़ियों पहले. जिनवाला के वालिद, नेताजी के साथ थे. एक रात नेताजी इनके घर पर रहे. जिनवाला कहते हैं कि ‘वह मेरे दादा की खाट पर सोये, वह खाट आज भी सुरक्षित है.’
अद्भुत है, नायकों की गाथाएं और मनुष्य का मन. नेताजी जिस खाट पर रात सोये, उसे लोगों ने सुरक्षित रखा है. वह सिर्फ स्मृति चिह्न नहीं है. ऊर्जा और प्रेरणास्रोत है.
आज रहनुमाई करनेवाले नेताओं को गौर करना चाहिए कि इस देश में कैसी विभिूतयां हुई हैं? और यांगून का सिर्फ यह एक परिवार नहीं, दुनिया में लाखों परिवार हैं. करोड़ों लोग हैं, जो आज भी नेताजी की चर्चा में मुग्ध होते हैं. ताकत पाते हैं. एक अकेला इंसान, अपने दौर की सबसे ताकतवर सत्ता के लिए चुनौती बन गया. वह वीरता, संकल्प और साहस. इतिहास में धरोहर है.
सुलेमान अहमद जिनवाला कहते हैं कि नेताजी का दर्शन चुंबकीय था. वह बताते हैं कि वहां वह कुछ दिनों गवर्नर हाउस में रहे. यांगून से दूर ममेयो (नया नाम ताइनोनिन) में डॉ बामो के घर में रहे. उनकी सभाओं में जिनवाला और उनके भाई गीत गाते थे. जिनवाला गौरव से अपनी पीठ दिखा कर कहते हैं. इसे नेताजी ने थपथपाया है. वह पुराने दिनों में खो जाते हैं और इंजियन नेशनल आर्मी (आइएनए) के कुछ पुराने गानों को सुनाते हैं, जिन्हें इन दोनों भाइयों ने नेताजी की मौजूदगी में सभाओं में गाये थे,
‘हम दिल्ली-दिल्ली जायेंगे
हम बिगड़ी हिंद बनायेंगे
सुभाष का कहना-कहना है
हम दिल्ली चल कर रहना है
हम फौजी बन कर रहना है
दुख दर्द मुसीबत सहना है
सुभाष का कहना-कहना है
हम दिल्ली चल कर रहना है
इन पुकारों ने भारतियों का मन आलोकित किया.
वर्मा से इंफाल तक पहुंचे आजाद हिंद फौज के लोगों ने जो मुसीबतें सही, उनसे देश अनजान है. पर यह अद्भुत साहस-शौर्य की गाथा लिखी गयीं, नेताजी की प्रेरणा से ही, जिनवाला आगे सुनाते हैं. ‘इंकलाब जिंदाबाद कहता यार चल दूर तेरा है मुकाम जल्दी यार चल नेताजी के नाम का डंका बजाये जा हिंदू अगर तीर तो मुसलमान कमान है तेग तेज कर रहा हर नौजवान है.
इस्माल जिनवाला कहते हैं कि इन लोगों के मन में हिंदुस्तान के बारे में एक मुकम्मल सपना था. वह उस सपने की सुनाते हैं. जिसे उन्होंने बचपन में नेताजी के सामने गाया था. हो मुबारक तुझको ऐ हिंदुस्तान इंकलाब नूर फैलता है तेरी जिंदगी का आफताब अब तो तेरी गोद में अंगरेज मेहमा चंद रोज हो चुका उनके सर पर खुदा बंदी आजाद याद रख प्यारे वतन हमको तुझसे इश्क है हम भी पहुंचेंगे किसी दिन बन के … कामयाबजालिमों से लेंगे, बदले सारे जुल्म के उनके दुल्म बेपनाह का उनसे लेंगे हिसाब .
विद्वता, लय, संगीत, छंद बगैरह की दृष्टि से नज्म-गीत अधूरे हो सकते हैं. पर आजाद हिंदुस्तान की नींव में इनकी भूमिका स्मरणीय रहेगी. नेताजी शताब्दी समारोह शुरू होनेवाले हैं. म्यांमार में पुन: दिल्ली चलो का विफल रिहर्सल हुआ. इस अवसर पर ऐसे बिखरे नज्मों-प्रसंगों को संकलित करना चाहिए. वाचिक परंपरा से जो तथ्य मिले, उन्हें एकत्र करना चाहिए.
75 वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी शमलाल भारती म्यांमार में ही रह गये हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय वह भाग कर बर्मा (म्यांमार) गये नेताजी से मिले. ‘मैं पहली बार नेताजी से 40 के दशक में मिला. रंगून के पास बी याड में. मित्र देशों के बमवर्षक हवाई जहाजों से बचने के लिए हम खाई में दुबके थे. मैं बहुत आतंकित और सहमा था. देखा, पास से एक भव्य चेहरावाला व्यक्ति खाई से निकल कर देख रहा है कि कहा से बम गिराये जा रहे हैं. उस व्यक्ति का आत्मविश्वास अद्भुत था. उन्होंने आगे बढ़ कर हाथ मिलाया और कहा, मैं सुभाष चंद्र बोस हूं.
उस दिन की बाद करते हुए भारती खो जाते हैं. खाकी कपड़े पहने नेताजी उस शाम वहां छुपे आश्रय लिये बच्चों से खेलने लगे. अपनी विशिष्ट शैली में बच्चों को गोद में उठा लिया. उनकी पीठ थपथपायी और कहा ‘बहादुर बच्चों, डरो मत, वह कहते हैं कि नेताजी को मैंने कभी गुस्से में नहीं देखा.
श्री भारती 1936 में बनारस में क्रांतिकारी दल में कूद पड़े. क्रांतिकारी सतेंद्रनाथ सांन्याल, अग्रसेन सिंह, रामशंकर दीक्षित, अनतराम वगैरह के साथ गाजीपुर के नजदीक एक ट्रेन में डकैती डाली गयी. श्री भारती कहते है ‘मेरे साथी पकड़ लिये गये, मैं 1938 में भाग कर वर्मा चला आया. फिर नेताजी आये, तो उनके संपर्क में मध्य वर्मा के वामेशीन जिलक में इंडियन नेशनल लीग को देखने का दायित्व उन्हें सौंपा गया. आइएनएल, इंडियन नेशनल आर्मी का जन संगठन था. 1944 में अंतिम बार श्री भारती ने नेताजी को देखा. नेताजी की दुर्घटना को याद करते-बताते, श्री भारती के आंसू बहने लगते हैं. वह कहते हैं कि इन नश्वर दुनिया में भी नेताजी जैसे लोगों का शौर्य-योगदान कभी धूमिल नहीं होगा.
अब भी भारती वर्मा में ही लेखक-प्रकाशक और बर्मी भाषा के अध्यापक के रूप में स्थापित हो चुके हैं. आप भारत क्यों नहीं लौटे? वह सुनाते हैं, ‘बहुत देर हो गयी. मुझे आज भी उस वर्मा की याद है, जो भारत में जुड़ा था. आप नौजवान लोग अलग तरह से सोचते होंगे. पर मेरे लिए आजादी का अर्थ विभाजन नहीं था.
यांगून की 123वीं सड़क के अपने निवास पर उस शाम किसी दूसरी दुनिया में खो चुके श्री भारती बहुदबुदाये, भारत एक रहा होता अगर नेताजी वापस लौट आये होते.