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केशव झा : स्मृति शेष है

-हरिवंश- 1977 मार्च के आशा भरे दिन थे. कांग्रेस का वर्चस्व पहली बार केंद्र से टूट गया था. सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन में नयी उम्मीदों की कोपलें फूट रहीं थीं. उन्हीं दिनों हम बंबई टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रशिक्षाणार्थी पत्रकार (बैच 1977) के रूप में चुने गये. बंबई की गहमागहमी-अपरिचय और आत्मकेंद्रित माहौल में जो काफी गर्मजोशी-आत्मीयता […]

-हरिवंश-

1977 मार्च के आशा भरे दिन थे. कांग्रेस का वर्चस्व पहली बार केंद्र से टूट गया था. सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन में नयी उम्मीदों की कोपलें फूट रहीं थीं. उन्हीं दिनों हम बंबई टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रशिक्षाणार्थी पत्रकार (बैच 1977) के रूप में चुने गये. बंबई की गहमागहमी-अपरिचय और आत्मकेंद्रित माहौल में जो काफी गर्मजोशी-आत्मीयता से मिले, उनमें से केशव झा कभी नहीं भूलेंगे, ‘नवभारत टाइम्स’ (बंबई) में काम करने के दौरान जीवंतता-बौद्धिक स्फूर्ति और ताजगी झा जी के साथ मिलती.

इस कारण हम नये पत्रकारों के वे विशेष पसंद थे. जिन लोगों को खेल पत्रकारिता में रुचि थी. उन्हें झा जी खुद महंगी खेल पुस्तकें खरीदते और पढ़ने के लिए सौंपते. बहस करते और लिखवाते. उनका जुहू स्थित घर पत्रकारों का अड्डा हुआ करता था. सुरेंद्र प्रताप सिंह, उदयन शर्मा, राजन गांधी, विजय भास्कर, आलोक मेहरोत्रा, रामकृपाल और न जाने कितने लोग वहां निरंतर पहुंचने वाले थे. हिंदी पत्रकारिता में ‘खेल विधा’ के पिछ़डेपन को लेकर वह अकसर गर्मजोशी से बहस करते. योजनाएं बनाते और पूरा करवाते, ‘धर्मयुग’ और ‘रविवार’ के खेल पृष्ठों पर न जाने कितने उम्दा और समृद्ध लेख झा जी ने लिखे.

हाल ही में वह नवभारत टाइम्स छोड़कर दिल्ली आये थे. वहां से उनकी योजना विभिन्न पत्र-पत्रकारिता को समृद्ध करने के सुझाव देते. वर्ष 1992 में प्रभात खबर ने 32 पृष्ठों का ओलिंपिक विशेषांक निकाला. बाद में भी इस संग्रहणीय अंक की बाजार से मांग आती रही. उस पूरे अंक के सभी लेख अकेले झा जी ने लिखे-तैयार किये, ताकि कुछ छूटे न और अंक अपूर्ण न बने. दिल्ली से बंबई वह 8 दिनों पूर्व ही गये.

जाने के पहले रांची फोन किया और कहा ‘मेरी पारी’(स्तंभ) के अलावा ‘भारत-इंग्लैंड टेस्ट श्रृंखला’ पर लगभग 40 किश्त लिखूंगा. सात जनवरी को उनका भेजा ‘मेरी पारी’ स्तंभ (अब अंतिम) और भारत-इंग्लैंड टेस्ट श्रृंखला की 20वीं किश्त मिली. इसके बाद आज 8 जनवरी को उनकी आकस्मिक मौत की खबर.

मौत अपरिहार्य है, फिर भी झा जी का 56 वर्ष की उम्र में जाना बेचैन करता है. इससे भी बढ़कर चिंताजनक तथ्य है कि जब हिंदी पत्रकारिता में कमोबेश अपढ़ ताकतों का बोलबाला बढ़ रहा हो, तब पूरी हिंदी पत्रकारिता की गरिमा समृद्धि के प्रति शिद्दत से सोचनेवाले झा जी का न रहना अत्यंत कष्टकर है.

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