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… जब राजा जनक ने जोता हल
बल्देव भाई शर्मा हमारी पौराणिक कथाओं में विविध प्रकार से भारतीय चिंतन और जीवन दृष्टि का प्रकटीकरण होता है. लेकिन कई बार कुछ लोग इन्हें कपोल कल्पना या पोंगापंथ कह कर नकारते भी हैं. लंका विजय के लिए जा रहे श्रीराम के द्वारा समुद्र पार करने के लिए बनवाये गये रामसेतु पर कई साल पहले […]
बल्देव भाई शर्मा
हमारी पौराणिक कथाओं में विविध प्रकार से भारतीय चिंतन और जीवन दृष्टि का प्रकटीकरण होता है. लेकिन कई बार कुछ लोग इन्हें कपोल कल्पना या पोंगापंथ कह कर नकारते भी हैं. लंका विजय के लिए जा रहे श्रीराम के द्वारा समुद्र पार करने के लिए बनवाये गये रामसेतु पर कई साल पहले यही सवाल उठा.
इसे मात्र एक कल्पित कथा बता कर नकारने का प्रयास हुआ, लेकिन नासा द्वारा लिये गये कुछ शोध चित्रों में समुद्र के भीतर इसका अवशेष दिखाई देने की बात भी सामने आयी. अब भी कई बार उस चित्र को कुछ प्रसंगों व आलेखोेें में प्रस्तुत किया जाता है. तात्पर्य वह कि हमारी पौराणिक कथा कल्पित है या घटित, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है उस संदेश को पकड़ना और समझना जो मानव जीवन के लिए प्रेरक है.
उपनिषद में हमारे ऋषियों ने कहा है यानि अष्माकं सुचरितानि तानिक त्वया सेवितं नो इतिराणि. अर्थात उनका संदेश है कि जो आपके जीवन में श्रेष्ठ है, प्रेरणादायक है उसे ग्रहण करो और उसके अनुसार आचरण करो. अन्यथा निंदा-अभियान से तो कुछ भी हासिल होने वाला नहीं क्योंकि नकारात्मक बुद्धि तो जीवन में गतिरोध ही पैदा करती है.
चिंतन-मनन, मीमांसा या विचार-विमर्श के लिए सदाशयता बहुत जरूरी है, दुराग्रह के साथ किसी सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता. इसीलिए जैन दर्शन में भी सम्यक बुद्धि का संदेश दिया गया है. केवल छिद्रान्वेषण और छीछालेदार की प्रवृत्ति लेकर हम कभी जीवन की सही सोच प्राप्त नहीं कर सकते.
आज जब देश के कई हिस्से सूखे की मार से पीड़ित हैं और किसान के सामने भीषण संकट है, तब भारत की कृषि परंपरा और समाज के पालन-पोषण में अन्नदाता के रूप में किसानों का गौरवपूर्ण किया जाना चाहिए. इस तथ्य की अनदेखी भी किया जाना विनाशकारी ही होगा कि भारत कृषि की संस्कृति वाला देश है.
सीता के जन्म को लेकर जो कथा प्रचलित है वह हमें बताती है कि भारत में कृषि परंपरा कितनी प्राचीन है. राजा जनक के मिथिला राज्य में अकाल और सूखे की भीषण स्थिति से हाहाकार मच गया.
जनक अत्यंत प्रजावत्सल भाव के राजा थे. सारे हालात से वह चिंतित रहने लगे और ऐसे किसी उपाय की खोज में राज्य के मंत्रियों-विद्वानों से परामर्श करने लगे जिससे राज्य में भुखमरी की हालत से निबटा जा सके. इसी बीच एक ज्योतिषी ने सलाह दी कि यदि राजा स्वयं खेत में हल जोतते तो निश्चित ही ग्रह दोष होगा. इससे राज्य में भरपूर वर्षा होगी और फसलें लहलहा उठेंगी. जनक का राजसी अहंकार इस सुझाव के क्रियान्वयन में कहीं आड़े नहीं आया. वैसे भी जनक सम्यक बुद्धि के शासक थे, अहंकार-ठाठ बाट और सुखोपभोग की लालसा से परे. इसीलिए जनक को विदेह की उपाधि मिली कि वह इस भौतिक देह में रह कर भी राजसुख की सभी लालसाओं से मुक्त एवं अनसक्त मानव के प्रतीक थे.
राजा होकर भी ऐसा सोच रखना भारतीय जीवन दृष्टि की विशेषता है. आजादी के बाद जो राजनीतिक नेतृत्व देश में संचालन करता रहा है, उसके लिए यह विचारणीय है कि जनता का दुख-दर्द, उसकी बुनियादी जरूरतें, उसके जीवन को खुशहाल और सम्मानजनक स्थिति में लाना उनकी प्राथमिकताओं में कितना रहा. राजा जनक न केवल भारतीय शासन व्यवस्था के उच्च मानकों के लिए नहीं बल्कि वह भारत की संस्कृति एवं आर्थिक चेतना के प्रतीक हैं.
उनके दरबार में अष्टावक्र आते हैं तो राज दरबार में उपस्थित कुछ अष्टावक्र हेतु टेढ़े-मेढ़े शरीर को देख कर हंस पड़ते हैं. अष्टावक्र कहते हैं राजन. तुम्हारी दरबार में चमड़े के व्यापार बढ़े हैं. यह शरीर चमड़ा ही है मैं तो इसके अंदर बसी आत्मा हूं. उसे तो ये लोग देख ही नहीं पड़े रहे. राजा जनक न केवल इस पर लज्जित हुए बल्कि उन्होंने अष्टावक्र से आत्मत्व का ज्ञान लिया. वही अष्टावक्र गीता के नाम से प्रसिद्ध है. शासक की ऐसी निरंतरता ही उसे सम्यक ज्ञान का बोध कराती है, तभी वह सही-गलत का फैसला कर पाता है और इसी से होती है सुशासन की व्यवस्था.
कथा है कि ज्योतिषी की सलाह पर राजा जनक ने खेत में हल चलाया, वर्षा हुई, अकाल खत्म हुआ और राज्य में खुशहाली आयी. राजा जनक ने इस तरह कृषि कर्म को महत्ता दी. राजा होकर भी उन्हें संकोच नहीं हुआ कि मैं यह काम कैसे करूंगा क्योंकि कृषि कर्म भारत में हमेशा श्रेष्ठ माना गया. प्रसिद्ध लोक कवि घाघ ने भी लिखा है ‘उत्तम खेती मध्यम बान.’ यानी खेती-किसानों के काम को उन्होंने ए ग्रेड पर रखा है.
समाज में हमारे यहां खेती को उच्च कोटि का काम माना गया और वाणिज्य-व्यापार को दूसरी श्रेणी का. घाघ ने पाकरी यानी नौकरी को तो निकृष्टता की श्रेणी में रखा है. लेकिन आज के दौर में किसान को उसके कृषि कर्म को हेय नजर से देखने का चलन हो गया है. किसान सबसे दीन-हीन और उपेक्षित हो गया है, कोई उसकी सुनता नहीं. सरकारों का किसानों का दर्द कम करने की फुरसत किसी को नहीं. बस सरकारों की उपलब्धियों में दर्ज हो जाता है कि हमने किसानों के लिए इतना किया. काश, यह भी जांच-परख लिया होता कि इससे किसानों का कितना भला हुआ या उनके जीवन में परिवार में कितनी खुशहाली आयी, तो शायद किसानों की लाखों, जिंदगियां बेमौत काल के गाल में न समा जातीं.
राजा जनक खुद उस पीड़ा से जुड़े ,हल थामा और खेत जोता. इस पीड़ा में से जन्मी सीता यानी जानकी.खेत जोतते समय हल की फाल एक घड़े से टकराया तो देखने पर उस घड़े में एक नजवात बच्ची मिली, उसे जनक और रानी ने बड़े अपनत्व से अपनाया. पाला-पाेसा और उसे राजकुमारी यानी जनक सुता को अपना वर चुनने का अधिकार देने के लिए स्वयंवर भी रचा. यह आख्यान कितना प्रेरक व मार्मिक है कि आज भी भारतीय जनमानस में रचा बसा है.
राजा जनक ही इसके केंद्र में हैं. आज जब कन्याओं की भ्रूण हत्या या अपनी मर्जी वे उनकी शादी पर नृशंस हत्याओं का बर्बर कलंक हमारे समाज के माथे को नीचा हुए हैं, तब जनक एक दीप समान उभरते हैं. सीता को तो स्वामी विवेकानंद ने विश्व के नारी जगत का आदर्श माना है. सीता को लेकर विवेकानंद के विचार कथित नारी स्वातंत्रय के आंदोलन के इस दौर में सही राह दिखाने वाले हैं. काश, हम इन आख्यानों का मर्म समझ कर तदनुसार जीवन जी सके तो दुनिया को भारत से मानवता की एक नयी राह मिलेगी.
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