अरविंद मोहन
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक
यह हैरानी की बात नहीं है कि चुनाव पांच राज्यों की विधानसभाओं के लिए हुए थे, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा असम चुनाव की हो रही है. राष्ट्रीय राजनीति के हिसाब से अकेले इसी राज्य में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी भिडंत हो रही थी. होने को तो केरल में भी कांग्रेस और वाम दल आमने-सामने थे, लेकिन बंगाल में दोस्ती और केरल में दुश्मनी दिखा कर इस लड़ाई का महत्व खुद ही कम कर दिया गया था.
सबसे दमदार जीत ममता बनर्जी और कुछ कम जयललिता ने हासिल की. दोनों ने दोबारा सत्ता हासिल कर न सिर्फ क्षेत्रीय राजनीति का झंडा बुलंद किया, बल्कि चुनावी राजनीति में गरीबों की चिंता को सर्वोच्च महत्व देने की बात को रेखांकित किया. पुद्दुचेरी चुनाव का महत्व राजनीतिक रूप से ज्यादा न था और वहां जनादेश भी गोलमोल रहा. सभी नतीजों को एक साथ रख कर देखें तो बिहार और दिल्ली की पिटाई के बाद नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी को इन चुनावों ने नयी ऊर्जा दी है. दूसरी ओर अपनी दोनों सरकारें खो कर कांग्रेस ने सबसे ज्यादा नुकसान उठाया है. इसलिए कह सकते हैं कि एक और दौर की लड़ाई में मोदी जीते, राहुल हारे. लेकिन, बड़े और बारीक ढंग से देखें तो भाजपा की जीत और देशभर में उपस्थिति दर्ज करने के उसके दावे को आंख मूंद कर मान लेना मुश्किल है, क्योंकि सिर्फ असम में उसे लोकसभा चुनाव से ज्यादा वोट मिले हैं, पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में पार्टी लोकसभा के अपने प्रदर्शन से नीचे ही रही. तमिलनाडु में तो उसके वोट आधे से भी कम हो गये, जबकि बंगाल में भी छह-सात फीसदी कम वोट मिले. केरल में उसने काफी जोर लगाया, लेकिन लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन से बहुत आगे नहीं जा सकी. ऐसे में असम की बड़ी जीत और बाकी राज्यों में खराब प्रदर्शन के बीच इस पक्ष को नहीं भूल सकते कि असम में उसने कई पार्टियों का एक महाजोट बनाया था और केरल में भी एक गंठबंधन था. कुछ लोग यह भी गिना रहे हैं कि सर्बानंद सोनोवाल और हिमंत बिस्वा सर्मा जैसे बाहरी नेताओं को आगे करके ही भाजपा जीत पायी है. बंगाल और तमिलनाडु में लाख कोशिश करके भी वह किसी और को साथ नहीं ले पायी. इसलिए लोकसभा चुनाव के नतीजों को अगर अगर राष्ट्रीय दलों की वापसी और क्षेत्रीय राजनीति का अंत बताया जा रहा था, तो इन नतीजों में फिर से गंठबंधन और क्षेत्रीय राजनीति की वापसी दिख रही है. इन नतीजों के इस पहलू की भी चर्चा होनी चाहिए कि नयी आर्थिक नीतियों पर सवाल करनेवाले दलों के हाथ में तीन राज्य आये हैं. गरीबों के लिए सहानुभूति रखनेवाली सरकारें जिन तीन राज्यों में आयी हैं, उनमें से दो ने तो अपनी सरकार को वापस लाने में सफलता पायी है. उनकी वापसी का श्रेय गरीब समर्थक नीतियों और छवि को दिया जा सकता है. इसके साथ ही दमदार क्षेत्रीय नेताओं द्वारा अपनी पहचान के आधार पर जीत दर्ज करना भी रेखांकित किया जाने वाला पहलू है. पश्चिम बंगाल ही नहीं, तमिलनाडु में भी विपक्ष कोई ढंग का चेहरा/ विकल्प पेश नहीं कर सका. इसलिए जीत-हार में भले ही मोदी और राहुल का नाम लिया जा रहा हो, पर तथ्य यह है कि इस बार के चुनाव में राष्ट्रीय नेताओं का प्रभाव और अन्य चुनावों से कम रहा है. असम में शासन और नीतियों की जगह आइडेंटिटी के सवाल को ऊपर रखा गया था. वहां 15 साल की सरकार के खिलाफ सामान्य नाराजगी भी थी.
इन नतीजों का राष्ट्रीय राजनीति पर असर पड़ना तय है. मोदी-अमित शाह की जोड़ी निश्चित रूप से मजबूत होगी, लेकिन अब वह शायद उस तरह दखल देने से बचेगी जैसा कि उसने दिल्ली और बिहार के चुनाव में किया था. स्थानीय नेताओं को महत्व देना और स्थानीय स्थितियों के अनुरूप रणनीति बनाना जरूरी होगा. दूसरी ओर भले ही राहुल या कांग्रेस ने उम्मीदवार चुनने से लेकर रणनीति बनाने तक में तरुण गोगोई और ओमान चांडी की चलने दी हो और पश्चिम बंगाल में अधीर रंजन के कहने से ममता की जगह वाम दलों से दोस्ती की हो, पर इस धुनाई के बाद उन्हें अपना नेतृत्व बनाये रखने के लिए ज्यादा मशक्कत करनी होगी.
वाम दलों को केरल की जीत से संजीवनी मिल गयी है, पर वहां सीताराम येचुरी बनाम प्रकाश करात की रणनीति का फर्क टकराव का कारण बन सकता है. येचुरी ही पश्चिम बंगाल में कांग्रेस से दोस्ती के पक्षधर थे. ममता के भ्रष्टाचार से लड़ने में कांग्रेस का साथ लाभकर होगा या नुकसानदेह, यह बहस अब भी चलेगी. राष्ट्रीय राजनीति में मोदी विरोधी राजनीति की धुरी अगर कांग्रेस न बनी तो नीतीश बनेंगे, यह दृश्य भी बदल गया है. अब ममता और जयललिता भी दावेदार हो सकते हैं.