।। जयंत सिन्हा।।
भारत एक उद्यमशील देश है, लेकिन उद्यमी व्यवसाय के विकास में कठिनाई का सामना कर रहे हैं. नये उद्योग लगाने के लिए अधिक-से-अधिक उद्यमशील पूंजीवाद की जरूरत है, ताकि बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन हो सके. यह सब जरूरी है, लेकिन कैसे कर पायेंगे. इस टिप्पणी के माध्यम से जाने-माने अर्थशास्त्री जयंत सिन्हा ने इस पर विस्तार से प्रकाश डाला है. जयंत सिन्हा वर्तमान में ओमिड्यार नेटवर्क इंडिया एडवाइजर्स के प्रबंध निदेशक हैं.
भारत इन दिनों रोजगार के अवसरों में भारी कमी से जूझ रहा है. जनसंख्या में हो रही वृद्धि को देखते हुए हमें अगले एक दशक तक हर साल एक से डेढ़ करोड़ नौकरियां सृजित करनी होंगी. दुर्भाग्यवश, भारतीय अर्थव्यवस्था अभी संगठित क्षेत्र में अनुमानत: लगभग दस लाख नये अवसर ही पैदा कर पा रही है. कुछ आंकड़ों की मानें, तो पिछले पांच सालों में सही मायनों में रोजगार के नये अवसर नहीं बन सके हैं. आखिर 90 लाख से एक करोड़ 40 लाख तक अच्छी नौकरियां कहां से आयेंगी? पिछले कुछ सालों में सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र से जुड़े रोजगार में कमी आयी है और भारी वित्तीय घाटे के कारण आगे भी सरकारी रोजगार में बढ़ोतरी बहुत धीमी रहेगी. निजी क्षेत्र के उपक्र म भी उत्पादन लाभ, स्पर्धात्मक दबाव और स्वचालित यंत्रीकरण के कारण बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा नहीं कर रहे हैं.
नये उद्योग लगाने के लिए भारत को अधिक-से-अधिक उद्यमशील पूंजीवाद की जरूरत है, ताकि बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन हो सके. ऐसा हमने 1995 से 2005 के बीच किया था, जब सूचना प्रौद्योगिकी / बीपीओ, निर्माण (कंस्ट्रक्शन), दूरसंचार और वित्तीय सेवा जैसे उद्यम विकसित हुए थे. तब करोड़ों नौकरियां सृजित हुई थीं, शेयर बाजार में तेजी रही थी, और बड़े पैमाने धनाढ्यों की पहली पीढ़ी सामने आयी. दुर्भाग्यवश, 2005 के बाद से उद्यमशील पूंजीवाद की तुलना में सरकारी पूंजीवाद और गंठजोड़ पूंजीवाद (सरकार के साथ सांठगांठ से चलनेवाला पूंजीवाद) का प्रभाव बहुत अधिक रहा. सार्वजनिक उपक्र म एवं प्रवर्तक प्राकृतिक संसाधनों तथा सरकारी ठेकों का दोहन कर सिर्फ किराया उगाहने में लगे हुए हैं. दूसरी ओर, उद्यमशील पूंजीवाद इससे बिल्कुल भिन्न है, क्योंकि वह नवाचार की ओर उन्मुख रहता है और अपूर्ण जरूरतों की पूर्ति कर उपाजर्न के नये स्नेत निर्मित करता है.
उच्च गुणवत्ता की शिक्षा, सस्ती चिकित्सा, स्वच्छ ऊर्जा और कचरा-प्रबंधन तथा वित्तीय समावेश सहित भारत की अनेक बड़ी सामाजिक समस्याओं के समाधान की प्रक्रिया में यह सहायक हो सकता है. भारत एक उद्यमशील देश है, लेकिन इसके उद्यमी अपने व्यवसाय के विकास में कठिनाई का सामना कर रहे हैं. हाल में ‘फ्लिपकार्ट’, ‘रेडबस’ और ‘बुक माइ शो’ जैसी कुछ सफलताएं मिली हैं, लेकिन हम नयी संभावनाओं पर आधारित नये व्यवसाय स्थापित नहीं कर पा रहे हैं, जो उद्यमशील पूंजीवाद को बढ़ावा दे सकें. कारोबार शुरू करने के लिए पूंजी उपलब्ध करवाने फंड भारत में प्रतिवर्ष लगभग 500 नये उद्यमों में निवेश करते हैं, जबकि अमेरिका में यह संख्या 6000 के ऊपर है. तुलनात्मक रूप से उद्यमिता, नवाचार और व्यवसाय के लिए वातावरण के स्तर पर भारत का स्थान बहुत नीचे है. नियमन और प्रक्रि याएं बाधक और विलंबकारी हैं, जिसके कारण नये व्यवसाय का खर्च बढ़ जाता है. व्यवसाय शुरू और बंद करने की प्रकिया आसान और वेब-आधारित होनी चाहिए. सरल आवेदन पत्र के जरिये कर भरना आसान हो गया था. ऐसी ही आवेदन प्रक्रि या अपनायी जानी चाहिए, जिसे कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय में जमा कराया जा सके. उदाहरण के लिए, जब तक कंपनी छोटी है, मान लें कि पचास से कम कर्मचारी हैं, तो उसे उतना ही करने की जरूरत होनी चाहिए, जो पैन नंबर पाने, बैंक खाता और व्यवसाय बंद करने की लिए होती है.
नये उद्यमों के लिए धन की उपलब्धता एक बड़ी समस्या है. भारत में निवेशक हर साल लगभग सौ करोड़ रु पये निवेश करते हैं, जबकि कनाडा में यह राशि दो हजार करोड़ से ऊपर है. प्रारंभिक स्तर पर निवेश-पूंजी भारत में डेढ़ हजार करोड़ रु पये से कम है, जबकि अमेरिका में यह तीस हजार करोड़ और चीन में चार हजार करोड़ से ऊपर है. आश्चर्य की बात है कि भारत में इस निवेश का 90 प्रतिशत विदेशी स्नेतों से आता है. इस तरह नये उद्यम विदेशी संस्थागत निवेशकों, जैसे- सरकारी धन कोष, विश्वविद्यालयों के वजीफों और सरकारी पेंशन तंत्र के सहयोग से चल रहे हैं. यह स्थिति बदलनी चाहिए.
शेयर बाजार और निवेश की नियामक संस्था सेबी ने उद्यम के लिए पूंजी लगाने संबंधी नियम अब स्पष्ट कर दिये हैं. लेकिन बहुत कम देसी वित्तीय संस्थाएं हैं, जो शुरुआती पूंजी निवेशित करती हैं. हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि पेंशन कोष, बीमा कंपनियां और ट्रस्ट अपने कोष का एक हिस्सा नये उद्यमों में निवेशित करें. साथ ही, सरकार को सेबी द्वारा पंजीकृत निवेशकों, जो नये उद्यमों में पूंजी लगाते हैं, के लिए करों में विशेष छूट की व्यवस्था होनी चाहिए. सरकार को भी एक कोष स्थापित करना चाहिए जो हर साल 10-15 उद्यम कोष में मुख्य निवेशक की भूमिका निभाये. इस्नइल, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन ने देशी निवेश पूंजी उद्योग को बढ़ावा देने के लिए ऐसे कदम उठाये हैं. भारत की बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण ने बीमा कंपनियों को अब सेबी द्वारा पंजीकृत ऐसे कोषों में निवेश की अनुमति दे दी है. एलआइसी हर साल अकेले दो लाख करोड़ का निवेश करती है. यह आसानी से इसका आधा प्रतिशत या एक हजार करोड़ शुरुआती उद्यमों में निवेशित कर सकती है.
व्यवसाय की शुरुआत में ही यह कठिनाई आ जाती है कि परिसंपत्ति और सीमित व्यक्तिगत योग्यता आदि से संबंधित नियमों के कारण बैंक ऋण देने में आनाकानी करते हैं. हमारे यहां ऋण देने वाली ऐसी कंपनियां नहीं हैं जो नये व्यवसायियों को कामकाजी पूंजी और परिसंपत्ति के बदले ऋण दे सकें. ऐसी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को बुनियादी वित्त में कौशल, उद्यमी पूंजी कोषों और उच्चस्तरीय प्रतिभा की आवश्यकता है. रिजर्व बैंक और सरकार सिडबी के समर्थन को बढ़ा कर, बैंकों के जरिये सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों को पर्याप्त ऋण देकर, और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को पूर्ण वित्तपोषण करके इस क्षेत्र में मदद कर सकते हैं.
भारत में उद्यमी पूंजीवाद को बढ़ावा देकर सूचना प्रौद्योगिकी/बीपीओ उद्योग की सफलता को दोहराया जा सकता है. दो दशकों में यह क्षेत्र बढ़ कर तीस लाख लोगों को सीधे रोजगार मुहैया करा रहा है, अतिरिक्त 90 लाख लोगों के लिए रोजगार के अवसर सृजित किया है और 90 अरब डॉलर प्रति वर्ष की विदेशी मुद्रा अर्जित की है. भारत को अगले 10-15 सालों में 4-5 ऐसे बड़े उद्योग स्थापित करना चाहिए. इसके लिए हमें नये उद्यमों को धन देने की संख्या 500 से बढ़ाकर 2000 प्रति वर्ष करने की आवश्यकता है. तभी हम भारत की जरूरत के हिसाब से और हमारे युवाओं की मांग के अनुसार रोजगार का सृजन कर पायेंगे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
अनुवाद – प्रकाश कुमार राय