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‘नारदा-शारदा’ के भूत को रोक पाएंगी ममता?

सलमान रावी बीबीसी संवाददाता, भवानीपुर, कोलकाता से पश्चिम बंगाल की चिलचिलाती गर्मी में घूमते हुए और यहां के कई चरणों के चुनावी माहौल के दिखकर लगता है कि तृणमूल कांग्रेस के लिए राह उतनी आसान नहीं है जितना कि पिछले विधान सभा चुनाव में थी. वैसे आम लोगों का कहना कि दीदी यानी ममता बनर्जी […]

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पश्चिम बंगाल की चिलचिलाती गर्मी में घूमते हुए और यहां के कई चरणों के चुनावी माहौल के दिखकर लगता है कि तृणमूल कांग्रेस के लिए राह उतनी आसान नहीं है जितना कि पिछले विधान सभा चुनाव में थी.

वैसे आम लोगों का कहना कि दीदी यानी ममता बनर्जी की छवि साफ़ सुथरी है, वो ईमानदार भी हैं, मगर इस बार उन्हें ‘शारदा’ और ‘नारदा’ से जूझना पड़ रहा है.

मैं उत्तरी बंगाल से लेकर दक्षिण बंगाल, बीरभूम और 24 परगना के इलाक़ों में आम मतदाताओं से मिला जो मानते हैं कि पिछले पांच सालों में विकास का काम तो हुआ है, पर ‘नारदा’ और ‘शारदा’ का भूत दीदी को सता रहा है.

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के शारदा बिज़नेस समूह से क़रीबी संबंध बताए गए थे. इस समूह पर घोटाले करने का आरोप है.

चुनाव से कुछ दिनों पहले ही नारदा न्यूज़ नाम की एक वेबसाइट ने एक ख़बर में तृणमूल के कई नेताओं के स्टिंग आपरेशन दिखाए गए थे जो कथित तौर पर रिश्वत से संबंधित थे.

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सीटों को देखें तो पश्चिम बंगाल में 294 सीटों पर चुनाव करवाना और पार्टियों के लिए इसे लड़ना, दोनों ही काम चुनौतीपूर्ण हैं. उत्तर बंगाल से लेकर दक्षिण और 24 परगना के इलाक़ों में अलग अलग मुद्दे हैं और संस्कृति भी कुछ अलग.

जहाँ तृणमूल कांग्रेस ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रखा है, वहीं कांग्रेस और वाममोर्चे का गठबंधन यानी ‘महा जोट’ भी पीछे नहीं है. सड़कों पर सियासी घमासान नज़र आता है.

सबसे मज़ेदार संघर्ष भवानीपुर सीट पर है जहाँ दीदी, बोउ दी और दादा आमने सामने हैं. दीदी यानी ममता बनर्जी, बोउ दी यानी कांग्रेस और वाम मोर्चे की साझा उम्मीदवार दीपा दासमुंशी और दादा यानी भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार चन्द्र बोस.

चन्द्र बोस कहते हैं कि उनकी लड़ाई ममता बनर्जी से है. उनका कहना है कि पहले पश्चिम बंगाल के लोगों के सामने वाम मोर्चे को ध्वस्त करने के लिए एकमात्र विकल्प तृणमूल कांग्रेस थी.

वो कहते हैं, "यह सिर्फ नाम का परिवर्तन था, सब कुछ वैसे ही चलता रहा जैसे वाममोर्चे की सरकार के दौरान था. अब लोग सही मायने में परिवर्तन चाहते हैं और इनके पास अब भाजपा की नीतियों का विकल्प है."

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दूसरी तरफ तृणमूल के अमिताभ मजूमदार कहते हैं कि ममता बनर्जी का किसी से कोई मुक़ाबला नहीं है. उनका दावा है कि पिछले पांच सालों में उनकी पार्टी ने आम लोगों को राहत पहुंचाने का काम किया है चाहे वो सस्ते मूल्य के चावल हों या फिर सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाएं.

उनका दावा है, "भाजपा का पश्चिम बंगाल में कोई प्रभाव नहीं है. लोक सभा के चुनावों में जो वादे कर भाजपा सत्ता में आई, उन वादों की पोल खुल गयी है. आज बंगाल में कोई ग़रीब ऐसा नहीं है जो यह कह सके कि वो भूखा है. ‘नारदा’ और ‘शारदा’ से कोई फर्क़ नहीं पड़ने वाला है क्योंकि लोगों को मालूम है कि यह एक साज़िश है."

कांग्रेस के नेता तरुण देब ने बीबीसी से बात करते हुए दावा किया- "वाम मोर्चा और कांग्रेस की साझा उम्मीदवार दीपा दशमुंशी ममता बनर्जी को कड़ी टक्कर दे रही हैं और लोगों को समझ में आ गया है कि सत्ता हासिल करने के बाद तृणमूल कांग्रेस के नेता भ्रष्टाचार में किस क़दर लिप्त रहे."

भवानीपुर विधान सभा क्षेत्र में ममता बनर्जी का घर है. यहां वो सालों से रहती आई हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने सरकारी आवास में शिफ्ट होने से मना कर दिया.

‘माँ, माटी मानुष’ के नारे के साथ पिछले विधानसभा चुनावों में विरोधियों का सूपड़ा साफ़ करने वाली ममता बनर्जी के लिए इस बार विधानसभा के चुनाव एक ‘कठिन परीक्षा हैं’ क्योंकि जानकारों को लगता है कि ‘नारदा’ और ‘शारदा’ के बाद बस उनकी ही छवि साफ़ रह पाई है.

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कांग्रेसी नेता तरूण देब ने तृणमूल कांग्रेस को भ्रष्टाचार में लिप्त बताया.

उन्हें लगता है कि तृणमूल कांग्रेस अब यह चुनाव सिर्फ़ ममता की छवि के सहारे लड़ रही है.

ममता बनर्जी के घर के पास ही सीपीएम का दफ्तर है जहां सन्नाटा है. सारा ताम झाम कांग्रेस दफ्तर में है.

ममता के घर के ठीक पीछे मूर्तिकारों की बस्ती है. दोपहर का वक़्त है और रेडियो पर फ़िल्मी नग्मे बज रहे हैं.

मूर्तिकार बलाई पाल, भवानीपुर के संघर्ष पर पैनी नज़र रखते हैं. कई पुश्तों से यहां रह रहे बलाई पाल ने पिछला विधानसभा चुनाव भी देखा था.

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उन्हें लगता है कि ममता बनर्जी तो जीत जाएंगी मगर तृणमूल कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में कड़े संघर्ष का सामना करना पड़ेगा.

इस बार हो रहे विधान सभा चुनाव में सबसे अधिक चरणों में पश्चिम बंगाल में मतदान हो रहा है. हर चरण के मतदान के बाद संघर्ष और ज़्यादा मज़ेदार होता चला जा रहा है, और सघन भी.

मगर फिर भी यहां के चुनावों का एक अलग अंदाज है. बलाई पाल के शब्दों में, "बंगाल सिर्फ चुनावी हिंसा के लिए नहीं, अपनी लोक संस्कृति के लिए भी जाना जाता है."

बंगाल बड़ी दिलचस्प जगह है. एक तरफ चुनावी उन्माद तो दूसरी तरफ संस्कृति, कला और प्रचलित लोक गीत जो इलाक़े वालों को एक अलग पहचान देते हैं.

वैसे तो पश्चिम बंगाल में बैलगाड़ियों का चलन अब बहुत कम रह गया है मगर कुछ ऐसे ग्रामीण अंचल हैं जहाँ आज भी यह तालाब और नदी किनारे की कच्ची सड़क पर तेज़ तेज़ चलते दिखती हैं.

24 परगना में बैलगाड़ी का सफ़र और लोक गीत की धुन माहौल में रोमांच भर देता है. चुनावी शोर शराबे से अलग, लोक गीतों की धुन मन को ठंडक पहुँचाने का काम करती है.

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