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एक हिंदू-मुसलमान का ‘ख़ास’ दोस्ताना

गनी अंसारी संवाददाता, बीबीसी नेपाली दुनिया के कई मुल्कों में दो अलग-अलग मज़हब के लोगों के बीच लड़ाई और हिंसा की ख़बरें लिखना और पढ़ना मेरा रोज़ का काम है. मैं मुस्लिम हूं और मेरा मीत एक हिंदू.करीब 24 साल पहले जब नेपाली समाज आज से भी ज्यादा रूढ़ीवादी और कम शिक्षित हुआ करता था […]

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दुनिया के कई मुल्कों में दो अलग-अलग मज़हब के लोगों के बीच लड़ाई और हिंसा की ख़बरें लिखना और पढ़ना मेरा रोज़ का काम है.

मैं मुस्लिम हूं और मेरा मीत एक हिंदू.करीब 24 साल पहले जब नेपाली समाज आज से भी ज्यादा रूढ़ीवादी और कम शिक्षित हुआ करता था उस वक्त हमारी (मैं गनी अंसारी और रामनारायण गुप्ता की) दादी मांओं ने हम दोनों के बीच एक ख़ास क़िस्म की दोस्ती करवाई थी. इस रिश्ते को नेपाली में मीत कहते हैं.

उस वक़्त हम दोनों की धार्मिक मान्यताओं के बीच क्या फासले थे, ये ना मुझको पता था और ना ही रामनारायण को.

कौन से मुल्क़ और कौन से मज़हब को मानने वाले परिवार में आपकी पैदाइश हो यह इंसान के वश की बात नहीं.

हम एक इंसान के रूप में पैदा होते हैं लेकिन वक्त के साथ-साथ इंसानों के दरमियां दीवारें बनने लगती हैं.

यहां पर इतनी भूमिकाएं लिखने की वजह यह है कि आज दो अलग मज़हब के इंसानों के बारे में मैं जो पढ़ता हूं और जो सुनता हूं वो मेरे और रामनारायण की सोच से बाहर की बातें हैं.

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जब हम दोनों एकसाथ होते हैं तो अक्सर बात करते हैं कि दुनिया के अलग-अलग मज़हबों को माननेवाले लोग हम दोनों की तरह होते तो यह दुनिया कितनी ख़ूबसूरत होती?

मेरे मीत की दादी मां कहती थीं कि बचपन में मैं और रामनारायण एक जैसे दिखते थे.

शायद हम दोनों में इस ख़ास क़िस्म की दोस्ती की वजह यही थी. मेरे मीत की दादी मां की गुज़ारिश क़बूल करते हुए मेरी दादी मां ने रज़ामंदी जताई कि हम दोनों को मीत बनाया जाए.

जाति और मज़हब, किसी भी बात की परवाह ना करनेवाले इस रिश्ते की ख़ासियत भी यही है.

यही तो वजह है कि हज़ारों देवी-देवताओं और एक अल्लाह को माननेवाले दो मासूम आपस में मीत बन गए.

आज की तारीख़ में भी हमारे गांव में ऐसे कई लोग हैं जो मुसलमान का छुआ हुआ पानी नहीं पीते.

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ऐसे माहौल में भी हमारी अनपढ़ दादी मांओं ने मीत रिश्ता कराने का फैसला लिया था.

ये याद करके आज भी फख्र से सर ऊंचा हो जाता है और दोनों के लिए दिल में बेहद इज़्ज़त आ जाती है. हमारी दादी मांएं बेशक धार्मिक सहिष्णुता और एक दूसरे की वजूद को स्वीकारने वाली थीं.

पढ़ाई के सिलसिले में काठमांडू आने के बावजूद भी मैं हर होली और छठ त्यौहार के मौके पर रामनारायण के घर जाने की कोशिश करता हूं और रामनारायण ईद और बकरीद के मौके पर मेरे घर आते हैं.

करीब साढ़े दो दशक की हमारी दोस्ती रामनारायण की शादी के दौरान और भी ख़ास हो गई.

कुछ दिन पहले ही मैं अपने व्यस्त रोज़मर्रा की ज़िंदगी से थोड़ा वक़्त निकालकर अपने गांव गया था.

जब मेरे मीत रामनारायण को ख़बर मिली कि मैं शादी में शामिल होने के लिए अपने घर पहुंच गया हूं तो फौरन वो मुझे लेने आ गया.

उन्होंने शादी के दिन पहनने के लिए मेरे लिए शेरवानी ख़रीद रखी थी. फिर रामनारायण के बड़े भाई के साले की बीवी ने मेरे हाथों में मेहंदी लगाने को कहा.

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शरमाते हुए मैंने कहा, "शादी मेरी है क्या जो मुझे मेहंदी लगाई जाएगी?" तब उन्होंने कहा कि आपको भी दूल्हे की तरह सजना होगा.

फिर ज़िंदगी में पहली बार दोनों हाथों में मेहंदी लगवाने के लिए राज़ी हुआ. फिर एहसास हुआ की रिश्तों की ख़ातिर कुछ बातें टाली नहीं जा सकतीं.

मेहंदी लगाते वक्त हंसी मज़ाक का सिलसिला चलता रहा. रामनारायण ने कहा, "मीतजी अगर शादी करना हो तो बोलिएगा मेरी साली भी हैं उनमें किसी से एक ही मंडप में आप की भी शादी हो जाएगी."

कभी रामनारायण कम और ‘लज्जा नारायण’ ज्यादा लगनेवाले अपने मीत की बातें सुनकर मैं तो चौंक गया. उसके एक दिन बाद मैं वही शेरवानी पहनकर बरात के लिए रवाना हुआ. मैं शादी की सारी रस्मों में शामिल हुआ.

लेकिन पहले की तरह अब मैं रामनारायण के घर नहीं जा पाऊंगा क्योंकि उसकी बीवी मेरे सामने नहीं आ सकती.

परंपरा यह है कि मीत की बीवी मीत के सामने नहीं आ सकती.

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हम दोनों के मज़हब में बहुत सारी अलग-अलग मान्यताओं के बावजूद हम सालों से एक हैं.

नमाज़ से पहले देनेवाली अज़ान से ना कभी रामनारायण को चिड़चिड़ाहट हुई और ना हमारे गांव के राम मंदिर में घंटा बजने से मुझे कोई दिक्कत महसूस हुई.

ऐसे संस्कार के लिए हम अपनी दादी मांओं को श्रेय देते हैं.

लेकिन वक्त के साथ-साथ धीरे-धीरे मीत संस्कार ख़त्म होता जा रहा है. फिर दो अलग मज़हब वालों में ऐसा रिश्ता तो और भी दुर्लभ होने लगा है.

लेकिन एक बात की खुशी है मुझे. वो यह कि मेरी नन्ही सी भतीजी की ऐसी ही ख़ास सहेली ब्राह्मण है.

उन दोनों के इस रिश्ते में मैं रामनारायण और खुद के रिश्ते की झलक देख पाता हूं.

धीरे-धीरे ऐसा महसूस होने लगा है कि नेपाली समाज आत्मकेंद्रित, धर्म केंद्रित और जाति केंद्रित होता जा रहा है और ऐसे माहौल में लगता है कि जैसे धार्मिक सहिष्णुता और सहअस्तित्व की भावनाओं का दम घुटने लगा हो.

अगर सदियों से चलती धार्मिक सहिष्णुता और सहअस्तित्व की भावनाओं को जारी ना रखा जाए तो बस यही कहने को रह जाएगा, कहाँ गए वो दिन?

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