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कैसे देंगे हर ज़िले में डायलिसिस सुविधा

विनीत खरे बीबीसी संवाददाता, दिल्ली बिहार के शाहपुर के विनय कुमार सिन्हा किसान हैं और उन्हें हफ़्ते में दो बार डायलिसिस की ज़रूरत पड़ती है. सरकारी अस्पताल गांव से दूर है और वहां भारी भीड़ होती है, जिससे वहां हफ़्ते में एक बार ही डायलिसिस हो पाता है. दूसरा डायलिसिस निजी अस्पताल में करवाना पड़ता […]

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बिहार के शाहपुर के विनय कुमार सिन्हा किसान हैं और उन्हें हफ़्ते में दो बार डायलिसिस की ज़रूरत पड़ती है.

सरकारी अस्पताल गांव से दूर है और वहां भारी भीड़ होती है, जिससे वहां हफ़्ते में एक बार ही डायलिसिस हो पाता है. दूसरा डायलिसिस निजी अस्पताल में करवाना पड़ता है, जिससे ख़र्च बढ़ जाता है.

सरकारी अस्पताल में हफ़्ते में एक बार होने वाला डायलिसिस भी आसानी से नहीं होता. विनय कहते हैं, ”यहां सुविधा नहीं है, ऑक्सीजन नहीं है, जेनरेटर नहीं है, स्टाफ़ नहीं है. जिससे खर्चा बढ़ जाता है.”

फिर विनय कुमार सिन्हा खुशकिस्मत हैं कि उन्हें डायलिसिस की सुविधा मिल पाई. भारत में हज़ारों लोगों की मौत इसलिए हो जाती है क्योंकि उन्हें डायलिसिस मुहैया ही नहीं हो पाता.

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भारत में करीब पांच हज़ार डायलिसिस सेंटर हैं, पर ज़्यादातार निजी क्षेत्र के हैं और गांवों से दूर हैं.

एक अनुमान के मुताबिक़ ज़रूरतमंदों में मात्र 10 प्रतिशत यानी क़रीब सवा लाख लोग ही डायलिसिस करवा पाते हैं. इसमें हर साल सवा दो लाख की बढ़ोत्तरी हो रही है, यानी हर साल 3.4 करोड़ डायलिसिस ज़्यादा सेशंस की मांग.

बिहार के दनारा गांव की विमला देवी के गुर्दे कई महीनों से काम नहीं कर रहे हैं.

गांव में डायलिसिस सुविधा न होने के कारण हर हफ़्ते दो बार उन्हें पटना आना पड़ता है. घर से डायलिसिस सेंटर का 30 किलोमीटर का सफ़र वह पति की मोटरसाइकिल पर करती हैं.

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विमला जैसे लोगों को उम्मीद है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली के डायलिसिस को लेकर किए गए वादे से उन्हें फ़ायदा मिलेगा.

29 फ़रवरी के बजट भाषण में जेटली ने देश के हर ज़िला अस्पताल में डायलिसिस सुविधा पहुँचाने की बात कही थी.

इसे राष्ट्रीय डायलिसिस सर्विस कार्यक्रम का नाम दिया गया था.

पीपीपी

अरुण जेटली ने कार्यक्रम के लिए पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल के इस्तेमाल की बात कही थी. साथ ही उन्होंने डायलिसिस उपकरणों के आयात से सीमाशुल्क पूरी तरह हटाने या कम करने का भी प्रस्ताव रखा था.

सवाल यह है कि क्या पीपीपी मॉडल से डायलिसिस सुविधाएं आम लोगों तक पहुँचाने में मदद मिलेगी?

मुंबई किडनी फ़ाउंडेशन के डॉक्टर उमेश खन्ना कहते हैं कि अगर सरकार का इरादा हर ज़िला अस्पताल में एक-दो डॉयलिसिस मशीन लगवाने का है तो यह मॉडल कामयाब नहीं होगा.

वह कहते हैं, ”अगर सरकार हर अस्पताल में 8-10 मशीनें रखती है, तभी किसी निजी कंपनी के लिए मशीनों का रखरखाव आसान होगा अन्यथा नहीं.”

डॉक्टर खन्ना के मुताबिक़ अकेले सरकार डायलिसिस सुविधाओं को देशभर में नहीं फैला सकती. वह मुंबई का उदाहरण देते हैं जहां क़रीब 4,000 डायलिसिस मशीनें हैं पर सरकारी मशीनें मात्र 30 हैं.

डॉक्टर खन्ना आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की बात करते हैं जहां पीपीपी मॉडल बेहद कामयाब रहा है पर मध्य प्रदेश में इसे सफलता नहीं मिली है.

डायलिसिस की ज़रूरत उन्हें होती है, जिनके गुर्दे किन्हीं कारणों से काम नहीं करते. गुर्दे खराब होने के लिए मुख्य रूप से उच्च रक्तचाप और मधुमेह को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है. डायलिसिस मशीन शरीर के गंदे खून को साफ़ करती है.

हर डायलिसिस सेशन पर दो से ढाई हज़ार रुपए खर्च होते हैं यानी अगर आपको हफ़्ते में दो बार डायलिसिस कराना है, तो हर महीने कम से कम 20-25 हज़ार का खर्च आ सकता है. स्वास्थ्य क्षेत्र में काम कर रहे लोगों की मांग है कि इसे कम किया जाए और सुविधाओं को शहरों के बाहर फैलाया जाए.

दूसरे सवाल

क्या डायलिसिस मशीन उपलब्ध करवा देना समस्या का हल है?

गुर्दों की सुरक्षा के बारे में जागरूकता फैलानी वाली अहमदाबाद की संस्था इंडियन रेनल फ़ाउंडेशन की पूर्वी शाह के अनुसार देश में गुर्दे की बीमारियों से पीड़ित लोगों की संख्या और उन तक सुविधाएं पहुँचाने से पहले उनका सर्वे ज़रूरी है.

वह कहती हैं, ”भारत में गुर्दे की बीमारियों को मलेरिया, पोलियो की तरह ख़त्म करने के लिए जानकारी जुटाने की ज़रूरत है, ताकि सरकार अपने कार्यक्रमों पर फ़ोकस कर पाए. अंग प्रत्यारोपण के लिए यह आंकड़े बेहद ज़रूरी हैं. इनकी मदद से सरकार अंगदान पर ध्यान दे सकती है.”

निजी सेक्टर की राय

कंपनी नेफ़्रोप्लस के 15 राज्यों में 68 डायलिसिस केंद्र हैं, जहां हर महीने क़रीब छह हज़ार पीड़ितों के 42 हज़ार डायलिसिस सेशन होते हैं. अगर सरकार नेफ़्रोप्लस को पीपीपी मॉडल से जोड़ती है तो उनकी कंपनी की क्या उम्मीदें होंगी?

नेफ़्रोप्लस के राष्ट्रीय मैनेजर पवन शेट्टी कहते हैं कि अगर सरकार बिजली, जगह, पानी की ज़िम्मेदारी ले तो निजी कंपनियां बाक़ी ज़िम्मेदारी संभाल सकती हैं और लोगों को वाजिब क़ीमत पर बेहतरीन डायलिसिस सुविधाएं दे सकती हैं.

वे कहते हैं कि कंपनियों को आर्थिक नुक़सान से बचाने के लिए सरकार को उन्हें धन उपलब्ध करवाना होगा ताकि कंपनियां अपने काम पर ध्यान दे सकें.

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वह यह भी कहते हैं कि अगर सरकार डायलिसिस मशीनें उपलब्ध करवाए तब भी डायलिसिस पर ख़र्च कम हो सकता है.

भारत में गुर्दे की बीमारी से पीड़ित लाखों लोगों को उम्मीद होगी कि शायद इस बार घोषणा और उसके लागू होने में बहुत फ़र्क नहीं होगा.

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