अपने घर को सुंदर बनाने की फिक्र सभी को है, लेकिन घर की भावी पीढ़ी किस दिशा में जा रही है और उनके भविष्य का क्या होगा, इसे लेकर लोग दूरदर्शिता के साथ नहीं सोच पा रहे हैं.
माता-पिता बच्चों के लालन-पोषण के प्रति लापरवाह हो गये हैं. वे बच्चों को पढ़ा कर केवल पैसे कमानेवाली मशीन बनाना चाहते हैं. वे बच्चों को संस्कार और संस्कृति की शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं. अधिकांश विद्यालयों में भी ऐसा ही हो रहा है. जब बच्चों को इनसानियत की शिक्षा ही नहीं मिल रही है, तो उन बच्चों से भविष्य में एक ऐसा इनसान बनने की उम्मीद कैसे की जा सकती है, जो बुढ़ापे में मां-बाप की परेशानियों के प्रति संवेदनशील हों और उनकी सेवा में करने में कोई कसर नहीं छोड़ें.
इंटरनेट का है जमाना
इंटरनेट और मोबाइल फोन का जमाना है, लेकिन इसके प्रयोग को अंधाधुंध तरीके से बढ़ावा देने का परिणाम अब लोगों को भुगतना पड़ रहा है. बचपन से बच्चों के हाथों में मोबाइल थमा दिया गया है. देखने में तो है ये छोटा सा खिलौना, लेकिन इसके सामने मां-बाप हो गये हैं बौना. यह सच है. कितने ऐसे मां-बाप हैं, जो अपने बच्चों का मोबाइल कुछ घंटों के लिए जब्त करके रख सकते हैं? या फिर उन्हें कई दिनों तक इसका इस्तेमाल करने से रोक सकते हैं? शायद बहुत कम, क्योंकि उनका इस ओर ध्यान ही नहीं है. ऐसा करके वे अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं, क्योंकि बच्च उनसे विमुख होता जा रहा है और अपनापन की भावना भी कम होती जा रही है.
एकल परिवार बढ़ते जा रहे हैं
अब मां अपने बच्चों को लोरी नहीं सुनाती. बच्चों को कहानी सुनाने और संस्कार की बातें बताने के लिए उनके दादा-दादी उनके साथ नहीं हैं. उन्हें महापुरुषों के प्रेरक प्रसंग सुनानेवाला कोई नहीं है. घर तो रह ही नहीं गया है, केवल मकान बचा है. एक जमाने में घर हुआ करते थे, जहां कमरे कम और परिवार के सदस्य ज्यादा होते थे, लेकिन अब तो केवल मकान रह गये हैं, जहां कमरे तो कई हैं, लेकिन रहनेवाले महज तीन या चार.
इधर मां अकेले घर में पड़ी सुबक रही है और उधर बच्चे एकाकीपन से जूझ रहे हैं. ऐसे बच्चों के मन को विचलित करने के लिए घरों में अब कई संसाधन उपलब्ध हैं, जो उन्हें गलत रास्ते पर ले जाने को तैयार हैं. ऐसे बच्चे कहां से समङोंगे परिवार का मतलब और कैसे देंगे मां-बाप को अहमियत? एक बेटे ने पिता से पूछा कि उन्होंने उसके लिए क्या किया है. इस पर पिता ने कहा कि उन्होंने उसकी हर फरमाइश पूरी की है. तब बेटे ने कहा, पिताजी मैं भी वैसा ही करूंगा, जो आपने किया है. आपने अपने बेटे के लिए किया और मैं भी अपने बेटे के लिए ही करूंगा. सही मायने में देखा जाये, तो एक गलत परंपरा विकसित हो गयी है. हमारी संस्कृति में जो ‘सहभोजन’ की परंपरा रही है, जिसके अंतर्गत दिन या रात में परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठ कर भोजन करते हैं, वह लुप्त होती जा रही है. एक साथ भोजन करने से बातचीत होती है और एक-दूसरे की समस्याओं को जान कर उसका समाधान निकालने की कोशिश की जाती है. अब ऐसा नहीं हो पा रहा है.
प्रस्तुति : शैलेश कुमार
कौशल किशोर पाठक, मुंगेर
सामाजिक कार्यकर्ता