पश्चिम-बंगाल में चुनाव का माहौल धीरे-धीरे बनने लगा है. असम, तमिलनाडु, पुदुचेरी और केरल के साथ यहां भी अप्रैल-मई में विधानसभा चुनाव होना है. ग़ैर भाजपा और गैर कांग्रेस राजनीति के नज़रिए से पश्चिम बंगाल चुनाव पर राजनीतिक दलों ही नहीं विश्लेषकों की भी नज़र है.
लोकसभा चुनाव के बाद राज्य की राजनीति में एक बड़े बदलाव का संकेत मिला था. पहली बार भाजपा को क़रीब सत्रह (16.8) फ़ीसदी वोट मिले. 34 साल सत्ता में रहने वाले वामदलों को महज़ 23 फ़ीसदी वोट मिले. ऐसा लगने लगा था कि विधानसभा चुनाव में भाजपा प्रदेश में दूसरे नंबर की पार्टी बन जाएगी.
उसके बाद से विधानसभा के उप चुनावों और फिर स्थानीय निकाय के चुनावों से साफ़ हो गया कि लोकसभा चुनाव में पार्टी को जो वोट मिले थे, वो सिर्फ़ मोदी लहर का असर था. वह बाढ़ के पानी की तरह आया और बाढ़ के उतार के साथ ही उतर गया. पार्टी संगठन उस जनसमर्थन को जोड़कर रख नहीं सका.
पश्चिम बंगाल में पार्टी की समस्याएं बहुत सी हैं. एक समस्या तो उसकी केंद्र की सरकार ही है. सरकार को संसद और खासतौर से राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस के समर्थन की ज़रूरत है.
ममता इसके बदले में चाहती थीं कि भाजपा राज्य इकाई को क़ाबू में रखे. इसके बाद भाजपा तृणमूल कांग्रेस और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के प्रति नरम हो गई.
अमित शाह ने कोलकाता की जनसभा में जब यह घोषणा की कि पार्टी की राज्य इकाई 2019 की लड़ाई की तैयारी करे, तो नेताओं को स्पष्ट हो गया था कि केंद्र सरकार का ममता बनर्जी के साथ समझौता हो गया है और उन्हें अब शांत रहना है.
इसका असर यह हुआ कि विधानसभा के बाहर जो भाजपा सत्तारूढ़ दल के ख़िलाफ़ प्रमुख विपक्ष के रूप में उभर रही थी, वह अचानक ठंडी पड़ गई. इस बीच वाम दलों ने अपनी राजनीतिक सक्रियता बढ़ा दी.
दोनों का असर यह हुआ कि स्थानीय निकाय के चुनावों में भाजपा की बहुत बुरी हार हुई. उसे उन क्षेत्रों में भी वोट नहीं मिले जहां लोकसभा चुनाव में उसने अच्छा प्रदर्शन किया था. वह 95 स्थानीय निकायों में से एक पर भी क़ब्ज़ा नहीं कर सकी. कोलकाता म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन की 144 सीटों में उसे केवल सात पर जीत मिली.
पार्टी की दूसरी समस्या नेतृत्व की है. भाजपा के पास पश्चिम बंगाल में प्रदेश स्तर का कोई नेता नहीं. पिछले डेढ़ साल में उसने दो बार मशहूर क्रिकेटर सौरव गांगुली को पार्टी में लाने का असफल प्रयास किया है.
अब टीवी स्टार रूपा गांगुली को आगे बढ़ाने की कोशिश हो रही है. कोई जनाधार वाला नेता न होने से पार्टी को लगा कि कमान किसी संगठन के व्यक्ति को सौंप दी जाए.
इसलिए अंडमान निकोबार से लाकर संघ से आए दिलीप घोष को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया. वह विधानसभा चुनाव में भाजपा को कितना बढ़ा पाएंगे अभी कहना कठिन है.
भाजपा की तीसरी समस्या संगठन है. पार्टी पूरे प्रदेश में अभी तक संगठन का ढांचा भी नहीं खड़ा कर पाई है. उसका मुक़ाबला तृणमूल कांग्रेस और वामदलों से है. जिनका गांव-गांव तक संगठन है.
भाजपा के संगठन की हालत यह है कि स्थानीय निकाय चुनावों में ज़्यादातर सीटों पर उसके चुनाव एजेंट भी नहीं थे. तीन महीने में विधानसभा चुनाव हैं.
विधानसभा में पूरे प्रदेश में 70 हज़ार से ज़्यादा मतदान केंद्र होंगे. उसके लिए कार्यकर्ता कहां से आएंगे.
इन सारी कमियों की भरपाई के लिए पार्टी का सारा ज़ोर इस समय प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की ओर है. इसमें उसकी सबसे बड़ी मददगार बन रही हैं प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी.
उन्होंने पिछले कुछ दिनों में इमामों को सौगातों से नवाज़ा, मुअज़्जि़नों को मासिक वेतन दिया, मुस्लिम युवकों को साइकिलें दीं और तसलीमा नसरीन के लिखे टीवी सारियल का प्रसारण रुकवा दिया. भाजपा इसे ममता का मुस्लिम तुष्टीकरण बताकर हिंदू ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही है.
प्रदेश के दुर्भाग्य और भाजपा के भाग्य से 2016 की शुरुआत में मालदा के कालियाचक की घटना हो गई. मुसलमानों का बड़ा जमावड़ा हिंसक प्रदर्शन में बदल गया.
हिंसा, लूटपाट और आगज़नी की घटनाएं हुईं. मुख्यमंत्री ने इसे बीएसएफ़ और स्थानीय लोगों के बीच का मामला बताकर टालने की कोशिश की. बात बिगड़ती गई.
दरअसल ममता को अपने अल्पसंख्यक मतों की चिंता है. 2011 की जनगणना के मुताबिक़ पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी 27.1 फ़ीसदी है.
अनुमान के मुताबिक़ अब यह 30 फ़ीसदी के क़रीब है. पश्चिम बंगाल एक मामले में देश के अन्य राज्यों के अलग है. यहां हिंदुओं और मुसलमानों में सामाजिक सांस्कृतिक रूप से वैसा फ़र्क नहीं जैसा अन्य राज्यों में. इसलिए भाजपा की कोशिश कितनी कामयाब होगी कहना मुश्किल है.
ऐसी परिस्थिति में भाजपा की सारी उम्मीद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे पर निर्भर है. लोकसभा चुनाव में भाजपा को मोदी के नाम पर ही वोट मिले थे.
वैसे तो किसी चुनाव के बारे में कोई भविष्यवाणी करना जोखिम भरा काम है लेकिन पश्चिम बंगाल के बारे में एक बात तो कही जा सकती है कि ममता बनर्जी की सत्ता को कोई खतरा नहीं है. वाम दलों, भाजपा और कांग्रेस में लड़ाई राज्य में नंबर दो की पार्टी बनने के लिए है.
चुनाव में वामदलों का कांग्रेस से गठबंधन हो गया तो भाजपा और नीचे खिसक जाएगी.
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