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जो ख़ुद ‘मंदिर’ लेकर जाते हैं यजमान के घर

आभा शर्मा जयपुर से, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए खोजाराम और पप्पूराम अपने कंधे पर लाल कपड़े में लिपटे और सिमटे ‘कांवड़’ को लेकर गाँव-गाँव घूमते हैं. ‘कांवड़’ यानि वो जहाँ श्रद्धालु नहीं बल्कि मंदिर खुद चलकर जाता है इनके साथ श्रद्धालु के घर. पश्चिमी राजस्थान के ये कांवड़िया भाट समुदाय से हैं, जहाँ […]

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खोजाराम और पप्पूराम अपने कंधे पर लाल कपड़े में लिपटे और सिमटे ‘कांवड़’ को लेकर गाँव-गाँव घूमते हैं.

‘कांवड़’ यानि वो जहाँ श्रद्धालु नहीं बल्कि मंदिर खुद चलकर जाता है इनके साथ श्रद्धालु के घर.

पश्चिमी राजस्थान के ये कांवड़िया भाट समुदाय से हैं, जहाँ कांवड़ बांचने या पढ़कर सुनाने की परंपरा क़रीब 400 साल पुरानी है.

लकड़ी की कांवड़ के एक-एक पट में बने चित्रों में होती हैं कई कहानियां. रामायण और महाभारत से लेकर राजा हरिश्चंद्र और मोरध्वज तक की.

कभी श्रवण कुमार ने कांवड़ में बैठाकर अपने माता-पिता को तीर्थयात्रा करवाई थी. ऐसा माना जाता है कि ‘कांवड़’ सुनने से तीर्थयात्रा जैसा ही पुण्य मिलता है. श्रवण इनके बहुत आदरणीय हैं.

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जयपुर साहित्य उत्सव में भाग लेने आए 55 साल के खोजाराम ने बीबीसी को बताया कि वो लोग मानते हैं कि ‘कांवड़’ को कुंदन बाई नाम की एक ब्राह्मण महिला ने उनके समुदाय को उपहार में दी थी. कांवड़ में छिपी कहानियों की ही तरह कुंदन बाई का हर दिन नया जन्म होता है.

कांवड़ बनाने का काम राज्य के चित्तौड़ ज़िले के सुथार समुदाय के लोग करते हैं.

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पप्पूराम कहते हैं कि साल में एक बार वो अपने यजमान के घर ज़रूर जाते हैं. उनके यजमानों में अधिकतर जाट, राजपूत और सुथार परिवार हैं. ख़ुशी हो या ग़म उन्हें कांवड़ बांचने के लिए बुलाया जाता है. उनके पास कई कांवड़ हैं. हर एक का वज़न है करीब पांच किलो.

कांवड़िए कांवड़ की कहानियों को ‘मोड़ी’ भाषा में सुनाते हैं, जिसमें कोई मात्रा नहीं होती है. कांवड़ बांचने को अभी तक पुरुषों का काम समझा जाता था. लेकिन अब वो इन परंपराओं को तोड़ इस हुनर को अपनी बेटियों को भी सिखा रहे हैं.

खोजाराम कहते हैं टीवी और इंटरनेट के बावज़ूद लोग कांवड़ सुनते हैं. क्योंकि वे अपने साथ अपने यजमानों के पुरखों का इतिहास भी साथ लिए चलते हैं. उनकी बही में सबका ब्योरा है और श्रवण कुमार का सन्देश है, ‘माँ-बाप की सेवा का’ जो कभी पुराना नहीं होगा.

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