अपने लक्ष्य की ओर दम लगाने की कोशिशों के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हाल ही इंदौर में दुनिया भर के प्रमुख हिंदू स्वयंसेवकों और समर्थकों की बैठक की.
स्वतंत्र भारत में ये पहला मौक़ा है, जब केंद्र सरकार उस संस्था की प्राथमिक विचारधाराओं के मुताबिक़ चल रही है, जिसकी स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्ष में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं थी. और तो और संस्था ने ख़ुद को इस आंदोलन से बाहर रखा था.
यह संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) है. इसने स्वतंत्रता आंदोलन से ख़ुद को इसलिए बाहर रखा क्योंकि इसका मानना था कि भारत मुख्य रूप से हिंदुओं की मातृभूमि है और इसे हिंदू राष्ट्र होना चाहिए.
वहीं दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी ने बिना किसी धार्मिक आधार के लिए भारत को सभी के लिए एक देश के तौर पर देखा था.
आरएसएस का विज़न काफ़ी हद तक मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग जैसा ही था. दोनों संगठन मानते थे कि हिंदू और मुस्लिमों के दो अलग देश होने चाहिए और दोनों में मेल-मिलाप नहीं हो सकता.
बहरहाल, आरएसएस ख़ुद को स्वयंसेवकों के राष्ट्रीय सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलन के तौर पर पेश करती रही है, लेकिन यह आधिकारिक और गैर आधिकारिक राजनीति में सक्रिय तौर पर शामिल रही है.
हिंदू राष्ट्र की कल्पना करने वाले राजनीतिक दलों की मदद करने (पहले भारतीय जन संघ को और 1980 के बाद भारतीय जनता पार्टी को) के अलावा संघ ने विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे दूसरे संगठनों को भी प्रोत्साहित किया है.
यही नहीं, अपनी प्रकृति में भी आरएसएस अर्धसैन्य बल की तरह है.
आजादी के 67 साल बाद और हिंदू राष्ट्र बनाने के उद्देश्य से हिंदुओं को एकजुट करने के लिए स्थापित आरएसएस की स्थापना के 89 साल बाद भारत ने बीजेपी की सरकार चुनी है.
संघ से प्रेरित, उसके उद्देश्यों और कई बार संघ के प्रचारकों की मदद से चलने वाली राजनीतिक पार्टी बीजेपी पहली बार पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने में कायमाब हुई.
गुजरात दंगों के चलते नरेंद्र मोदी की छवि विवादास्पद नेता की भी रही है. 2002 में उनके मुख्यमंत्रित्व काल में गुजरात में हुए दंगों के दौरान सैकड़ों मुस्लिम और हिंदू मारे गए थे.
कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि उन्होंने आरएसएस और उसकी विश्व हिंदू परिषद जैसी सहयोगी पार्टियों की पहचान आधारित राजनीति से ख़ुद को अलग कर लिया है और ख़ुद को सभी का तेज़ी से विकास चाहने वाले नेता के बतौर ब्रांडेड किया है.
हालांकि 2014 के चुनावी अभियान को नज़दीक से देखने पर पता चलता है कि आरएसएस हाशिए पर नहीं गई है, बल्कि बीजेपी के पक्ष में लोगों को एकजुट करने में उसने अहम भूमिका निभाई.
ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)- बीजेपी के रिश्तों के बारे में सवाल इसलिए उठता है क्योंकि मान लिया जाता है कि ये दो अलग संगठन हैं जिनमें आपसी संवाद है. यह भ्रमित करने वाला है क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बिना भारतीय जनता पार्टी नहीं हो सकती.
भारतीय जनता पार्टी ने अपनी वेबसाइट पर अपना आधार आरएसएस को बताया है और जिन चार नेताओं को रोशनी देने वाला मार्गदर्शक बताया है वह सभी के सभी आरएसएस से जुड़े रहे हैं.
प्रधानमंत्री मोदी सहित कुछ अन्य केंद्रीय मंत्री भी आरएसएस के प्रचारक (पूर्णकालिक स्वयंसेवक) या फिर उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे हैं.
उदाहरण के लिए, गृह मंत्री राजनाथ सिंह, मोदी की तरह ही संघ के स्वयंसेवक रहे हैं. वित्त मंत्री अरुण जेटली अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से उभरे हैं. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज (ख़ुद आरएसएस में शामिल नहीं रही हैं क्योंकि संघ में केवल पुरुष ही शामिल हो सकते हैं) भी संघ के स्वयंसेवकों के परिवार से आती हैं.
किसी भी व्यक्ति की अपने देश के बारे में व्यावाहारिक सोच-समझ शिक्षा और अनुसंधान के ज़रिए ही विकसित होती है. ऐसे में जो सबसे विवादास्पद दखल दिया जा रहा है, उसके तहत हिंदू राष्ट्रीयता और आरएसएस की पृष्ठभूमि वाले लोगों को शैक्षणिक और अनुसंधान केंद्रों का प्रभारी बनाया जा रहा है.
अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह विशालकाय राम मंदिर बनाने का मुद्दा फिर गर्माने की कोशिश हो रही है.
संघ परिवार के सदस्यों का दावा है कि हिंदू राष्ट्र का उनका विज़न न तो कुछ अलग है और न गैरधार्मिक.
ऐसे में आने वाले सालों में आरएसएस रोज़मर्रा के शासन से दूरी बनाकर रखते हुए भी बीजेपी सरकार के उद्देश्यों के साथ आत्मीयता से काम करेगी.
इसके तहत राज्यों विधानसभा चुनावों के दौरान वह बीजेपी की जीत सुनिश्चित करने के लिए चुनाव प्रचार करेगी. यह सरकार से शैक्षणिक संस्थानों को धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी प्रभाव से मुक्त करने की मांग करेगी.
इस दौरान संघ कुछ मुद्दों से परहेज़ भी रखेगा, जिसमें जाति आधारित आरक्षण में सुधार की बात शामिल होगी. इससे हिंदू मतों में विभाजन होगा और यह चुनावी नज़रिए से आत्मघाती क़दम होगा.
लेकिन संघ सरकार पर राम मंदिर के निर्माण के लिए ज़ोर डालेगा. इस मुद्दे के ज़रिए मुस्लिमों के ख़िलाफ़ हिंदुओं को एकजुट करना आसान होगा.
वैसे भारतीय जनता पार्टी ख़ुद को, ‘अखिल भारतीय पार्टी, हर भारतीय की पार्टी’ के तौर पर संबोधित करेगी लेकिन यह ग़ैर-मुस्लिम, ग़ैर-ईसाई और ग़ैर-धर्मनिरपेक्ष बनी रहेगी, क्योंकि इसकी जड़ें बहुसंख्यक तौर पर संघ में हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बिना, भारतीय जनता पार्टी नहीं हो सकती.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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