जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने 80 साल की उम्र में राजधानी दिल्ली के एम्स अस्पताल में आख़िरी सांस ली.
उन्हें पिछले दिनों तबियत ख़राब होने की वजह से एम्स में भर्ती कराया गया था.
सईद के गुज़र जाने के बाद उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती के उनकी जगह लेने की चर्चा ज़ोरों पर है.
कश्मीर के अनंतनाग ज़िले में 12 जनवरी 1936 को एक सामंती परिवार में जन्मे मुफ्ती मोहम्मद सईद ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से क़ानून की पढ़ाई की थी.
अपने जवानी के दिनों में उन्हें जम्मू-कश्मीर के कद्दावार नेता शेख अब्दुल्लाह से राजनीतिक करियर के मामले में कड़ी टक्कर मिली.
इंदिरा गांधी उन्हें कांग्रेस पार्टी में ले आई थीं जहां वो लंबे समय तक रहे.
80 के दशक के अंत में उन्होंने तब के जनता दल के लिए कांग्रेस छोड़ दी थी और वे जनता दल की सरकार बनने पर भारत के पहले मुस्लिम गृहमंत्री बने थे.
राज्य में मुफ्ती के प्रतिद्वंदी फारूक़ अब्दुल्लाह ने हमेशा गृहमंत्री के तौर पर उनके छोटे से कार्यकाल की आलोचना की.
वे मुफ्ती पर आरोप लगाते रहे कि उनके कार्यकाल के दौरान भारत के ख़िलाफ़ हथियार उठाए कश्मीरियों पर फ़ौजी कार्रवाई का आदेश दिया गया.
मुफ्ती मोहम्मद सईद के गृहमंत्री रहते ही उनकी बेटी रुबिया को जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के चरमपंथियों ने अगवा कर लिया था और पांच विद्रोहियों को छोड़ने के एवज में उनकी बेटी को छोड़ा था.
रुबिया ने चरमपंथियों के चंगुल से छुटने के बाद उनकी मेहमाननवाज़ी की तारीफ की थी. इसके बाद अटकलें लगाई जाने लगी थी कि मुफ्ती ने ही अपहरण का नाटक करवाया था.
शेख अब्दुल्लाह और मुफ्ती में एक दिलचस्प संबंध है. शेख अब्दुल्लाह ने अपनी राजनीतिक करियर की शुरुआत आपार लोकप्रियता से की और इंदिरा के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने के साथ ही अलोकप्रिय होते चले गए.
वहीं मुफ्ती ने अपनी शुरुआत एक अलोकप्रिय कांग्रेसी के तौर पर शुरू की जिसे शेख के समर्थक ‘भारतीय एजेंट’ के तौर पर हिकारत की नज़र से देखते थे.
उन्हें शेख के नेशनल कांफ्रेस को अलोकप्रिय होता हुआ देखने के लिए लंबा इंतज़ार करना पड़ा.
इसके बाद उन्होंने 28 जुलाई 1999 को अपनी नई पार्टी पीपुल डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के स्थापना के साथ लोकप्रियता की नई लहर देखी.
मुफ्ती के साथ पढ़ाई करने वाले प्रोफेसर गनी भट्ट हुर्रियत कांफ्रेस के जानेमाने अलगाववादी नेता हैं.
वो कहते हैं, "फारूक अब्दुल्लाह अनिवार्य तौर पर एक भारतीय है, गुलाम नबी आज़ाद दुर्घटनावश एक भारतीय हैं लेकिन मुफ्ती प्रतिबद्धता के साथ एक भारतीय हैं."
हाल ही में स्थानीय राजनीति में उनकी वापसी उनकी राजनीतिक सूझबूझ को दर्शाती है.
उनके बारे में कहा गया कि 9/11 की घटना के बाद पाकिस्तान में बने हालात और कश्मीर में चरमपंथ की गिरावट का उनको फायदा मिला.
कश्मीर की राजनीति पर नज़दीक से नज़र रखने वाले जावेद अख्तर कहते हैं, "भारत विरोधी भावना को 2000 में उस वक्त धक्का पहुंचा जब मुशर्रफ के नेतृत्व में पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को छोड़ने का इशारा कर रहा था और वाजपेयी पाकिस्तान के साथ इसे दोस्ती के मौके के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे."
आगे वो बताते हैं कि "इसने मुफ्ती को कश्मीर में लोगों के बीच फिर से लोकप्रिय होने का मौका दिया जिन्हें वहां की जनता ने पहले कश्मीर से बाहर का रास्ता दिखा दिया था."
पिछले 15 सालों में मुफ्ती ने ना सिर्फ स्थानीय राजनीति में अपनी पैठ बनाई थी बल्कि अब्दुल्लाह परिवार की मजबूत जड़ों को भी खोदा है और दो बार सूबे के मुख्यमंत्री भी बने.
अपनी अलग पार्टी बनाने के तीन साल बाद ही उन्होंने सूबे के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ग्रहण किया.
2014 में उन्हें सूबे के 87 सीटों में से 28 सीटें मिलीं और उन्होंने हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के साथ गठबंधन में सरकार बनाने का जोखिम लिया.
बीजेपी ने इस चुनाव में हिंदू बहुल जम्मू में 25 सीटें हासिल कीं.
मुफ़्ती की 50 वर्षीय बेटी महबूबा अपने पिता का उत्तराधिकारी बनेंगी. कई महीनों से इस बात को लेकर सुगबुगाहटें भी हैं लेकिन पीडीपी की सहयोगी बीजेपी को महबूबा की चरमपंथियों के प्रति नरमी और कट्टर अलगाववादी विचारों को लेकर कुछ संशय रहा है.
पीडीपी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि अब दोनों दलों के बीच मामला सुलट गया है. बीजेपी ने महबूबा को मुफ़्ती का उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया है.
मुफ़्ती के समर्थक उन्हें बड़े राजनेता के तौर पर देखते हैं और उनके मुताबिक़ उन्होंने 9/11 के बाद भारत-पाकिस्तान शांति बहाल करने में अहम भूमिका निभाई थी.
हालांकि उनके विरोधियों का मानना है कि उन्होंने दक्षिण एशिया में बदलते हालात का फ़ायदा उठाकर खुद के लिए वाहवाही बटोरी.
मुफ्ती के विरोधी और समर्थक उनके बारे में कुछ भी सोचें लेकिन मुफ्ती इतिहास में एक भारत समर्थक कश्मीरी के तौर पर जाने जाएंगे जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी कश्मीर की अलग-थलग पड़ी जनता को भारत की मुख्यधारा से जोड़ने का काम किया.
अपने इस उद्देश्य में उन्होंने जिस तरीके का इस्तेमाल किया, उसे कश्मीर में ‘नरम अलगाववाद’ के रूप में जाना जाता है.
अब सवाल उठता है कि क्या महबूबा सही मायनों में अपने पिता की विरासत आगे बढ़ा पाएंगी या बड़बोली और बदलते मिजाज़ वाली नेता बनकर रह जाएंगी.
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