भारत में ‘साउंड क्लाउड’ बनाने वाली कंपनियों के लिए 2015 शायद सबसे आसान और अच्छा साल साबित होता. क्या बोला और दोहराया गया, उसमें कुछ इधर-उधर जोड़ने की गुंजाइश बची रहती, पर एक पूरा साल ले-देकर 15 शब्दों में निपट गया.
सारी राजनीति, चुनाव और सामाजिक उथल-पुथल, ऐसा लगता है कि इन 15 शब्दों से बाहर नहीं निकल पाई.
मीडिया भी उसी में उलझा रहा और आभासी मीडिया उसी पर कुश्ती करता रहा. देखते हैं सन पंद्रह के सबसे आम और अहम पंद्रह शब्द कौन से रहे.
जुमला: इस साल भारतीय जनता पार्टी का सबसे ज़्यादा अहित संभवतः इसी शब्द ने किया.
बीजेपी अध्यक्ष ने काला धन लाने और हर खाते में 15 लाख रुपए जमा करने के वादे को ‘जुमला’ क्या कहा, विपक्ष को एक हथियार मिल गया.
ऐसी संटी, जिससे वह हर नए वायदे को ‘जुमला’ कहकर बीजेपी पर जड़ सके.
अरहर: सन 2014 का विवादास्पद पर लोकप्रिय नारा ‘हर हर मोदी’ साल बीतने से पहले ‘अरहर मोदी’ में बदल गया.
अरहर दाल का दाम 200 रुपया किलो पार कर गया, महंगाई नियंत्रण में नहीं आई.
कहा जाता है कि बिहार चुनाव में बीजेपी की दाल इसलिए भी नहीं गल पाई.
मैगी: मामला राजनीतिक नहीं था और उसे इस रूप में रखा भी नहीं गया लेकिन ‘दो मिनट’ वाले अंदाज़ में उसके राजनीतिक अर्थ ख़ूब निकाले गए.
बीजेपी के क़रीबी कहे जाने वाले बाबा रामदेव को लाभ पहुंचाने के आरोपों के बीच ‘मैगी’ के लिए दरवाज़े अंततः दोबारा खोल दिए गए.
सूट-बूट: कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी के खाते में ‘सूट-बूट’ वाली टिप्पणी शायद सबसे चमकदार और प्रभावी रही.
अपने नाम का सूट पहनने वाले प्रधानमंत्री पर इस फ़ब्ती ने राहुल का भला चाहे न किया हो, वह जनस्मृति का हिस्सा बन गया.
वापसी: ‘वापसी’ की ख़बरों में दो बार वापसी हुई. पहली बार धर्मांतरण के संदर्भ में ‘घर-वापसी’ पर विवाद उठा तो दूसरी बार साहित्य अकादमी ‘पुरस्कार वापसी’ पर.
यह 2015 का अकेला शब्द था, जिसने दो अलग-अलग संदर्भों में सत्तारूढ़ दल को विचलित किया.
भक्त: सोशल मीडिया को राजनीतिक उपकरण की तरह इस्तेमाल करने वाले बीजेपी के महारथियों को अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि अपने स्थापित धार्मिक अर्थ से बाहर ‘भक्त’ इतनी बड़ी संख्या में मौजूद हो सकते हैं.
भक्तों पर अंकुश न होना बीजेपी के लिए नुक़सानदेह भी साबित हुआ.
दिव्यांग: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में ‘विकलांग’ के लिए ‘दिव्यांग’ शब्द क्या सुझाया, आभासी मीडिया ने उसे तत्काल ‘भक्त’ का पर्याय बना दिया.
यह बहस मुख्यधारा के मीडिया में उस तरह नहीं आई, लेकिन इंटरनेट उसका अखाड़ा बना रहा. कहा गया कि सिर्फ़ नाम बदलने से क्या होगा.
रामज़ादे: दिल्ली चुनाव के समय बीजेपी के कथित ‘नॉन स्टेट एक्टरों’ ने ‘रामज़ादे’ और उस शब्द के आगे ‘ह’ जोड़कर एक वर्ग को अपमानित करने का प्रयास किया, जो उलटा पड़ गया.
यह बहस कुछ दिन चलकर थम गई, पर ऐसा नहीं लगता कि वह ख़त्म हुई है.
सहिष्णुता: यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि भारत सहिष्णु कब था और कब नहीं. उसे नापने का पैमाना कहां है.
पर यह तथ्य अपनी जगह है कि असहिष्णुता एक गंभीर मसला है और सरकारी संरक्षण या ख़ामोशी उसे ख़तरनाक बनाती है. दादरी से धारवाड़ तक.
नसीबवाला: प्रधानमंत्री मोदी ने ख़ुद को ‘नसीबवाला’ कहा. बदनसीब लोगों की जगह उन्हें चुनने की बात की.
लेकिन दिल्ली की जनता ने नसीब पर भरोसा नहीं किया और बागडोर आम आदमी पार्टी को सौंप दी.
नरभक्षी: बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान आरोप-प्रत्यारोप में तल्खी की कमी किसी तरफ़ नहीं थी पर लालटेन की रोशनी में एक शब्द ‘नरभक्षी’ को तमाम अलग-अलग अर्थों में पढ़ा गया.
मामला चुनाव आयोग तक गया, लेकिन फ़ैसला बिहार की जनता ने सुनाया.
पाकिस्तान: पाकिस्तान भारतीय मीडिया की ख़बरों से बाहर कभी नहीं रहता पर साल के अंत में जिस तरह उसकी पहले पन्ने और टेलीविज़न चैनलों पर वापसी हुई, दुनिया ने उसे ग़ौर से देखा.
काबुल से दिल्ली लौटते हुए मोदी का लाहौर रुकना सकारात्मक था और उसकी तारीफ़ हर जगह हुई.
प्रेस्टीट्यूट: केंद्र सरकार के एक मंत्री ने अपनी आलोचना पर प्रेस को ‘प्रेस्टीट्यूट’ क़रार दिया तो महीनों इस पर लंबी बहस हुई.
मीडिया के लिए गढ़े गए इस अपमानजनक आशय वाले शब्द पर बहस अब तक जारी है.
कलबुर्गी: कर्नाटक में कन्नड़ लेखक और शिक्षाविद एमएम कलबुर्गी की हत्या ने सरकार को बैकफ़ुट पर धकेल दिया.
बहस असहिष्णुता के साथ इस पर भी थी कि गोविंद पानसरे और नरेंद्र दाभोलकर की इसी तरह हत्या हो चुकी थी और जांच की गति धीमी थी.
सवाल पूछे जा रहे थे कि क्या अब बहसों का अंत गोलियों से होगा?
आरक्षण: ठीक बिहार चुनाव से पहले आरक्षण पर आरएसएस प्रमुख का बयान क्यों आया, अब भी ज़ेरे बहस है.
लेकिन इतना लगभग सभी राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बिहार में बीजेपी की हार की एक वजह वह भी थी.
आरक्षण तो गया नहीं, बीजेपी के हाथ से बिहार निकल गया.
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