।। श्रीश चौधरी ।।
(प्रोफेसर, मानविकी एवं समाज विज्ञान, आइआइटी मद्रास)
उपेक्षितरहीहैशिक्षा,बदलनेहोंगेहालात
आज भी अनेक प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों में पर्याप्त कमरे व फर्नीचर नहीं हैं. बिजली नहीं है. एक 12 x12 फीट के कमरे में 40-50 बच्चों को बैठना पड़ता है. जब पेड़ों के नीचे कक्षाएं चलती थीं, तब प्राय: इतना बुरा नहीं था. कम से कम एक पेड़ या एक बड़ी डाल के नीचे एक ही कक्षा बैठती थी.
अभी मैंने बच्चों को कमरे के बाहर बरामदे में भी बैठा देखा. पेड़ के नीचेवाले विद्यालय में बरसात तथा बाढ़ में अवश्य छुट्टी देनी पड़ती थी. शेष समय बच्चे-शिक्षक आनंद से पठन-पाठन करते थे. बंद, गरम छोटे कमरे की घुटन वहां नहीं होती थी.
मैं यह नहीं कह रहा कि पेड़ के नीचे ही स्कूल चलने चाहिए. मैं कह रहा हूं कि स्कूल के लिए मकान बनाने में साधन तथा स्थानीय परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए थोड़ी कल्पना शक्ति भी हमें खर्च करनी होगी. कमरे हवादार हों, सर्दियों-बरसात में सूखे रहें, हवा आये, खिड़कियों की ऊंचाई अधिक न हो पर खिड़कियां बड़ी हों, अधिक हों, उनकी बेस चौड़ी हो, कमरों में राज्य, देश एवं विश्व के मानचित्र-नक्शे हों, सुंदर प्राकृतिक दृश्यों के चित्र हों, महापुरुषों के फोटो हों. स्कूल के प्रांगण में कुछ फूल-पौधों की व्यवस्था हो, पीने का पानी, शौचालय आदि की समुचित व्यवस्था हो.
मिला-जुला कर स्कूल एक आकर्षक स्थान हो, जहां बच्चे आना तथा रहना चाहें. खेलने की जगह के बिना मैं स्कूल की कल्पना ही नहीं कर सकता. गुरुदेव टैगोर ने कहा था कि एक बच्चे को ही यह विकल्प उपलब्ध है कि वह पेड़ की डाली पर बैठे या कमरे में कुर्सी पर, यह विकल्प तो उपलब्ध होना ही चाहिए.
इन सारी सुविधाओं के निर्माण तथा निर्वाह में स्कूल के बच्चे-छात्रों-शिक्षकों को भागीदारी, स्थानीय जनता की भागीदारी अवश्य होनी चाहिए. सरकार व मोटी रकम, या निजी क्षेत्रों के स्कूलों में प्रबंधक एक मोटी रकम लगा सकते हैं, परंतु रख-रखाव में होनेवाले नित्य के छोटे खर्चे की व्यवस्था स्थानीय स्तर पर स्थानीय साधनों से ही होनी चाहिए. ऐसी व्यवस्था में भाग लेना बच्चों के लिए अपने आप में एक शिक्षा होगी. अभी अनेक सरकारी तथा निजी विद्यालयों में ऐसा कुछ भी नहीं होता.
इस संदर्भ में दरभंगा जिला के मखनाही माध्यमिक विद्यालय की चर्चा करना चाहूंगा. आठवीं कक्षा तक पढ़ानेवाले देहाती क्षेत्र के इस विद्यालय में 700 से अधिक छात्र-छात्रएं हैं. सभी पास के गांवों से, सभी जातियों, समुदायों से आते हैं. अन्य सरकारी स्कूलों की तरह यहां भी शिक्षकों की संख्या अपेक्षाकृत कम है.
परंतु अपने युवा प्रधानाध्यापक सुशील पासवान के नेतृत्व में इस विद्यालय में जो भी हुआ है, वह बहुत से शहरी एवं निजी क्षेत्र के स्कूलों में भी नहीं होता. कुछ सरकार की सहायता एवं स्थानीय प्रयास से स्कूल को अपेक्षाकृत बड़ा भवन, चौड़े बरामदे, जहां बच्चे बरसात एवं गरमी के महीनों में प्रार्थना एवं भोजन भी करते हैं, संगीत एवं स्कूल संसद भी चलते हैं, चारों ओर अहाता, फाटक, फूल-पौधे, मैदान, पुस्तक तथा पुस्तकालय के साधन आदि सभी उपलब्ध हैं.
इन सभी सुविधाओं की व्यवस्था एवं देख-रेख शिक्षकों की सहायता से यहां पढ़नेवाले विद्यार्थी स्वयं करते हैं. अन्य अनेक स्कूलों के लिए यह स्कूल एक मॉडल है. इसके प्रधानाध्यापक सुशील जी पास ही के गांव के निवासी हैं तथा दरभंगा के सीएम साइंस कॉलेज से बीएससी गणित ऑनर्स के स्नातक तथा बीएड की डिग्री प्राप्त कर चुके हैं.
इनके अपने बच्चे भी अच्छा पढ़ते-लिखते, गाते-बजाते हैं, और सुशील जी स्थानीय जनता में आदर एवं स्नेह के पात्र हैं. ऐसे स्कूलों को और प्रोत्साहन अधिक सुविधा एवं स्वतंत्रता मिलनी चाहिए. निराशा एवं कुंठा से घिरे माध्यमिक-प्राथमिक शिक्षा की दुनिया में ऐसे विद्यालय एक खामोश क्रांति है. पर ऐसा हो नहीं पाता है, सुशील जी अवकाशप्राप्त हैं.
भारत जैसे घनी आबादीवाले देश तथा बिहार जैसे राज्य में हर गांव के हर स्कूल में प्राय: सभी सुविधाएं देना संभव नहीं. हमारे पास समस्याएं अधिक, साधन कम हैं. 1964-65 के कोठारी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस बात को स्वीकार किया था. साथ ही कहा था कि हम आसपास के स्कूलों को एक समूह मान कर उनमें क ई प्रकार की सुविधाएं दे सकते हैं.
खेल का मैदान हर स्कूल को उपलब्ध होना चाहिए. पेय जल, शौचालय की व्यवस्था हर स्कूल में हो. परंतु, यदि किसी स्कूल के पास अच्छा जिम है, उसे और अच्छा एवं बड़ा कर पड़ोस के अन्य स्कूलों के बच्चों के लिए भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए. ये स्कूल की सामान्य कार्य अवधि के बाहर भी काम करें. ये अवकाश में भी खुलें, इनके संचालन में विद्यार्थियों की जिम्मेवारी हो. इसी तरह स्कूलों के समूहों के अंदर पुस्तकालय, विज्ञान प्रयोगशाला, कंप्यूटर प्रयोगशाला, हस्तशिल्प, संगीत व ललित कला आदि की सुविधा दी व की जा सकती है.
(जारी)