राजधानी दिल्ली में 16 दिसंबर 2012 को एक चलती बस में 23 साल की फ़िज़ियोथेरेपी छात्रा से सामूहिक बलात्कार और उसके बाद हुई उसकी मौत के तीन साल बाद, बलात्कारियों में से एक बाल सुधार गृह से छूटने वाला है.
अपराध के समय वो नाबालिग़ था. लेकिन उसकी रिहाई को लेकर लोगों में ग़ुस्से को देखते हुए उसकी सुरक्षा और पुनर्वास के लिए उसे एक ग़ैर-सरकारी संस्था को सौंपा जाएगा.
इस गैंगरेप ने पूरी दुनिया में हलचल मचा दी थी. भारत में बलात्कार के इन दोषियों को शायद सबसे अधिक नफ़रत से देखा जाता है.
जब पीड़िता अस्पताल में ज़िंदगी के लिए जंग लड़ रही थी, उसी दौरान इस घटना से जुड़ी भयानक कहानियां बाहर आने लगी थीं. कुछ ख़बरों में दावा किया गया था कि किशोर ने युवती के साथ सबसे ज़्यादा बर्बरता दिखाई थी.
उस पर एक बालिग़ के रूप में मुक़दमा चलाने की भी मांगें उठीं, जबकि अधिकांश लोगों ने अपराध के अनुसार सज़ा देने की मांग की.
इस किशोर को जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने बलात्कार और हत्या का दोषी ठहराते हुए तीन साल तक के लिए सुधार गृह भेज दिया था.
भारत में एक नाबालिग़ अपराधी को अधिकतम इतनी ही सज़ा दी जा सकती है.
कब क्या हुआ
16 दिसंबर 2012: दिल्ली में एक चलती बस में 23 साल की फ़िजियोथेरेपी स्टूडेंट के साथ छह लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया, उस समय लड़की के साथ रहे उसके दोस्त को पीटा गया और इस बर्बर हमले के बाद दोनों को चलती बस से बाहर फेंक दिया गया.
17 दिसम्बरः इस मामले के मुख्य अभियुक्त बस ड्राइवर राम सिंह को गिरफ़्तार किया गया. इसके कुछ दिन बाद ही उनके भाई मुकेश सिंह, जिम प्रशिक्षक विनय शर्मा, फल विक्रेता पवन गुप्त, बस के हेल्पर अक्षय ठाकुर और एक 17 साल के नाबालिग़ को गिरफ़्तार कर लिया गया.
29 दिसंबरः पीड़िता की सिंगापुर के एक अस्पताल में मौत हो गई और शव को दिल्ली लाया गया.
30 दिसंबरः पुलिस की कड़ी सुरक्षा में उसका दाह संस्कार कर दिया गया.
11 मार्च 2013: तिहाड़ जेल में राम सिंह की मौत हो गई. पुलिस ने कहा कि उन्होंने ख़ुद को फांसी लगा ली, लेकिन बचाव पक्ष और उसके परिवार ने हत्या का आरोप लगाया.
31 अगस्तः जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने नाबालिग़ अभियुक्त को दोषी पाया और उसे तीन साल की सज़ा सुनाई.
13 सितंबरः दिल्ली की एक अदालत ने मामले के चार अन्य बालिग़ अभियुक्तों को दोषी पाया और उन्हें मौत की सज़ा सुनाई.
13 मार्च 2014: दिल्ली हाईकोर्ट ने मौत की सज़ा को सही ठहराया.
मार्च-जूनः दोषियों ने सुप्रीम कोर्ट में मौत की सज़ा को चुनौती दी, सज़ा को अदालत का फ़ैसला आने तक के लिए स्थगित कर दिया गया.
सुनवाई के दौरान, यह बिल्कुल साबित नहीं हुआ कि नाबालिग़ अन्य दोषियों के मुक़ाबले अधिक बर्बर था.
लेकिन इस तथ्य को अधिकांश लोग नज़रअंदाज़ करते रहे. पीड़िता के साथ हुई बर्बरता ने लोगों को झकझोर कर रखा दिया.
अब जैसे-जैसे किशोर की रिहाई का दिन नज़दीक आता जा रहा है, लोगों में आक्रोश बढ़ता जा रहा है.
पिछले कुछ दिनों में मैंने जितने लोगों से बात की, उनमें से अधिकांश का कहना था कि वो चाहते हैं कि ‘अपराधी को सरेआम फांसी पर लटकाया जाए’ या ‘सामूहिक रूप से पीट-पीट कर मार डाला जाए’.
सबसे उदार व्यक्ति ने कहा कि वो चाहते हैं कि दोषी को ज़िंदगी भर जेल में बंद रखा जाए और उसके बारे में भूल जाया जाए.
पीड़िता के परिजनों ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को उसकी रिहाई रोकने की अर्ज़ी दी है. वहीं भाजपा के एक नेता ने दिल्ली हाईकोर्ट से अपील की है कि दोषी को ‘तबतक न रिहा किया जाए जबतक कि ये साबित नहीं हो जाता कि उसमें सुधार आया है और वह समाज के लिए ख़तरा नहीं है.’
उसके बारे में प्रशासन चुप्पी साधे हुए है, लेकिन बीबीसी को विश्वसनीय स्रोतों से पता चला है कि पुनर्वास के लिए उसे एक ग़ैर-सरकारी संस्था के हवाले करने का बंदोबस्त हो चुका है.
दिल्ली के मजनू का टीला इलाक़े में स्थित बाल सुधार गृह में अब 20 साल के हो चुके इस नौजवान को पिछले तीन साल से बंद रखा गया है.
बालगृह के एक अधिकारी ने बीबीसी से कहा कि, ”उसे एक और मौक़ा दिया जाना चाहिए.”
अधिकारी के मुताबिक़, ”यह लड़का ठीक है. उसे अपनी ग़लतियों का पछतावा है. उसने कहा कि उसने एक ग़लती की थी. अपराध के समय वो महज़ एक बच्चा था. मैंने उससे पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया, तो उसने कहा कि वो बालिग़ों के बीच रह रहा था और वो ये साबित करना चाहता था कि वह वो सबकुछ कर सकता था, जो वे कर सकते थे.”
अधिकारी ने कहा, ”जब 18 दिसंबर 2012 को उसे रिमांड होम में लाया गया, तो यह नाबालिग़ मानसिक रूप से परेशान था और इसके एक हफ़्ते बाद ही सरकारी अस्पताल में उसका एपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ.”
रिमांड होम में कुछ दिन उसे एकांतवास में रखा गया. उसे बुनियादी हिंदी, अंग्रेज़ी, गणित पढ़ाने के लिए शिक्षक नियुक्त किए गए.
अधिकारी ने कहा, ”अब वो अंग्रेज़ी और हिंदी में अपना नाम लिख सकता है.”
उसे खाना पकाने, सिलाई करने और गिटार बजाना भी सिखाया गया.
अधिकारी ने कहा, ”वो एक बढ़िया कुक है, वो बहुत बढ़िया आलू चाप, मटर पनीर और राजमा बना लेता है. उसने सिलाई सीखी है और पैंट-शर्ट सिलने की नौकरी वो बख़ूबी कर सकता है.”
उन्होंने बताया, ”रिहा होने के बाद वो चाय स्टॉल लगाने या टेलर का काम कर सकता है. मुझे लगता है कि उसे बदलने में हम थोड़ा-बहुत कामयाब रहे हैं और फिर से ज़िंदगी शुरू करने का उसे एक और मौक़ा देना चाहिए.”
उत्तर प्रदेश के एक ग्रामीण इलाक़े में एक ग़रीब परिवार के इस किशोर ने अपनी सज़ा के दौरान बाल गृह के अधिकारियों को बताया था कि उसे अपने परिवार की चिंता हो रही है. रिहा होने के बाद वो अपने घर लौटना चाहता है.
उससे हाल ही में मिले बाल अधिकार को लेकर काम करने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता ने बीबीसी को बताया कि, ”उसे टीवी देखने की इजाज़त है. वो ख़बरें देखता रहा है. अपने ख़िलाफ़ नकारात्मक भावनाओं से वो वाक़िफ़ है और वो अपनी ज़िंदगी को लेकर डरा हुआ है.”
सामाजिक कार्यकर्ता के मुताबिक़, ”मीडिया ने उसकी छवि एक ऐसे दुर्दांत अपराधी, एक राक्षस की बना दी है, जिसने पीड़िता की आंतें निकाल ली थीं.”
हाल के दिनों में, मीडिया की कुछ ख़बरों में कहा गया था कि वो अब जिहादी बन सकता है.
अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि अपर्याप्त साक्ष्यों के आधार पर खड़ी की गई मीडिया के कड़वे कवरेज ने अधिकांश लोगों के दिमाग़ में एक तोड़ी-मरोड़ी गई छवि बनाई है. उन्हें डर है कि किशोर बाहर सुरक्षित नहीं रहेगा.
इसलिए एक ऐसी योजना बनाई जा रही है जिससे उसकी पहचान गोपनीय बनी रहे.
बाल अधिकार कार्यकर्ता भारती अली ने बीबीसी को बताया, ”क़ानून के अनुसार, एक नाबालिग़ अपराधी की पहचान को गोपनीय रखा जाना चाहिए. उसके लिए एक योजना बनानी होगी और उसके पुनर्वास का इंतज़ाम करना होगा.”
अली ने कहा, ”उसका नाम कभी ज़ाहिर नहीं किया जा सकता, ना ही उसकी तस्वीर दिखाई जा सकती है. और अधिकतम सात साल बाद उसके रिकॉर्ड को नष्ट करना होगा.”
जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के सामने सबसे बड़ी समस्या ये है कि अपराध के कुछ हफ़्तों में और अब उसकी रिहाई के मौक़े पर उसकी कुछ पहचान ज़ाहिर हो चुकी है क्योंकि पत्रकार उसके पैतृक घर तक पहुंच चुके हैं.
लेकिन अली का कहना है, ”बोर्ड को एक हुक्मनामा जारी कर मीडिया को ऐसी किसी ख़बर को प्रकाशित-प्रसारित करने पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए, जिससे उसकी पहचान ज़ाहिर हो सकती हो.”
भारत में क़ानून के शिकंजे में फंसे बच्चों के पुनर्वास के लिए कोई अभूतपूर्व उदाहरण नहीं है.
पुनर्वास का इंतज़ाम सिर्फ़ उन्हीं बच्चों पर लागू किया जाता है जिनका न तो कोई परिवार है और न ही उनकी देखरेख करने वाला.
लेकिन दुनिया में कई ऐसे देश हैं जहां बच्चों के पुनर्वास को सफलतापूर्वक आज़माया जाता है. सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि भारत को इस मामले से निपटने में उन देशों के अनुभव का लाभ उठाना चाहिए.
हालांकि यह बहुत आसान नहीं है, कड़ी प्रतिस्पर्द्धा और ख़बरों का भूखा भारतीय मीडिया उसे तलाशने में किसी भी हद तक चला जाएगा. लेकिन अली का कहना है कि पुनर्वास तो हर हाल में करना ही होगा.
वो कहती हैं, ”आप उससे ये नहीं कह सकते कि वो नए सिरे से ज़िंदगी नहीं शुरू कर सकता, कि वो केवल एक अपराधी भर है. एक समाज के रूप में उसका पुनर्वास करने और उसे एक और मौक़ा देने के लिए हमें हरसंभव क़दम उठाने होंगे.”
कुख्यात बाल अपराधी
रॉबर्ट थाम्पसन और जॉन वेनाबल्स, 10 साल के थे जब उन्होंने 1993 में दो साल के जेम्स बुल्गर का अपहरण कर उसकी हत्या कर दी थी. अपहरण लिवरपूल के शापिंग मॉल से किया गया था, जहां वो बच्चा अपनी मां के साथ आया हुआ था. दोनों उस बच्चे को रेलवे लाइन के किनारे ले गए और उसे यातना देकर मार डाला. उन्होंने शव को रेलवे ट्रैक पर ही छोड़ दिया, जहां से दो दिन बाद शव बरामद किया गया. उस समय इस मामले में मॉल के सीसीटीवी में बुल्गर को पकड़ कर ले जाते हाथ की तस्वीर बहुत चर्चित हुई थी. नवंबर 1993 में थाम्पसन और वेनाबल्स को हत्या का दोषी ठहराया गया था. उन्हें बाल सुधार गृह में आठ साल की क़ैद की सज़ा हुई. जून 2001 में उन्हें रिहा किया गया और उन्हें नई गोपनीय पहचान दी गई.
1993 में ही तब 16 साल के सजल बरुई ने पांच दोस्तों की मदद से अपने पिता, सौतेली मां और सौतेले भाई की कोलकाता में हत्या कर दी. उन दिनों 15 साल से ऊपर के अपराधियों को बालिग़ माना जाता था. उनपर सामान्य अदालत में मुक़दमा चला और मौत की सज़ा सुनाई गई, बाद में इसे आजीवन कारावास में बदल दिया गया. उन्होंने कभी भी अपने अपराधों के लिए खेद व्यक्त नहीं किया.
एरिक स्मिथ 13 साल के थे, जब उन्होंने चार काल के डेरिक रोबी की दो अगस्त 1993 को न्यूयॉर्क के एक छोटे से गांव में हत्या की थी. साल 1994 में उन्हें दोषी ठहराया गया और नौ साल की जेल की सज़ा सुनाई गई थी. नाबालिग़ अपराध के लिए उस समय यहां इतनी ही सज़ा होती थी. क़ैद के दौरान उन्होंने रोबी के परिवार को माफ़ी मांगने वाला एक ख़त लिखा था. पैरोल की उनकी कई अर्ज़ियों को ठुकरा दिया गया और वो अभी भी जेल में ही हैं.
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