तेज़ पिकअप के लिए जानी जाने वाली बजाज की बाइक पल्सर का स्लोगन है ‘फ़ीयर द ब्लैक’.
नेपाल की नाकेबंदी के दौर में सोनौली बार्डर से लगे भारतीय गांवों में यह बाइक कालाबाज़ारी का सबसे बड़ा ज़रिया बन गई है क्योंकि इसकी टंकी में 15 लीटर पेट्रोल समा जाता है.
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बेरोज़गार और छात्र इसे 300 रुपए रोज़ किराए पर लेते हैं, भारतीय पेट्रोल पंपों पर 70 रुपए प्रति लीटर की दर से टंकी भरवाते हैं और नेपाल के भीतर 125-130 रुपए लीटर के हिसाब से बेच आते हैं.
जो जितने फेरे लगा ले, उसकी शाम उतनी रंगीन हो जाती है. दूसरी मोटरसाइकिलों से भी पेट्रोल की कालाबाज़ारी हो रही है पर किराया और मुनाफ़ा कम है क्योंकि टंकी छोटी है.
तेज़ रफ़्तार से बाइक भगाने वाले ये लड़के एक महीने से प्रदूषण मास्क पहनने लगे हैं, खेतों में उड़ती धूल से बचने के लिए नहीं बल्कि पुलिस और पेट्रोल पंप कर्मियों को चकमा देने के लिए, क्योंकि ज़्यादा फेरे करने वालों को पुलिस टोकती है, पंप वाले टरकाते हैं.
ट्रैवल एजेंसियां मक्खी मार रही हैं लेकिन टैक्सियों में डीजल फुल कराकर ड्राइवर कमाई कर रहे हैं.
नाकेबंदी में कई युवा निवेशक पैदा हुए हैं जिनके क़िस्से पेट्रोल पंपों पर सुनने को मिलते हैं. सोनौली से 25 किलोमीटर दूर एक छोटे चेकपोस्ट से सटे गांव ठूंठीबारी के एक बेरोज़गार युवक ने 15 हज़ार में सेकेंड हेंड बाइक खरीदी थी. मूल रकम चुकाने के बाद वह अब पैसा पीट रहा है.
सीमा से सटे बरगदवा क़स्बे से दो दिन पहले डीज़ल लेकर गए एक लड़के संदीप को नेपाल के नवलपरासी ज़िले में मधेशी आंदोलनकारियों ने गोली मार दी थी, पर उसका ज़िक्र करने से पल्सर वाले बचते हैं.
उनके लिए यह घटना अपवाद है, जो कालाबाज़ारी नहीं, आपसी झगड़े के कारण हुई थी.
जो बाइक नहीं जुगाड़ पाते, वो साइकिलों पर डीज़ल के जरिकेन पार करा रहे हैं. यहां तक कि ग़रीब औरतें और लड़कियां भी उधारी के पैसों से पांच-सात लीटर डीज़ल ख़रीदकर कुछ न कुछ कमा रही हैं.
नौतनवां बाइपास पर सशस्त्र सुरक्षा बल (एसएसबी) के कमांडेंट आफ़िस से थोड़ी दूर पेट्रोल पंप पर ही एक चाट वाले ने ठेला लगा लिया है.
पिछले महीने तक यह ठेला पास के एक स्कूल के गेट पर लगता था. ठेला लगाने वाले कहते हैं, "जहां लड़के वहां ठेला. पहले जिनके पास 10 रुपए नहीं थे, अब रोज़ हजार-पंद्रह सौ कमा रहे हैं."
इस पंप पर जरिकेनों की लंबी कतार थी. औरतें जल्दी तेल देने के लिए कर्मचारियों की चिरौरी कर रही थीं ताकि अंधेरा होने से पहले वे खेतों के रास्ते दसगज्जा (नो मैंस लैंड) पार कर, बिज़नेस करके वापस लौट सकें.
बॉर्डर से सटे कस्बों में कुकिंग गैस की रीफ़िलिंग करके धड़ल्ले से एक के दो सिलिंडर बनाए जा रहे हैं.
एक सिलिंडर ब्लैक में 720 रुपए का है. सीमा पार होते ही बेलहिया में उसकी क़ीमत 1500 रुपए हो जाती है, जो भैरवां और काठमांडू पहुंचने पर ढाई से तीन हजार रुपए का बिकने लगता है.
सोनौली में दुकानदार रो रहे हैं कि कालाबाज़ारी का धंधा चटकने के कारण उनकी दुकानों में काम करने वाले छोकरे भाग गए हैं.
बार्डर पास के क़स्बों में रिक्शा चलाने वाले नहीं दिख रहे और गेहूं की बुवाई के सीज़न में मज़दूर नहीं मिल रहे. सीमा के साथ लगे गावों-क़स्बों के लोगों के लिए नाकेबंदी किसी वरदान की तरह कमाई का मौक़ा बनकर आई है.
वे चाहते हैं यह सिलसिला लंबा चले. यहां पुरानी कहावत है ‘पढ़ाव न लिखाव, बॉर्डर पर बसाव.’ यानी अगर पढ़ा-लिखा न हो तो सिर्फ़ सीमा पर घर हो, तो रोज़गार और आमदनी की बहुत फ़िक्र नहीं करनी पड़ती.
फरेंदा में एक प्राइवेट नर्सिंग होम के सामने खड़े एक देहाती ने कहा, "नेपाल को भारत ने वेंटिलेटर पर रख दिया है. ऐसे मरीज़ के घर वाले डॉक्टर को धकाधक पैसा देते हैं. नेपाल भी इस इलाक़े के लोगों को दे रहा है."
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