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झारखंड स्‍थापना दिवस : कुल राजस्व में राज्य की भागीदारी कम

झारखंड स्‍थापना दिवस : राजस्व बढ़ाने के तरीके खोजने होंगे राज्य गठन के बाद से सभी स्त्रोतों से राज्य की आमदनी बढ़ी है. पर, कुल आमदनी में से राज्य के अपने आर्थिक स्त्रोतों से होनेवाली आमदनी का प्रतिशत घटा है. भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक ( सीएजी) के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2007-08 में राज्य […]

झारखंड स्‍थापना दिवस : राजस्व बढ़ाने के तरीके खोजने होंगे

राज्य गठन के बाद से सभी स्त्रोतों से राज्य की आमदनी बढ़ी है. पर, कुल आमदनी में से राज्य के अपने आर्थिक स्त्रोतों से होनेवाली आमदनी का प्रतिशत घटा है. भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक ( सीएजी) के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2007-08 में राज्य सरकार अपनी कुल आमदनी में से अपने स्त्रोतों से 42 प्रतिशत जुटा पायी थी. इसी तरह वर्ष 2008-09 में 43 प्रतिशत, 2009-10 से 2011-12 तक 45 प्रतिशत जुटा पायी थी. चालू वित्तीय वर्ष के बजट आकलन के हिसाब से 100 में से राज्य सरकार अपने स्त्रोतों से सिर्फ 42 रुपये ही जुटा पायेगी. अर्थात राज्य गठन के बाद राज्य की आर्थिक स्थिति बिगड़ी है और केंद्र पर निर्भरता बढ़ी है.

।। शकील अख्तर ।।

रांची : राज्य गठन के बाद से कुल राजस्व में राज्य की भागीदारी कम होती जा रही है. राज्य सरकार पहले 100 रुपये में से 55 रुपये खुद ही जुटा लेती थी. शेष 45 रुपये के लिए उसे केंद्र पर निर्भर रहना पड़ता था. अब वह 100 में से सिर्फ 42-45 रुपये ही जुटा पा रही है. इससे राज्य की अपनी जरूरतों के लिए केंद्र और कर्ज पर निर्भरता बढ़ती जा रही है.

राज्य की आमदनी(राजस्व) के चार स्त्रोत हैं. इनमें कर(टैक्स), गैर-कर(नन-टैक्स), केंद्रीय करों में राज्य का हिस्सा और केंद्रीय अनुदान शामिल है. इन चार स्त्रोतों में से कर और गैर कर को राज्य का अपना आमदनी स्त्रोत माना जाता है. भारत सरकार, केंद्रीय करों में हिस्सा और अनुदान की राशि राज्य को देती है. इन सभी स्त्रोतों से होनेवाली आमदनी को 100 रुपये मान लिया जाये, तो राज्य की आर्थिक स्थिति का आकलन करने के लिए यह देखा जाता है कि इस 100 रुपये में से राज्य अपने स्त्रोत( कर और गैर-कर) से कितना रुपये जुटा पाता है. राज्य द्वारा 100 रुपये में से 50 रुपये से अधिक अपने ही स्त्रोतों से जुटाने की स्थिति में राज्य की स्थिति ठीक मानी जाती है.

100 में से 50 रुपये से कम जुटाने की स्थिति में यह माना जाता है कि राज्य अपनी जरूरतों के लिए केंद्र पर निर्भर होता जा रहा है. इस आर्थिक पैमाने पर राज्य की स्थिति का आकलन करने पर यह पाया जाता है कि राज्य की आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही है और वह केंद्र पर निर्भर होता जा रहा है. वित्तीय वर्ष 2002-03 में राज्य की कुल आमदनी 4936.78 करोड़ रुपये थी. इसमें से राज्य ने अपने स्त्रोतों से 2737.44 करोड़ रुपये जुटाये थे. केंद्रीय करों में हिस्सा के रुप में 1702.52 करोड़ और अनुदान के रुप में 496.82 करोड़ रुपये मिले थे. इस तरह केंद्र से वर्ष 2002-03 में राज्य को कुल 2199.34 करोड़ रुपये मिले थे.

अर्थात कुल आमदनी में से राज्य ने अपने स्त्रोतों से 55 प्रतिशत राशि जुटायी थी. शेष 45 प्रतिशत केंद्र से मिले थे. राज्य गठन के बाद से सभी स्त्रोतों से राज्य की आमदनी बढ़ी है. पर, कुल आमदनी में से राज्य के अपने आर्थिक स्त्रोतों से होनेवाली आमदनी का प्रतिशत घटा है. भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक( सीएजी) के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2007-08 में राज्य सरकार अपनी कुल आमदनी में से अपने स्त्रोतों से 42 प्रतिशत जुटा पायी थी. इसी तरह वर्ष 2008-09 में 43 प्रतिशत, 2009-10 से 2011-12 तक 45 प्रतिशत जुटा पायी थी.

चालू वित्तीय वर्ष के बजट आकलन के हिसाब से 100 में से राज्य सरकार अपने स्त्रोतों से सिर्फ 42 रुपये ही जुटा पायेगी. अर्थात राज्य गठन के बाद राज्य की आर्थिक स्थिति बिगड़ी है और केंद्र पर निर्भरता बढ़ी है.

* प्रत्येक व्यक्ति पर कर्ज का बोझ हुआ तीन गुना

विकास योजनाओं के लिए लिये गये कर्ज की वजह से राज्य का हर आदमी अब 7853 रुपये का कजर्दार हो गया है. राज्य गठन के वक्त हर आदमी पर कर्ज का बोझ सिर्फ 2300 रुपये ही था. इस तरह राज्य गठन के बाद से अब हर आदमी पर 5553 रुपये का कर्ज बढ़ गया है.

विकास योजनाओं के लिए निर्धारित लक्ष्य पूरा करने के लिए सरकार आंतरिक स्त्रोतों, केंद्र व भविष्य निधि, राष्ट्रीय बचत आदि से कर्ज लेती है. राज्य गठन के बाद 31 मार्च 2001 तक सरकार पर कर्ज का कुल बोझ 6189.23 करोड़ रुपये था. हर साल विकास का लक्ष्य बढ़ाने और उसके लिए जरूरी पैसों की व्यवस्था करने के लिए सरकार अपने राजस्व के अलावा विभिन्न स्त्रोतों से कर्ज लेती रही.

साथ ही कर्ज और सूद की रकम चुकाती रही. इससे मार्च 2012 तक सरकार पर कर्ज का बोझ बढ़ कर 25837.89 करोड़ रुपये हो गया. अर्थात राज्य गठन के बाद से मार्च 2013 तक राज्य पर कर्ज का बोझ चार गुना से ज्यादा हो गया. इससे राज्य के हर आदमी पर भी बोझ बढ़ता गया.

– बाजार से कर्ज

* भारतीय जीवन बीमा निगम से कजर्

* भारतीय सामान्य बीमा निगम से कजर्

* राष्ट्रीय कृषि व ग्रामीण विकास बैंक से कजर्

* स्टेट बैंक व अन्य बैंकों से कजर्

* राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम के कजर्

* रिजर्व बैंक से अग्रिम

* केंद्र सरकार के अग्रिम बचत निधि से कजर्

* राज्य भविष्य निधि से कजर्

* केंद्र सरकार से कजर्

* केंद्र के माध्यम से विदेशी संस्थाओं के कजर्

– वित्तीय प्रबंधन : गैर जरूरी योजना खर्च में कटौती से बनेगी बात

।। अरुण कुमार ।।

(अर्थशास्त्री)

झारखंड भले ही प्राकृतिक संसाधनों के मामले में काफी अमीर है, लेकिन आर्थिक तौर पर राज्य की माली हालत ठीक नहीं है. राज्य में बुनियादी ढ़ांचे की स्थिति अच्छी नहीं है. यह सही है कि जबतक राज्य में उद्योग नहीं आयेगा, तबतक आर्थिक विकास संभव नहीं है. अगर कंपनियां नहीं आती हैं, तो खनिज संसाधनों का पर्याप्त लाभ नहीं मिल पायेगा. कंपनियों के नहीं आने से राज्य की खनिज संपदा को दूसरे राज्यों में भेजा जाने लगता है. इस स्थिति में राज्य के खनिज संपदा का फायदा दूसरे राज्य उठाते हैं.

कर्नाटक में बेल्लारी का उदाहरण दिया जा सकता है. बेल्लारी में लौह अयस्क का बड़ा भंडार होने के बावजूद वहां का विकास नहीं हो पाय. कारण, विकास के नाम पर वहां के लौह अयस्क दूसरी जगहों पर भेजे गये. यही नहीं, अवैध खनन के कारण वहां के पर्यावरण पर भी प्रतिकूल असर पड़ा. इसका खामियाजा वहां के लोगों को उठाना पड़ रहा है.

मेरा स्पष्ट मानना है कि झारखंड के विकास के लिए उद्योग लगना चाहिए, लेकिन सिर्फ बड़े उद्योग स्थापित करने से राज्य को अधिक फायदा नहीं होने वाला है. बड़े उद्योगों में अधिकांश काम मशीनों से होते हैं और स्थानीय लोगों को सिर्फ छोटे-मोटे काम ही मिल पायेंगे. राज्य के नीति-निर्माताओं को सोचना होगा कि झारखंड किस तरह विकास करे कि लोगों को फायदा हो. खनिज संपदाओं का दोहन इस प्रकार हो कि वहां का पर्यावरण प्रदूषित नहीं हो. मेरी राय है कि झारखंड के विकास के लिए लंबी अवधि की योजना बननी चाहिए. राज्य को ऐसे विकास दर पर ध्यान देना चाहिए जो जनता के हितों को पूरा करता हो.

किसी भी राज्य के विकास के लिए वित्तीय प्रबंधन सही होना जरूरी है. सरकार को गैर जरूरी खर्च में कमी करना चाहिए. वित्तीय प्रबंधन को दुरुस्त करने के लिए गैर जरूरी विभागीय खर्चो में कमी की जानी चाहिए. आज भी कई ऐसे विभाग और मंत्रलय हैं जिनकी मौजूदा समय में जरूरत नहीं रह गयी है. इन खर्चों को कम कर काफी पैसा बचाया जा सकता है.

इसके अलावा सरकार को राजस्व जुटाने के लिए अपने आंतरिक संसाधनों को मजबूत करना चाहिए. लेकिन अक्सर देखा जाता है कि सरकार राजस्व बढ़ाने के लिए करों का बोझ बढ़ा देती है. कर बढ़ाने से राज्य की वित्तीय स्थिति बेहतर नहीं हो सकती है. झारखंड जैसे गरीब राज्य में लोगों को बुनियादी सुविधा मुहैया कराना सरकार की जिम्मेवारी है. इस जिम्मेवारी का निर्वहन बेहतर तरीके से तभी हो सकता है, जब राज्य की वित्तीय स्थिति अच्छी हो.

राज्य के वित्तीय हालात को बेहतर करने के लिए रोजगार के अवसरों का सृजन करना होगा. झारखंड में शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य बुनियादी सुविधाओं की काफी कमी है. सरकार को इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर निवेश करना चाहिए. जबतक बुनियादी सुविधाएं बेहतर नहीं होगी, कितना भी उद्योग लगा लें राज्य का विकास संभव नहीं हैं. सिर्फ संसाधनों की मौजूदगी से क्षेत्र का विकास संभव नहीं होता हैं. बल्कि संसाधनों के समुचित उपयोग की नीति अपनाने से ही विकास का लाभ लोगों को मिलता हैं.

झारखंड की समस्याओं को देखते हुए राज्य सरकार को बॉटम टू टॉप विकास की नीति अपनानी होगी. संसाधनों के वितरण में असमानता से कई तरह की समस्याएं उपजती हैं. झारखंड इससे प्रभावित है. खनिज संसाधनों की भरमार होने के बावजूद वहां गरीबी, अशिक्षा होने के कारण नक्सलवाद की समस्या गंभीर बनी हुई है. इन समस्याओं का समाधान समग्र विकास की नीति अपनाकर किया जा सकता है. इसके लिए विकास का मौजूदा मॉडल नहीं अपनाया जा सकता हैं.

राज्य के वित्तीय प्रबंधन को बेहतर करने के लिए ढ़ांचागत सुविधाओं के विकास के साथ ही सरकार के गैरजरुरी योजनागत खर्च में कटौती करना आवश्यक हैं. वित्तीय कुप्रबंधन के कारण ही राज्य में भ्रष्टाचार के अनेकों मामले सामने आते रहते हैं. वित्तीय हालात को बेहतर करने के लिए बेहतर शासन की जरूरत हैं. जबतक गवर्नेंस के स्तर में सुधार नहीं होगा, हालात बेहतर नहीं हो सकते हैं. गठन के बाद से ही झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता रही है. राजनीतिक अस्थिरता से राज्य के आर्थिक हालात पर प्रतिकूल असर पड़ता है.

– आय से तीन गुना अधिक व्यय

* आमदनी 14 हजार करोड़ खर्च 40 हजार करोड़

किसी परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी हो कि वह अपनी आमदनी से सिर्फ दाल-रोटी जुटा सके. कपड़ा, दवा और बच्चों की शिक्षा सहित अन्य जरूरतों के लिए उसे मदद या कर्ज पर ही निर्भर होना पड़े. उस पर कर्ज का बोझ हर साल बढ़ता ही जाये,तो ऐसे परिवार की आर्थिक स्थिति को आम भाषा में खराब कहा जाता है. आम भाषा में राज्य सरकार की स्थिति भी ऐसी ही है.

क्योंकि उसे अपनी आमदनी में से वेतन-भत्ता, पेंशन और सूद की रकम चुकाने के बाद सरकार के पास सिर्फ 639.64 करोड़ रुपये ही बचेंगे. इस बचत के मुकाबले उसे 25869.41 करोड़ रुपये के लिए कर्ज व केंद्र पर निर्भर रहना होगा.

राज्य सरकार ने वर्ष 2013-14 के लिए 39548.90 करोड़ रुपये खर्च का लक्ष्य(बजट) तय किया है. इस लक्ष्य के मुकाबले सरकार की अपनी आमदनी( अपना कर राजस्व और गैर कर राजस्व) सिर्फ 14319.13 करोड़ रुपये होगी. सरकार की सबसे पहली जिम्मेवारी यह होती है कि वह अपनी आमदनी में से सबसे पहले वेतन,पेंशन और सूद चुका दे. इसके बाद दूसरे काम के लिए सोचे. इसलिए सबसे पहले कर्मचारियों को वेतन भत्ता के रुप में 8143.59 करोड़ और पेंशन के रुप में 3061.26 करोड़ रुपये देना होगा. इसके अलावा सूद के रुप में 2474.64 करोड़ रुपये चुकाना होगा.

अर्थात वेतन,पेंशन और सूद के रुप में कुल 13679.49 करोड़ रुपये चुकाना होगा. इन जरूरी खचरें को पूरा करने के बाद सरकार के पास उसकी अपनी आमदनी में से सिर्फ 639.64 करोड़ रुपये ही बचेंगे. दूसरी तरफ वेतन भत्ता,पेंशन और सूद चुकाने के बाद 25869.41 करोड़ रुपये खर्च करने का लक्ष्य बाकी रहेगा. बाकी बचे खर्च के इस लक्ष्य के मुकाबले सरकार के पास सिर्फ 639.64 करोड़ रुपये ही बचे होने की वजह से 25229.77 करोड़ रुपये जुटाने के लिए केंद्र और कर्ज पर निर्भर रहेगी. सरकार ने केंद्रीय करों में राज्य के हिस्सेदारी के रुप में 9352.52 करोड़ और अनुदान के रुप में 9926.85 करोड़ रुपये मिलने की उम्मीद लगा रखी है. इसके अलावा बाजार से 5900.00 करोड़ रुपये कर्ज लेने की उम्मीद है.

– वित्तीय अनुशासन

* जबावदेही और पारदर्शिता से सुधरेंगे हालात

।। अरविंद मोहन ।।

(अर्थशास्त्री, लखनऊ विश्वविद्यालय)

किसी भी राज्य के वित्तीय प्रबंधन में स्थिर सरकार के साथ ही जबावदेही और बेहतर गवर्नेस का होना अति आवश्यक है. झारखंड के मामले में स्थिर सरकार और गवर्नेस दोनों का रिकार्ड अच्छा नहीं रहा है. प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद राज्य विकास के मामले में काफी पिछड़ा हुआ है. जबकि बेहतर शासन के दम पर अबतक विकास के मामले में सबसे निचले पायदान पर रहा बिहार तरक्की के रास्ते पर अग्रसर है. गठन के बाद से ही झारखंड राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहा है. राजनीतिक अस्थिरता का असर शासकीय कामकाज पर पड़ता है.

राज्य में वित्तीय संस्थानों की स्थिति दयनीय है. यही नहीं राज्य में पंचायती राज व्यवस्था का ढ़ांचा अभी भी पूरी तरह विकसित नहीं हो पाया है. इसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों में शासन की गुणवत्ता अच्छी नहीं हो पा रही है. राज्य में बड़े पैमाने पर पद रिक्त पड़े हैं. शासकीय व्यवस्था को दुरुस्त करने पर सरकार ने खर्च कम किया है. वित्तीय प्रबंधन को बेहतर करने के लिए झारखंड को विभागों में प्रदर्शन के आधार पर बजट तैयार करने पर फोकस करना होगा. मौजूदा समय में यह व्यवस्था केवल कुछ विभागों में ही लागू है. साथ ही राजस्व और खर्च के विशलेषण के लिए वित्तीय केंद्रों की स्थापना करनी होगी, ताकि इसका अध्ययन कर कर्ज प्रबंधन को ठीक किया जा सके. सबसे पहले झारखंड के ट्रेजरी विभाग को पूरी तरह कंप्यूटरीकृत करना चाहिए.

विगत वर्षों में ढ़ांचागत सुविधाओं के विकास के लिए बढ़ते खर्च को देखते हुए वित्तीय प्रबंधन को दुरुस्त करना बेहद जरूरी है. वित्तीय कुप्रबंधन के कारण करोड़ों रुपये खर्च होने के बाद भी बुनियादी सुविधाओं का विकास नहीं हो पा रहा है. बजट प्रस्तावों पर सख्ती से अमल करने के लिए वित्तीय अनुशासन बेहद जरूरी है. क्षमता निर्माण के लिए आवश्यक है कि समयबद्ध कार्ययोजना तैयार हो और उस पर सख्ती से काम किया जाये. इन कामों की निगरानी में स्वतंत्र एजेंसियों को भी शामिल किया जाना चाहिए.

वित्तीय प्रबंधन के लिए राज्य के वित्त विभाग को मजबूत किया जाना चाहिए और इसके कामकाज की जिम्मेवारी पेशेवर लोगों को दी जानी चाहिए. राज्य में अभी तक फाइनेंस एंड अकाउंट सेवा की स्थापित व्यवस्था नहीं बन पायी है. राज्य को राजस्व बढ़ाने के लिए आंतरिक संसाधनों को मजबूत करना होगा. हालांकि इस दिशा में राज्य सरकार ने कदम उठाये हैं, लेकिन सभी विभागों की ऑडिट कमिटी की बैठकें समय-समय पर होनी चाहिए. करों के संकलन में नियमों का पालन सख्ती से किया जाना चाहिए. वित्तीय कुप्रबंधन के कारण योजनाओं के लिए आवंटित राशि खर्च ही नहीं हो पाती है.

इसके बावजूद सरकार केंद्र से अतिरिक्त राशि की मांग करती है. योजनाओं की राशि खर्च करने में अक्षमता से राज्य के वित्तीय प्रबंधन पर सवाल खड़ा होना लाजमी है. प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद राज्य की 77 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है और उसकी आजीविका का प्रमुख स्त्रोत कृषि है. राज्य के जीडीपी में लगभग 50 फीसदी हिस्सेदारी उद्योग और मैन्युफैरिंग क्षेत्र की है. उद्योगों की मौजूदगी के बावजूद राज्य के लोगों की आय में आशातीत बढ़ोत्तरी नहीं हुई. औद्योगिकीकरण के बावजूद कृषि क्षेत्र रोजगार के लिहाज से सबसे बड़ा क्षेत्र बना हुआ है.

झारखंड तीन बड़ी समस्याओं का सामना कर रहा है. पहला कम औसत आय, दूसरा गरीबी और तीसरा है सामाजिक विकास की कमी. राज्य की वित्तीय स्थिति भी अच्छी नहीं है. हालांकि हालिया वर्षो में राजस्व में वृद्धि हुई है, लेकिन राजस्व घाटा भी लगातार बढ़ता रहा है. राज्य के विकास के लिए वहां की सरकार को सबसे पहले वित्तीय प्रबंधन दुरुस्त करना होगा.

मौजूदा समय में राज्य आय से अधिक खर्च कर रहा है. हालांकि यह स्थिति कमोबेश सभी राज्यों में हैं. वित्तीय अनुशासन की कमी के कारण योजनाओं के क्रियान्वयन में न सिर्फ देरी हो रही है, बल्कि ये योजनाएं धरातल पर भी नहीं उतर पा रही है. राज्य सरकार को ऑडिट रिपोटरे पर कार्रवाई करनी चाहिए. बिना जबावदेही और पारदर्शिता के राज्य विकास के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ सकता है. जबावदेही और पारदर्शिता के कारण ही झारखंड भ्रष्टाचार का केंद्र बन गया है.

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