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अखबारों के बदलते रूप-रंग

-हरिवंश- पहली बार वैन 2005 में सुना, डिजाइन इज एन एडिटिंग फंक्शन, नाट ए प्रोडक्शन फंक्शन अर्थात ले-आउट-साज-सज्जा, संपादकीय काम है, अखबार के प्रोडक्शन विभाग का दायित्व नहीं. अवसर था कोरिया में आयोजित वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूजपेपर्स (वैन) सम्मेलन का. कोरिया के सोल में यह सम्मेलन मई 2005 के अंत में संपन्न हुआ. मारियो गर्सिया […]

-हरिवंश-

पहली बार वैन 2005 में सुना, डिजाइन इज एन एडिटिंग फंक्शन, नाट ए प्रोडक्शन फंक्शन अर्थात ले-आउट-साज-सज्जा, संपादकीय काम है, अखबार के प्रोडक्शन विभाग का दायित्व नहीं.
अवसर था कोरिया में आयोजित वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूजपेपर्स (वैन) सम्मेलन का. कोरिया के सोल में यह सम्मेलन मई 2005 के अंत में संपन्न हुआ. मारियो गर्सिया बोल रहे थे़ वैन के इस कान्फ्रेंस में अखबारों-पत्रिकाओं के ले-आउट (साज-सज्जा, रूप-रंग) पर खास तौर से दो घंटे का एक सत्र था़ इस सत्र की शुरुआत मारिया गर्सिया के लेजर-कंप्यूटर प्रजेंटेशन से हुआ. गर्सिया का नाम-बयान द हिंदू से कुछेक महीने पहले जाना़. वह दुनिया के सर्वश्रेष्ठ न्यूज डिजाइनर माने जाते हैं. द हिंदू के परंपरागत रूप-रंग-आकार और साज-सज्जा में अचानक जो परिर्वान इस वर्ष के आरंभ में हुआ, उसकी तैयारी वर्षों से चल रही थी़. जिस दिन नये कलेवर में द हिंदू का पहला अंक छपा, उस अवसर पर चेन्नै में एक समारोह हुआ़ गर्सिया ने भी उस समारोह को संबोधित किया़ उस दिन के नये कलेवर के द हिंदू में उनका एक बयान छपा था, द हिंदू के बदले रूप के संबंध में इस बदलाव के पीछे के सैद्धांतिक कारणों की व्याख्या़ सुस्पष्ट और तर्कसंगत. साथ में संपादक एन राम की टिप्पणी भी थी कि द हिंदू अखबार से लेकर उसके हरेक परिशिष्ट(बच्चों, युवा, फिल्म, रविवार वगैरह) के कलेवर-रूप-रंग में उल्लेखनीय बदलाव का प्रारूप गार्सिया ने ही तैयार किया है. गर्सिया दुनिया के मशहूर न्यूजपेपर डिजाइनर हैं, उन्होंने इस संबंध में काफी साहित्य लिखा है़ फिलहाल डिजाइन नामक एक पत्रिका भी निकालते हैं. यह जानकारी द हिंदू से ही मिली थी़.
द हिंदू इस संदर्भ में एक परंपरागत अखबार माना जाता था. देश के अंग्रेजी अखबारों ने जिस पेज तीन की पत्रकारिता को विकसित किया, उसके बिल्कुल विपरीत द हिंदू एक गंभीर समाचारपत्र के रूप में जाना जाता है. इस कारण धारणा यह थी कि यह समाचारपत्र सामान्यतया, आधुनिक बदलाव से तालमेल नहीं बैठा पा रहा़ पर इस परिर्वान के बाद पाठकों की भारी प्रतिक्रियाएं सामने आयीं. द हिंदू ने उन्हें छापा़ नब्बे फीसदी लोगों ने इस परिवर्तन को सुखद-बेहतर-आकर्षक माना़ सराहा़क कंटेंट (विषय-वस्तु-सामग्री) स्तर पर वही गंभीरता, पर साज-सज्जा में मौलिक बदलाव.
इस बदलाव के पूर्व द हिंदुस्तान टाइम्स को रीडजाइन करने के संबंध में खबर आयी थी़ एक जाने-माने अमेरिकी डिजाइनर द्वारा, जो न्यूयार्क टाइम्स से जुड़े थे़ बेंगलुरु से प्रकाशित दक्कन-हेरल्ड और आंध्र के कई शहरों व चेन्नै से प्रकाशित दक्कन क्रानिकल के आकर्षक नये रूप के पीछे भी दुनिया के जाने-माने डिजाइनर हैं. भारत के भाषाई प्रेस में भी रूप-रंग-लेआउट को लेकर लगातार नये प्रयोग और बदलाव हो रहे हैं.
पिछले दो दशकों में भारतीय प्रिंट मीडिया में भी विजुअल परिवर्तन बड़े पैमाने पर हुए हैं. लेकिन यह बदलाव भी पश्चिम प्रेरित ही है. पश्चिम के देशों में अखबारों के आकार-रूप-रंग को लेकर लगातार मंथन-विमर्श हो रहा है. बड़े आकार के अखबार अब परंपरागत स्वरूप में खत्म हो रहे हैं, उन्हें नया रूप-आकार दिया जा रहा है. पहले धारणा थी कि गंभीर अखबार बड़े आकार में छपते हैं. सनसनी पैदा करनेवाले, सेक्स-अपराध की चटपटी खबरों से भरे अखबार टैबलायड (छोटे अखबार) आकार में छपते हैं. ब्रिटेन में तो टैबलायड कल्चर की पत्रकारिता ही विकसित हो गयी, जिसकी पहचान अगंभीर, सनसनी पैदा करनेवाली पत्रकारिता के रूप में हुई़ यह लोक दृष्टि-अवधारणा थी़ अब गंभीर अखबार जो बड़े आकार में छपते हैं, उन्हें अचानक टैबलायड बना दिया जाये, तो टैबलायड कल्चर की लोक अवधारणा से वह मेल नहीं खाता़. इसलिए नये आकार के अखबार के आकार को कांपैक्ट नाम दिया गया़ गंभीर अखबार जो पहले बड़े आकार में निकलते थे, उन्हें ही छोटे आकार में निकाल कर कांपैक्ट पेपर कहा गया़ जिन बड़े अखबारों का सरकुलेशन गिर रहा था, नयी पीढ़ी के पाठक नहीं मिल रहे थे, अचानक कांपैक्ट बनते ही उनकी स्थिति बदल गयी़ प्रसार संख्या बढ़ने लगी़ नये पाठक (जो टीवी-इंटरनेट की दुनिया से जुड़ रहे थे) इन कांपैक्ट अखबारों से जुड़ने लगे़ इन कांपैक्ट अखबारों में डिजाइनिंग और विजुअल पार्ट के महत्व को काफी रेखांकित किया गया़.
इस बदलाव के पीछे दो ठोस कारण बताये जाते हैं. पहला सूचनाक्रांति के दौर के इस तकनीकी समाज के पास पढ़ने के लिए लंबा समय नहीं है़ इसलिए खबरें छोटी हो, पर मुख्य बातों का अच्छी तरह उल्लेख हो़ ग्राफिक्स और ले-आउट प्रस्तुति द्वारा़ इस बदलाव के पीछे दूसरा कारण माना जा रहा है, लगातार न्यूज प्रिंट की कीमतों में उछाल. दुनिया में वन क्षेत्र सिमट रहा है, इसलिए न्यूजप्रिंट बनाने की सामग्री की आपूर्ति घट रही है, पर अखबारों की संख्या बढ़ रही है. खासतौर से एशियाई चीन-भारत में पाठक बढ़ रहे हैं. इसलिए न्यूजप्रिंट की मांग बढ़ रही है. आपूर्ति कम होने से कीमतें लगातार बढ़ रही हैं. विशेषज्ञों का अनुमान है कि आगामी पांच वर्षों भारत में भी सभी अखबार कांपैक्ट आकार में छपने लगेंगे.
क्या यह विजुअल रिवोल्यूशन इन प्रिंट मीडिया (अखबारी जगत में क्रांतिकारी विजुअल बदलाव) अनावश्यक है? क्या यह संपादकीय दायित्व का हिस्सा है?
1977 में टाइम्स आफ इंडिया(मुंबई) में बतौर प्रशिक्षु पत्रकार काम शुरू किया़. 1978 में धर्मयुग में उपसंपादक बना़ तब उपसंपादक का काम, संपादन के साथ-साथ सामग्री के अनुरूप तसवीरें (तब रंगीन तसवीरें नहीं होती थीं) आर्ट सेक्शन को सौंप देना होता था़. संपादित लेख, शीर्षक, सबहेडिंग, तसवीरें निर्धारित जगह की सूचना और लेख की लंबाई वगैरह सूचनाओं के साथ कला विभाग में उपसंपादक जाते थे़. आर्टिस्ट पेज बनाते थे़. तब सारिका, माधुरी, धर्मयुग, इलस्ट्रेटेड वीकली, फेमिना, फिल्म फेयर वगैरह के सभी पेज इसी कला विभाग में बनते थे़. संपादकीय विभाग से जो तसवीरें-कलर ट्रांसप्रेंसी वगैरह पेज में लगाने के लिए कला विभाग को दिये जाते थे, उन्हें गुणवत्ता के आधार पर कला विभाग परखता था़. निर्धारित मापदंड के अनुरूप नहीं होने पर लौटा देता था़. तब टाइम्स आफ इंडिया के आर्ट डाइरेक्टर रमेश संझगिरी हुआ करते थे. वह खुद पेंटिंग में जाने-माने नाम थे़.
यही क्रम आनंद बाजार पत्रिका समूह (कलकत्ता) में काम करते हुए पाया़. रविवार, संडे, सानंदा, देश (मशहूर बंगला पत्रिकाएं) और पूजा विशेषांक वगैरह आर्ट सेक्शन ही बनाता था. उन दिनों विपुल गुहा, आनंद बाजार में आर्ट डाइरेक्टर होते थे़. द टेलिग्राफ की डिजाइनिंग में इस कला विभाग की अहम भूमिका थी़ हालांकि द टेलीग्राफ के पहले संपादक एमजे एकबर ले आउट के बारे में खुद सजग थे. तब पूरे देश में नये ले-आउट-कलेवर के कारण द टेलिग्राफ का प्रकाशन चर्चा का विषय बना. इसके पहले विनोद मेहता के नेतृत्व में इंडियन पोस्ट एक ताजगी के साथ बाजार में आया था. भारत के अखबारी जगत में विजुअल चेंज एजेंट (बदलाव के प्रतीक) के रूप में इंडियन पोस्ट और द टेलिग्राफ ही माने गये. 21वीं सदी की प्रिंट मीडिया में जिस विजुअल रिवोल्यूशन की चर्चा होती है, 80-90 के दशकों में यह काम भारत में द टेलिग्राफ, इंडियन पोस्ट और द इंडिपेंडेंट ने किया़ यह अलग बात है कि इंडियन पोस्ट और द इंडिपेंडेंट नहीं चल सके.
इस बदलाव के बावजूद यही धारणा थी कि प्रिंट मीडिया में ले आउट-रूप-साज-सज्जा का एक अलग विभाग होता है, जो उसे निखारता है् पर 90 के दशक से यह धारणा टूटने लगी. वैन सम्मेलन में दुनिया के 183 देशों से 1200 से अधिक प्रतिनिधि पहुंचे थे. संपादकों के समूह के बीच मारियो गर्सिया डिजाइनिंग के अतीत और भविष्य को आंक रहे थे, तब लगभग स्तब्धता के साथ लोग उन्हें सुन रहे थे़.
अखबारों के आकार-कलेवर में दुनिया में अप्रत्याशित बदलाव आ रहे हैं. अखबारी जगत के लिए नया शब्द है, कांपैक्ट साइज.
इस नये शब्द और बदले आकार (कांपैक्ट) के पीछे लंबी कहानी है. अमेरिका-यूरोप के बाजार में सूचना क्रांति और इंटरनेट के इस दौर में अखबार के पाठकों की सख्या लगातार घट रही है. ब्रिटेन में जब अखबारों की प्रसार संख्या घटने लगी, तो नयी बहस खड़ी हो गयी कि क्या इंटरनेट अखबारों को खत्म कर देंगे? वर्ष 2000 से 2003 के बीच ब्रिटेन के मशहूर अखबार द गार्डियन, द टाइम्स, द डेली टेलिग्राफ और द इंडिपेंडेंट की प्रसार संख्या 14.6 फीसदी घट गयी. अकेले द इंडिपेंडेंट जैसा मशहूर अखबार 19.3 फीसदी घट गया. इस दौर में इन चारों अखबारों ने वर्ष 2003 के आरंभिक नौ महीनों में 60 मिलियन पौंड मार्केटिंग पर खर्च किया, ताकि घटती प्रसार संख्या को रोका जा सके.
यह तर्क भी सामने आया कि पोस्ट इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन एरा (औद्योगिक क्रांति के बाद के इस दौर में) जीवन व्यस्त हो गया है़ लोगों के पास समय का अभाव है. नयी पीढ़ी कंप्यूटर फ्रेंडली है, वह इंटरनेट को तरजीह देती हैं. द इंडिपेंडेंट ने इस प्रक्रिया का सर्वे और शोध-अध्ययन कराया़ इस शोध का निष्कर्ष था कि 40 वर्ष से अधिक उम्र के लोग इन बड़े आकार के अखबारों को पढ़ते हैं. इस सर्वे आधारित अध्ययन से यह भी निष्कर्ष निकला कि बड़े आकार के अखबार मरदाना (मास्क्यूलिन) हैं. द इंडिपेंडेंट के संचालकों का निष्कर्ष था कि बाजार के बदलते आयामों को हमें समझना होगा़ द टाइम्स (लंदन) के लोग भी प्रसार संख्या घटने से चिंतित थे, पर वे द इंडिपेंडेंट की बाजार नीति को गौर से देख रहे थे.
द इंडिपेंडेंट ने अखबार के आकार को बदलने का फैसला किया़ यह अत्यंत जोखिम भरा कदम था. ब्रिटेन में बड़े आकार के अखबार ही गंभीर अखबार माने जाते थे. आकार घटाने को लेकर नयी बहस आरंभ हो गयी.
आर्थिक कारणों से द इंडिपेंडेंट को नयी रणनीति बनाने के अलावा विकल्प नहीं था. अंतत: द इंडिपेंडेंट ने अपना आकार बदला और पहला कांपैक्ट संस्करण निकाला. इस प्रयोग के समय द इंडिपेंडेंट के लोग नर्वस थे. पाठकों की प्रतिक्रिया को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे थे.
अंतत: 30 सितंबर 2003 को द इंडिपेंडेंट ने बड़े आकार के साथ-साथ कांपैक्ट आकार में भी प्रकाशन आरंभ किया. सामग्री दोनों में एक तरह की थी. पहले लंदन में यह प्रयोग हुआ. लंदन में अप्रत्याशित सफलता मिली़ 10, 000 से बढ़कर 20, 30 और 50, 000 तक कांपैक्ट इंडिपेंडेंट अखबार बिकने लगा़. सितंबर 2003 से मई 2004 के बीच यात्री जगहों में 66 फीसदी बिक्री बढ़ी़ बहुसंख्यक पाठकों ने इस नये आकार का स्वागत किया.
अंतत: द टाइम्स भी इसी रास्ते चल पड़ा़ इसके बाद तो दुनिया के कई हिस्सों में यह प्रयोग शुरू और सफल रहा़.
वैन कान्फ्रेंस सोल 2005 में इस पृष्ठभूमि की चर्चा के साथ भविष्य के पाठकों पर बात होती है. अखबारों में इस्तेमाल होनेवाले टाइपोग्राफी (शब्दों के आकार-प्रकार) पर चर्चा होती है. नवंबर 2004 में अमेरिका की एक कंपनी एसेंडर कॉरपोरेशन ने 100 श्रेष्ठ अमेरिकी अखबारों की टाइपोग्राफी का अध्ययन किया. यह दुनिया में अपने ढंग का अनूठा अध्ययन था. इस अध्ययन से यह पता लगाने की कोशिश हुई कि पाठक किस तरह की टाइपोग्राफी पसंद करते हैं? आज बाजार में 50, 000 फौंट (शब्दों के आकार-प्रकार) उपलब्ध हैं, पर श्रेष्ठ अमेरिकी अखबार 10 लोकप्रिय फौंट ही अधिकतर प्रयोग करते हैं.
अखबारों के नये ले आउट में यह टाइपोग्राफी अब महत्वपूर्ण कारक बन गया है. इसके साथ ही कंप्यूटर ग्राफिक्स भी महत्वपूर्ण घटनाओं को कंप्यूटर ग्राफिक्स के माध्यम से नये पाठक पढ़ना चाहते हैं. नये ले आउट में तस्वीरों के चयन की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी है.
दक्षिण भारत के तीन महत्वपूर्ण अखबारों द हिंदू, दक्कन क्रानिकल और दक्कन हेरल्ड ने ले आउट और विजुअल एक्सलेंस (मोहक प्रस्तुति) में पश्चिमी अखबारों के तर्ज पर खुद को काफी समृद्ध बनाया है. आमूलचूल बदलाव किया है. मारियो गर्सिया की पत्रिका डिजाइन ने इस बदलाव के संबंध में दक्कन हेरल्ड से एक बातचीत भी प्रकाशित की है, जो बड़ा रोचक है. बेंगलुरु से प्रकाशित इस अंगरेजी अखबार का डिजाइन भी राल्फ नामक विदेशी डिजाइनर ने तैयार किया है. हेरल्ड का कहना है कि नये ले आउट से अखबार को युवा, आधुनिक और पाठक मित्र (रीडर्स फ्रेंडली) बनाया गया है. अखबार में इस्तेमाल होनेवाले शब्दों का आकार (फौंट) बढ़ाया गया है. कैप्शन, बॉक्स, हेडिंग वगैरह में व्यापक बदलाव हुए हैं. अच्छी तस्वीरों और ग्राफिक का प्रयोग बढ़ा है.
इस नये परिर्वान को बेंगलुरु के युवा पाठकों ने बहुत पसंद किया है. इसके बाद द हिंदू में बदलाव आया.
मारियो गर्सिया का मानना है कि युवा पाठकों को जोड़ने और घटती प्रसार संख्या को रोकने में विजुअल चेंज (ले आउट) की बड़ी भूमिका है. समाज में हो रहे नये बदलावों के अनुरूप अखबार में बदलाव नहीं होंगे, तो अखबारों के लिए संकट होगा.

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